RE: Antervasna नीला स्कार्फ़
कैसे कहूँ कि जब से लखनऊ से लौटी हूँ, उमस-सी इन रातों और पिघलती आइसक्रीम से दिनों के इस बदलते मौसम में मुझे अवि की उँगलियाँ ठंडी नहीं, सर्द लगती हैं। रिलेशनशिप की मियाद इतनी जल्दी ख़त्म हो जाती है? माँ सही कहती है। इन्स्टेंट मैसेजिंग वाली ये पीढ़ी इंतज़ार नहीं जानती। इन्स्टेंट मैसेजिंग वाली ये पीढ़ी प्यार भी नहीं जानती।
इस घर की इन दीवारों से अब भी टकराती हूँ मैं लेकिन जानबूझकर। दम घुटने लगा है मेरा। मुमकिन है कि ये मेरी अपनी नाकामियों की वजह से हो। ये भी मुमकिन है कि मेरा जी ऊब गया हो। ये भी मुमकिन है कि बँध जाने से डर लगने लगा हो। ये भी मुमकिन है कि मैं बदलने लगी हूँ। और ये भी मुमकिन है कि मेरा दिमाग़ पूरी तरह फिर चुका हो…
सही कहता था अवि, लव इज़ रियली द बिगेस्ट एसहोल!
अवि के ब्लॉग-ड्राफ़्ट्स से
30 मई, 2013
मैं लकड़ी का एक पुल पार कर स्कूल जाया करता था। आयजॉल के उस सेंट्रल स्कूल में हिंदी बोलने वाले कम ही बच्चे थे। पता नहीं ऐसे कितने सेंट्रल स्कूलों में पढ़ता रहा हूँ! पता नहीं कितनों से दोस्ती हुई और कितने बिछड़ गए! एक सरकारी मुलाज़िम के बच्चे कभी किसी शहर के नहीं होते, किसी दोस्त, किसी स्कूल के भी नहीं होते। और अगर वो सरकारी मुलाज़िम अपने परिवार का भी न हुआ हो, तो उसके बच्चे का ख़ुदा ही मालिक है।
मैं बहुत सारे अजनबियों के साथ रहा हूँ। सबने यही यक़ीन दिलाया कि कि जिससे भी ख़ूब प्यार करोगे, वह आपका हो जायेगा। मैंने दूसरों को प्यार करना ख़ूब सीखा। दूसरों के रास्ते ख़ुद को प्यार करना ख़ूब सीखा। नारिसिस्ट हूँ। दूसरों में अपना अक्स देखकर प्यार करता रहा हूँ उसी को। दूसरों को अपना भी बनाया है ख़ूब, दूसरों के उस हिस्से को जो मेरी फ़ितरत के माफ़िक़ होते थे। जिस दिन दूसरों में अपना अक्स फीका पड़ने लगा, उस दिन मैंने प्यार करना बंद कर दिया। इसलिए मैं किसी का नहीं बन सका कभी। बचपन के सीखे हुए में कहीं कोई कमी रह गई होगी, शायद इसलिए।
मैं नैना का भी नहीं हो पाया। चाहकर भी। मुझे वो बहुत सारे चेहरे याद आ रहे हैं जो मेरे हो गए। वजह-ए-ताल्लुक और तर्क-ए-जुदाई के सबब भी याद आ रहे हैं। हम जिस तेज़ी से दूसरों से जुड़ने के बहाने ढूँढ़ते हैं, उस तेज़ी से अलग हो जाने के कारण भी खोज लेते हैं। इस बार बहाने और कारण, दोनों नैना के खोजे हुए हैं। नैना मेरी कई सारी ग़लतियों का प्रायश्चित है।
नैना ने कहा था कि उसके चले जाने से क्या फ़र्क़ पड़ता है? रहने के लिए वो अपनी मर्ज़ी से आई थी। जा भी वो अपनी मर्ज़ी से रही है। नैना को वाकई इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उसका होना मुझे हज़ार आफ़तों से बचा लिया करता था। उसके साथ जितनी सुबहों ने आँखें खोलीं, शिकायतों से खाली रहीं।
मैं घर से निकला तो आवारगी और बेपरवाही में बिताए लम्हों से बुनी हुई चादर के नीचे पनाह ढूँढ़ ली। इतने सालों में उस चादर के नीचे मेरे साथ मेरी बेचैनियाँ बाँटते जिस्मों के बारे में मैंने कभी सोचा ही नहीं। नैना ने मुझे सोचना सिखाया था। मैं उसको जो सिखाने की कोशिश कर रहा था, शायद वो उसे पसंद नहीं आया। हमें वाक़ई लखनऊ की शताब्दी में नहीं मिलना चाहिए था। मुझे नैना को उसी दिन वापस उसके हॉस्टल छोड़ देना चाहिए था जिस दिन वो मेरे साथ रहने आई थी। हम दूर रहते तो शायद कुछ और महीनों के लिए क़रीबी बनाए रखते। अगर शादी दुनिया का सबसे वाहियात इंस्टीट्यूशन है तो लिव-इन रिश्तों के बर्बाद हो जाने की सबसे बड़ी वजह।
मैं आज मिस एलिस और केकी दारुवाला, दोनों को जान से मार देना चाहता हूँ।
मुक्ति
वो फिर ग्रीन टी बनाकर ले आए थे।
प्रमिला के लिए चाय का मग बिस्तर की बग़लवाली मेज़ पर रखकर वे खिड़कियों की ओर मुड़ गए, पर्दे हटाने के लिए। ये पर्दे प्रमिला की पसंद के थे। हरे-नीले रंगों की छींट सफ़ेद-जैसे दिखने वाले रंग पर।
पिछली दीवाली पर आख़िरी बार धुले थे ये पर्दे। पर्दों के हटते ही नवंबर की धूप का एक कोना फ़र्श पर छितरा गया। खिड़कियों पर लगे ग्रिल की चौकोर आकृतियाँ ज़मीन पर बड़ी सुलझी हुई लग रही थीं। परछाईं का एक-एक हिस्सा जैसे बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे उकेरा गया हो। उन्होंने अपनी कुर्सी बिस्तर के क़रीब खींच ली।
प्रमिला की आँखें बंद थीं। धीमी-धीमी चलती साँसों से लगता था जैसे गहरी नींद में हो। अचानक आँखें खोलकर वे पंखे की ओर देख रही थीं। आँखों के नीचे गहरे धब्बे ज़रूर थे लेकिन पुतलियों की चमक बिल्कुल वैसी ही थी जैसी उन्होंने बयालीस साल पहले देखी थी, शादी के बाद पहली बार। प्रमिला के साधारण से चेहरे की वो असाधारण आँखें! वो और नहीं सोचना चाहते थे, भावुक होने के लिए वक़्त ही कहाँ था! अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाकर उन्होंने प्रमिला की बाँह को छू लिया।
“चाय पियोगी न?”
“हाँ, लेकिन ये चाय नहीं। अम्मा के हाथ वाली चाय। वो मिलेगी क्या?”
“डॉक्टर ने यही चाय पीने के लिए कहा है प्रमिला। तुम्हारी तबीयत जल्दी ठीक हो जाएगी इससे।”
तबीयत का ज़िक्र आते ही प्रमिला उठकर बैठ गई। अब उन आँखों से उतरता हुआ ग़ुस्सा पूरे चेहरे पर फैल गया। उसकी भौंहों के तनाव की लंबाई देखकर वो समझ जाते हैं कि ग़ुस्से की तीव्रता कितनी है। अभी भौंहें इतनी ही तनी थीं कि आँखों का सिकुड़ना पता नहीं चल रहा था।
“तबीयत ठीक है। रामखेलावन की जोरू दूध और चीनी चुरा ले गई है। अब साड़ी चुराएगी।”
“ऐसी बात नहीं है प्रमिला। वाक़ई तुम्हें डॉक्टर ने यही चाय पीने की सलाह दी है। इसे ग्रीन टी कहते हैं।”
“तबीयत ठीक है। दूध चीनी चुराई है, अब साड़ी चुराएगी।” बुदबुदाते हुए प्रमिला फिर तकिये पर लुढ़क गईं। चाय का मग वहीं पड़ा रहा। अनछुआ। गहरे नीले रंग का ये मग प्रमिला ही लाई थीं सरोजिनी नगर से। दो साल पहले तक ये कुर्सी, सुबह का अख़बार, चाय का यही मग और प्रमिला का साथ उनकी सुबह के अभिन्न हिस्से थे।
अब ये हिस्से टुकड़ों-टुकड़ों में पूरे घर में ऐसे बिखरे पड़े थे कि उन्हें सहेजना नामुमकिन लगता था।
वो थोड़ी देर प्रमिला को ऐसे ही देखते रहे, बिना कुछ कहे। फिर उठकर धीरे-धीरे ड्राइंगरूम में आ गए। पूरी ज़िंदगी जिन घरेलू उलझनों से प्रमिला ने उन्हें बचाए रखा था, वही परेशानियाँ अब उम्र के इस मोड़ पर उनकी दिनचर्या का हिस्सा थीं। घर ठीक करना था। मशीन में गंदे कपड़े डालने थे। खाना बनवाना था। कामवाली के आने-जाने का, दूध, धोबी, अख़बार और राशन की दुकान का हिसाब रखना था। इन सबके बीच प्रमिला को वक़्त पर दवा देना था। उससे नहाने-धोने, खिलाने-पिलाने के लिए मनुहार करना था।
तभी फ़ोन अपनी पूरी ताक़त से घनघनाया था।
“कैसे हैं पापा?”
सुकृति की आवाज़ सुनते ही उन्हें लगा जैसे आँखों के आगे धुँआ बनकर रुके हुए आँसू पिघलकर अब चेहरे पर लुढ़क ही आएँगे। लेकिन उन्होंने ख़ुद को संभाला। वैसे ही जैसे इतने महीनों से कतरा-कतरा ख़ुद को संभालते आए थे।
“ठीक हूँ। तुमलोग कैसे हो? मेहा का बुख़ार उतरा?”
“मेहा ठीक है पापा। कॉलेज गई है। मैं भी चार दिनों बाद ऑफ़िस आई हूँ आज। माँ कैसी हैं?”
“तीन दिन पहले जैसी थीं वैसी ही बेटा। क्या बदलेगा अब?”
“नहीं पापा। मैंने इंटरनेट पर एक नया रिसर्च पेपर पढ़ा कल रात में। आपको भी लिंक मेल किया है। कुछ हर्बल रेमेडिज़ आई हैं बाज़ार में जिससे अल्ज़ाइमर्स ठीक हो सकता है। मैं यहाँ पता करती हूँ। आप भी डॉक्टर से पूछिए न।”
“पूछ लूँगा।” नहीं चाहते हुए भी उनकी हताशा उनकी आवाज़ में उतर ही आई थी।
बेटी से कैसे कहते कि ऐसे कई रिसर्च पेपर पढ़-पढ़कर अब उनकी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। कैसे कहते कि डॉक्टर ने उनसे कहा था कि अवसाद के लिए अब उन्हें भी इलाज की ज़रूरत है। कैसे कहते कि उन्होंने ये भी पढ़ा था कि डिमेनशिया या अल्ज़ाइमर्स जैसी बीमारियाँ आनुवांशिक होती हैं। जेनेटिक।
“तुम भी अपना ख़्याल रखना मेरी बच्ची।” बस इतना भर कह पाए थे फ़ोन पर।
“आई एम सॉरी पापा। मैं आपकी कुछ भी मदद नहीं कर पाती। आई फील सो मिज़रेबल।” सुकृति फिर फ़ोन पर रो पड़ी थी। उन्हें कभी-कभी लगता था कि प्रमिला को संभालने से ज़्यादा मुश्किल सुकृति को या ख़ुद को संभालना था। उससे ज़्यादा मुश्किल उन दोस्तों, रिश्तेदारों, शुभचिंतकों की भीड़ को संभालना था जो गाहे-बगाहे अपनी विशेष टिप्पणियाँ बाँटने उनके घर आ धमकते थे।
“सुकु बेटा, मेरी इतनी ही मदद करो बस कि मज़बूत रहो। तुम्हारी बेचारगी तुम्हारी माँ की बीमारी से ज़्यादा भारी लगती है मुझे।”
“सॉरी पापा, आई विल बी योर ब्रेव गर्ल। मैं भूल जाती हूँ कि मैं एयरकॉमोडोर वी डी कश्यप की बेटी हूँ।”
“दैट्स लाइक इट। बाद में बातें होंगी। अभी बहुत काम है।” ये कहकर उन्होंने फ़ोन रख दिया। दो मिनट सोचते रहे कि काम ख़ुद को संभालने से शुरू करें या घर को संभालने से। लेकिन फिर चाय पिलाने की आख़िरी कोशिश के लिए प्रमिला के कमरे की ओर बढ़ गए।
ये कमरा प्रमिला ने सबसे ज़्यादा मेहनत लगाकर सजाया था। “जब आप बूढ़े होने लगते हैं तो दिन का सत्तर फ़ीसदी हिस्सा बेडरूम में, दस बाथरूम में, दस किचन और डाइनिंग हॉल में बिताते हैं। बाक़ी बचे दस फ़ीसदी वक़्त में ही आप घर के और हिस्सों में जा पाते हैं। ऐसा मैंने कहीं पढ़ा है और मेरे ख़्याल से एक लिहाज़ से ये सही भी है। इसलिए सबसे ख़ुशनुमा यही कमरा होना चाहिए।” दोनों में से किसी को क्या मालूम था कि प्रमिला की दुनिया एक दिन इसी कमरे में सिमट जाएगी।
बेडरूम की इस साजो-सज्जा के बीच प्रमिला अब एक प्रतिमा भर रह गई थी। बात करते-करते भूलना, चिड़चिड़ापन, बेवजह रोना, तनाव ये सब लक्षण तो इस घर में आते ही नज़र आने लगे थे। लेकिन तब लगता था, नई जगह या फिर एक अत्यंत व्यस्त सामाजिक दिनचर्या से बाहर निकलकर आने की वजह से वो परेशान है।
लेकिन लक्षण बिगड़ते चले गए। एक शाम तो प्रमिला ने उन्हें पहचाना ही नहीं। लगातार कहती रही कि आप मेरे बाबूजी के दोस्त हैं जो बरेली से आए हैं। फिर डॉक्टरों और अस्पतालों का चक्कर शुरू हुआ। लेकिन एक पल के लिए भी उन्हें ऐसा नहीं लगा कि प्रमिला अब ठीक नहीं होगी।
एक दिन प्रमिला शाम को बैठे-बैठे रोने लगी। बहुत पूछने पर कहा, “आप मेरे बाबूजी के दोस्त हैं इसलिए बता रही हूँ।” उस दिन प्रमिला के लिए पहली बार वे अजनबी थे और उस दिन ऐसे अजनबी हुए कि इतने सालों तक तिनका-तिनका जोड़ा हुआ विश्वास एक झटके में धराशायी हो गया।
प्रमिला ने पहली बार किसी महेश का ज़िक्र किया था उस दिन। कहती रही, “आप बाबूजी के दोस्त हैं इसलिए बता रही हूँ। उन्हें समझाइए न कि मैं महेश से शादी करना चाहती हूँ। ऐसे किसी इंसान के साथ कैसे ज़िंदगी गुज़ार दूँ जिसे जानती तक नहीं। आप समझाइए न बाबूजी को।”
वो एक शाम उनकी ज़िंदगी की सबसे भारी शाम थी। प्रमिला अपनी बेख़ुदी में कई बातें बताती चली गई और उन्हें सुनते हुए ऐसा लगता रहा जैसे सालों बाद आई बाढ़ ने सब्र के किसी बाँध को तोड़ दिया है और ये बाढ़ किसी को नहीं बख़्शेगी, कम-से-कम उनके और प्रमिला के बीच के रिश्ते को तो बिल्कुल नहीं।
उस रात एक लम्हे के लिए भी उनकी पलकें नहीं झपकी थीं। कई तरह के भाव उनके मन में आते-जाते रहे- विश्वासघात, क्षोभ, नाराज़गी, चोट, तकलीफ़, पश्चाताप।
अगली सुबह प्रमिला को कुछ याद न था और उन्होंने कुछ पूछा भी नहीं। बड़े अनमने ढंग से दोनों अपने-अपने कामों में लगे रहे। साथ-साथ होते हुए भी दूर-दूर।
प्रमिला ठीक लग रही थी उस दिन, और प्रमिला ने ही याद दिलाया कि आज 24 तारीख़ थी- 24 सितंबर। बिजली-बिल जमा करने की आख़िरी तारीख़। कमाल तो ये था कि बीमारी के बीच जब प्रमिला ठीक होतीं तो इस तरह की तमाम छोटी और कई बार ग़ैर-ज़रूरी बातें उसे याद रहतीं। रिश्तेदारों की शादी की सालगिरह, पड़ोसियों के जन्मदिन, सुनामी किस दिन आया और किस दिन गुजरात में दंगे शुरू हुए…।
लेकिन आज उन्हें इस तारीख़ से कुछ और याद आया था।
सुकृति बहुत छोटी थी, ढाई साल की। उनकी पोस्टिंग सहारनपुर के पास सरवासा में अभी हुई ही थी। घर मिला नहीं था और तीनों एयरफोर्स स्टेशन के मेस में रह रहे थे। अभ्यास के दौरान एक दिन विंग कमांडर अखौरी के साथ उन्हें प्लेन उड़ाना था। एयरबेस से टेक-ऑफ़ के दौरान तो सबकुछ ठीक लगा लेकिन ऊपर उठते ही दोनों को किसी तकनीकी ख़राबी का अहसास हो गया। विंग कमांडर ने ज़र्बदस्ती उन्हें कॉकपिट से इजेक्ट करवा दिया लेकिन ख़ुद क्रैश में मारे गए। ये सब कुछ सात मिनट के भीतर हो गया था। उड़ना, एयरबेस से संपर्क टूटना, विंग कमांडर अखौरी से इजेक्ट करने-ना करने के लिए बहस, उनका कॉकपिट से निकल आना, प्लेन का सौ मीटर की दूरी पर गिरकर आग लग जाना…। जब उन्हें होश आया तो वे अस्पताल में थे। होश में आने से लेकर अगले छह महीने तक वे अस्पताल के उसी बिस्तर पर पड़े रहे, मल्टीपल फ्रैक्चर्स के साथ।
लेकिन प्रमिला ने हिम्मत नहीं हारी। सुकृति के साथ तीनों वक़्त का खाना लेकर हर रोज़ बेस स्टेशन से अस्पताल आती रही।
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