“इसको डॉक्टर बनाना बिटिया।” जाने क्यों उन्होंने मुकेश की बीवी से ये कह दिया। मुकेश की बीवी उनकी इस बेतुकी बात का क्या जवाब देती? वो बिचारी अपने दाहिने पैर के अँगूठे से फ़र्श पर चाँद-जैसा कुछ बनाती रही। उन्हें तुरंत अपनी ग़लती का अहसास हो गया। वो किस पर अपनी अपेक्षाओं का बोझ डालने चले थे! फिर भी उन्होंने कहा,” चंदू को तो डॉक्टर हम बनाएँगे। जब हमारे दाँत झड़ जाएँगे और हम थोड़े और बूढ़े हो जाएँगे तो चंदू हमें सूई देकर ठीक करेगा, है न चंदू?”
उनकी इस बात पर बच्चा खिलखिलाकर हँस पड़ा। मुकेश की बीवी के चेहरे पर भी एक हल्की-सी मुस्कुराहट तैर गई। मुकेश को सुबह उनके पास भेजने की बात कर वे घर के भीतर चले गए।
प्रमिला अभी भी सो रही थी लेकिन उन्होंने आगे बढ़कर जगाने के लिए आवाज़ दी। एक आवाज़ में ही प्रमिला की आँखें खुल गईं। “खाना लाता हूँ, फिर मत सो जाना।”
प्रमिला ने इस बात पर कोई प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं की। वो गए, खाने की प्लेटें बारी-बारी से माइक्रोवेव में डालकर गरम किया और गर्म तश्तरियाँ बेडरूम में ही ले आए।
“ये मुकेश की बीवी खाना ठीक-ठाक बना लेती है। लेकिन आजतक किसी ने वैसा राजमा नहीं खिलाया जैसा तुम बनाती हो।” उन्होंने हँसते हुए कहा।
प्रमिला को उनकी कोई बात समझ में नहीं आई।
“चाय चुराई है, अब साड़ी चुराएगी” का रिकॉर्ड फिर शुरू हो गया।
वे उठकर प्रमिला की बग़ल में आ गए, हाथ में खाने की प्लेट लिए हुए। रोटी और राजमा का एक-एक गस्सा धीरे-धीरे वे प्रमिला के मुँह में डालते रहे और उससे बातें करते रहे। लगातार। बिना रुके। निरंतर।
“मैंने तुमसे कभी नहीं कहा पम्मी, अब कह रहा हूँ जब तुमको मेरी बात समझ भी न आएगी, तब। पैम, तुममें बहुत धैर्य था। मुझ जैसे आदमी को तुम झेलती कैसे थी? कैसे इतना अपमान सह लेती थी? याद है, एक बार तुमने इसी राजमा में नमक नहीं डाला था तो मैंने पूरा भगोना डाइनिंग हॉल के फ़र्श पर फेंक दिया था? लेकिन उस शाम फिर भी तुम मेरे साथ मुस्कुराती हुई क्लब आई थी, मेरे वीएसएम के पदक मिलने का जश्न मनाने। ये समझते हुए भी कि ये विशिष्ट व्यक्ति तुम्हें अपमानित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ता।”
उनका गला रूँध गया था और चेहरे का रंग बदलने लगा था।
प्रमिला मुँह में उनके हाथों के रास्ते आने वाले खाने को धीरे-धीरे चबाती रही, उनकी ओर देखती रही, जैसे सब समझना चाहती हो लेकिन…।
उन्होंने बोलना बंद नहीं किया। “हमारे बेटे को तुम डॉक्टर बनाना चाहती थी, मैंने फ़ौज में भेजने की ज़िद की। तुमने फिर मेरे आगे हार मान ली। काश! तुमने ज़िद की होती। काश! तुम मुझसे लड़ती, झगड़ती। हमारा बेटा ज़िंदा होता शायद। मिग ने मुझे छोड़ दिया। हमारे बेटे को नहीं बख़्शा। काश! मैंने तुम्हारी बात मान ली होती। उस डॉक्टर बेटे की ज़रूरत आज सबसे ज़्यादा मुझे है पम्मी।”
इतना कहकर वे फूट-फूटकर रोने लगे। इतने सालों में पहली बार वो कमज़ोर पड़े थे, वो भी प्रमिला के सामने। वो भी इतनी देर से, जब प्रमिला के पास न कुछ कहने की समझ बची थी न कुछ सुनने की।
जूठे हाथ थाली में वैसे के वैसे पड़े रहे। प्रमिला उन्हें वैसे ही टुकुर-टुकुर देखती रही।
शायद पति की बातों का असर था या मौक़े की नज़ाकत, प्रमिला ने अपने आप उनके सामने से प्लेट हटाकर बिस्तर की बग़ल वाली टेबल पर रख दिया और बिना पानी पिए आँखें मूँदकर लेट गई।
वे भी वहीं प्रमिला की बग़ल में लेट गए, वैसे ही राजमा-चावल में लिपटी उँगलियों के साथ।
आज जाने क्यों उन्हें लगा कि उन्हें नींद इसी कमरे में आएगी, प्रमिला की बग़ल में। वर्ना दोनों के बेडरूम तो सालों पहले ही अलग हो गए थे। थोड़ी देर में उन्हें वाक़ई नींद आ गई थी।
सुबह देर तक जब उन्होंने पीछे का दरवाज़ा नहीं खोला तो मुकेश की बीवी बग़ल से ग्रुप कैप्टन माथुर को बुला लाई। मुकेश ने पिछले दरवाज़े का शीशा तोड़कर कुंडी भीतर से खोलने की कोशिश की। थोड़ी-सी मेहनत के बाद दरवाज़ा खुल गया। तबतक ग्रुप कैप्टन माथुर ने अपने दूसरे पड़ोसियों को भी फ़ोन करके बुला लिया था।
जब सब बेडरूम में पहुँचे तो कुछ नहीं बदला था। नवंबर की धूप वैसे ही पर्दों के पार से कमरे में आ रही थी। ग्रिल की काली-गहरी परछाईं वैसे ही फ़र्श पर बिखरी हुई थी। प्रमिला खोई-खोई-सी वैसे ही पंखे को देख रही थी।
लेकिन एयर कॉमोडोर वीडी कश्यप का रिडेम्पशन पूरा हो चुका था। उन्हें मुक्ति मिल गई थी।
**************समाप्त****************