RE: Indian Sex Kahani डार्क नाइट
‘‘आइडिया बुरा नहीं है; वैसे भी आज डिनर करने मुझे बाहर ही जाना होगा, और इस इलाके को मैं अच्छे से जानती भी नहीं हूँ।’’
‘‘ठीक है, मैं आपको सात बजे पिक करूँगा।’’
कबीर, माया को उसी रेस्टोरेंट में ले गया, जहाँ वह प्रिया को ले गया था। उसी डिम लाइट में माया का चेहरा भी प्रिया के चेहरे की तरह चमक रहा था, मगर प्रिया के चेहरे पर एक शीतल आभा थी। स्ट्रिप क्लब की नीली नशीली रौशनी की तरह... जबकि माया के चेहरे से एक आँच सी उठती लग रही थी।
‘‘आपकी जॉब कहाँ है?’’ कबीर चाहकर भी अपनी आँखों को उस आँच से बचा नहीं पा रहा था।
‘‘यहीं सिटी में, इन्वेस्टमेंट फ़र्म है।’’
‘‘वाह... जॉब का़फी चैलेंजिंग होगी?’’
‘‘आइ लाइक चैलेंजेस।’’ माया की आँखों में एक चमक सी कौंधी, ‘‘आप क्या करते हैं कबीर?’’
‘‘फिलहाल तो कुछ नहीं।’’ कबीर ने बे़फिक्री से कहा।
‘‘क्या! आप कोई जॉब नहीं करते?’’ माया चौंक उठी।
‘नहीं।’ कबीर की बे़फिक्री कायम रही।
‘‘आपकी क्वालिफिकेशन क्या है?’’
‘‘कंप्यूटर साइंस में पोस्टग्रैड किया है।’’
‘‘फिर भी कोई जॉब नहीं कर रहे! हमारी फ़र्म को कंप्यूटर इंजिनियर्स की ज़रूरत रहती है; आप कहें तो मैं आपके लिए बात करूँ?’’
‘‘थैंक्स, मगर अभी मेरा जॉब करने का कोई इरादा नहीं है।’’ कबीर ने विनम्रता से कहा।
‘‘आप करना क्या चाहते हैं अपनी ज़िंदगी में?’’ माया की आवा़ज आश्चर्य में डूबी हुई थी।
‘‘उड़ना चाहता हूँ।’’ कबीर ने एक मासूम मुस्कान बिखेरी।
‘‘पायलट बनना चाहते हैं?’’
‘‘उहूँ, चील की तरह उड़ना चाहता हूँ पंख फैलाकर... ऊँचे, खुले आसमान में।’’
‘‘सच कहूँ तो आप मुझे किसी बड़े बाप की बिगड़ी औलाद लगते हैं।’’ माया के स्वर में म़जाक था या व्यंग्य, कबीर ठीक से समझ नहीं पाया।
‘‘बड़ा बाप ही क्यों, बड़ी माँ क्यों नहीं?’’ कबीर ने भी कुछ उसी अंदा़ज में पूछा।
‘‘वाजिब सवाल है, मगर कहावत तो यही है।’’
‘‘इसे ही तो बदलना है; जब आपके बच्चे हो जाएँ तो उन्हें बिगाड़कर नई कहावत बनाइएगा।’’ कबीर ने ठहाका लगाया।
‘‘मैं बच्चे नहीं चाहती।’’
‘क्यों?’ कबीर ने चौंकते हुए पूछा।
‘‘मुझे ज़िंदगी में बहुत कुछ हासिल करना है; बच्चों की परवरिश के लिए मेरे पास वक्त नहीं रहेगा।’’
कबीर ने आगे कुछ नहीं कहा। उसे माया में वह नेहा दिखाई दी, जिसने अपने डैड की बात मान ली थी, और सफलता और समृद्धि की राह पर अपनी ज़िंदगी की फरारी सरपट दौड़ा दी थी। नेहा भी रेस ट्रैक पर थी, मगर बेमन से; उसकी ऩजरें मंज़िल पर नहीं थीं। उसे तो पता भी नहीं था कि उसे कहाँ जाना था... मगर माया अपनी मंज़िल जानती थी। क्या माया अपनी मंज़िल तक पहुँच पाएगी? ईश्वर न करे कि वह नेहा की तरह किसी दुर्घटना का शिकार हो।
खाना खत्म होने पर वेटर बिल ले आया।
‘‘लेट मी पे।’’ बिल पर लगभग झपटते हुए माया ने कहा।
‘‘नहीं माया, आप मेरी मेहमान हैं।’’ कबीर ने टोका।
‘‘मगर कबीर, तुम तो कुछ कमाते भी नहीं हो।’’
कबीर ने माया के उसे ‘तुम’ कहने पर गौर किया। क्या माया का ‘आप’ से ‘तुम’ पर आना औपचारिकता को त्यागना था; या फिर ये जानकर, कि वह कुछ कमाता नहीं था, माया की ऩजरों में उसका सम्मान कम हो गया था।
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