RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“मतलब यह कि सिन्हा साहब रोज मेरे कान खाते थे कि आज पिक्चर देखने चलो, आज फलां होटल में डिनर के लिये चलो, आज फलां क्लब में चलो, आज फलां अभिनेत्री अपने बंगले पर फिल्म इन्डस्ट्री के बड़े बड़े लोगों को पार्टी दे रही है, वहां मेरे साथ चलो, जूहू पर घूमने चलो, यहां चलो, वहां चलो । मैं रोज बहाना बनाकर टाल देती थी लेकिन अब हालत यह हो गई है कि मेरे बहानों का स्टॉक भी खतम हो चुका है और सिन्हा साहब यह समझने लगे हैं कि मैं जान बूझकर उनका निमन्त्रण अस्वीकार करके उनकी तौहीन कर रही हूं । इसलिये दफ्तर की एक लम्बे अरसे से पेंडिंग फाइल निपटाने जैसे अन्दाज से मैं आज सिन्हा साहब के साथ जा रही हूं, ऐश करने नहीं ।”
“क्या प्रोग्राम है ?”
“पहले मैट्रो पर फिल्म देखने जायेंगे, फिर नटराज में डिनर के लिये जायेंगे और उसके बाद सिन्हा साहब अपनी कार पर मुझे वापिस यहां छोड़ जायेंगे ।”
“बीच में कहीं जूहू का प्रोग्राम नहीं है ।”
“नहीं ।” - आशा सहज स्वर में बोली ।
“या फिर सिन्हा साहब के बैडरूम का ?”
“हट बदमाश ।” - आशा एक दम भड़ककर बोली ।
“अच्छा, अच्छा नहीं होगा लेकिन इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि सिन्हा साहब मरते हैं, तुझ पर ।”
“यह कौन सी नई बात कह दी तुमने । सिन्हा साहब क्या अपनी जिन्दगी में सिन्हा साहब का बाप भी मरता था मुझ पर । लाइक फादर, लाइक सन ।”
“क्या मतलब !” - सरला का कप उसके होंठों तक पहुंचता पहुंचता बीच में ही रुक गया - “बाप का क्या किस्सा है ?”
“सिन्हा साहब ने तो दो महीने पहले दफ्तर सम्भाला है, पहले तो इनका आप ही दफ्तर में बैठा करता था ।”
“वह भी मरता था तुम पर ?”
“हां, लेकिन जल्दी ही अपना सारा इश्क भूल गया ।”
“क्या हुआ था ? मुझे सारी बात सुनाओ ।”- सरला उतावले स्वर में बोली ।
“बड़े सिन्हा साहब यह संकेत तो मुझे देते ही रहते थे कि मेरी सूरत का उनके दिल की धड़कन पर कोई अच्छा असर नहीं पड़ता है लेकिन एक दिन तो उन्होंने हद ही कर दी । दफ्तर बन्द होने से दस मिनट पहले मुझ से बोले कि आज उन्होंने कुछ जरूरी चिट्ठियां डिक्टेट करवानी हैं इसलिये मैं ओवरटाइम के लिये रुक जाऊं । मैं रुक गई । पांच बजे दफ्तर खाली हो गया । उन्होंने मुझे अपने दफ्तर में बुलवा लिया । कुछ देर तो वे सब ही मुझे डिक्टेशन देते रहे और फिर डिक्टेशन बन्द करके लग लहकी बहकी बातें करने ।”
“क्या ?” - सरला और व्यग्र हो उठी । ऐसी बातें सुनने का उसे चस्का था - “क्या बहकी बहकी बातें ।”
“यही कि मैं बहुत खूबसूरत हूं और मेरी खूबसूरती उनका बुरा हाल किये हुये है और अगर मैं उनकी जिन्दगी में रंगीनी लाने से इनकार न करूं तो वे कल ही मुझे जौहरी बाजार या मुम्बा देवी ले चलेंगे और मुझे अपनी पसन्द का हीरों का हार खरीद कर देंगे ।”
“फिर !”
“मैंने बड़ी शिष्टता से उन्हें समझाया कि उन्हें ऐसी बातें नहीं करनी चाहिये लेकिन कौन सुनता था । उन पर तो उस दिन इश्क का भूत सवार था । एकाएक वे उठे और आफिस के द्वार के पास पहुंचे । उन्होंने द्वार को भीतर से ताला लगाया, चाबी अपनी जेब में रखी और वापिस आकर मुझे से जबरदस्ती करने लगे ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ? फिर मुझे भी गुस्सा आ गया । मैंने उन्हें गरदन से पकड़ लिया, उनकी तगड़ी मरम्मत की और उनकी जेब से चाबी निकाल ली । मैं उन्हें वही रोता कराहता छोड़कर दरवाजा खोलकर सीधी बाहर निकल गई ।”
“फिर अगले दिन क्या हुआ ?”
“अगले दिन सुबह पहले तो मेरा दफ्तर जाने का फैसला ही नहीं हुआ । मुझे लग रहा था कि अगर मैं दफ्तर गई तो बूढा मुझे बुरी तरह बेइज्जती करके नौकरी से निकालेगा । फिर मैं जी कड़ा करके किसी प्रकार दफ्तर पहुंच ही गई । रोज की तरह चुप चाप अपनी सीट पर जा बैठी और कलेजा थामे बम फटने का इन्तजार करती रही लेकिन कुछ भी नहीं हुआ ।”
“अच्छा !”
“हां बूढे ने हमेशा की तरह मुझे अपने आफिस में बुलाकर डिक्टेशन दी, मैंने चिट्ठियां टाइप करके उसके हस्ताक्षर करवाये । शाम को छुट्टी हुई घर आ गई । अगले दिन फिर यही हुआ । उससे अगले दिन फिर यही हुआ । मुझे नोटिस नहीं दिया गया और बूढे के व्यवहार से यूं लगता था जैसे कुछ हुआ ही न हो ।”
“इतनी तौहीन के बाद भी उसने तुझे नौकरी से क्यों नहीं निकाला, आशा ?” - सरला सोचती हुई बोली ।
“भगवान जाने क्यों नहीं निकाला !”
“शायद उसे अक्ल आ गई हो और अपनी हरकतों पर पछतावा हो रहा हो ।”
“वह ऐसा नेक बूढा नहीं था । सख्त हरामजादा आदमी था वह । मुझे तो नोटिस न मिलने की और ही वजह मालूम होती है ।”
“क्या ?”
“बूढा दूसरी बार पहले से ज्यादा इन्तजाम के साथ मुझ पर हाथ साफ करने की स्कीम बनाये हुये होगा । उसने सोचा होगा कि अगर उसने मुझे नौकरी से निकाल दिया तब तो मैं उसकी पहुंच से एकदम परे हो जाऊंगी । अगर मैं दफ्तर में मौजूद रहूं तो सम्भव है कि कोई ऐसी सूरत निकल आये कि मैं दुबारा उसकी दबोच में आ जाऊं ?”
“अपनी इतनी दुर्गति करवा लेने के बाद भी उसने ऐसा सोचा होगा ?”
“कुछ लोग बड़े प्रबल आशावादी होते हैं ।”
“फिर दुबारा कुछ हुआ ?”
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