RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
“आती हैं खूब आती हैं । लेकिन ऐसे लोग भी शीघ्र ही ये जाहिर कर देते हैं कि वास्तव में उनकी नजर भी मेरे शरीर पर ही हैं फिर मुझे उन लोगों पर ताव आ जाता है कि आखिर क्यों उन्हें मेरा अपने बिस्तर की शोभा बढाने से बेहतर कोई इस्तेमाल दिखाई नहीं देता ।”
“औरत का मर्द के बिस्तर की शोभा बनने से बेहतर कोई इस्तेमाल होता भी नहीं है ।”
“मर्द की जिन्दगी में औरत यही इकलौती जरूरत नहीं होती ।”
“लेकिन यही सबसे अहम जरूरत होती है ।”
“अगर यह सच भी है तो मर्द की यह जरूरत पूरी करने का मुझे वह परम्परागत भारतीय तरीका ही पसन्द है जिसमें पूरे समाज के सामने मन्त्रोच्चारण के साथ मर्द पहले अग्नि के इर्द गिर्द औरत के साथ सात फेरे लेता है और फिर शरीरिक आनन्द की बात सोचता है ।”
“बड़े दकियानूसी ख्याल हैं तुम्हारे ।” - सरला नाक चढा कर बोली - “शारीरिक आनन्द की प्राप्ति के लिये पहले किसी के गले में बन्द बन्धना क्यों जरुरी है भला ?”
आशा चुप रही ।
“तुम तो अपनी खूबसूरती और जवानी को कंजूस की दौलत की तरह तिजोरी में बन्द रखकर रखना चाहती हो कि कहीं कोई इसे चुरा न ले, इसका कोई भाग खर्च न हो जाये ।”
आशा फिर भी चुप रही ।
“अच्छा, यह बताओ, तुम शादी करोगी ?” - सरला ने पूछा ।
“क्यों नहीं करूंगी ?” - आशा बोली ।
“किस से ?”
“जो भी मुझे पसन्द होगा और मुझ से शादी करने की इच्छा प्रकट करेगा ।”
“आज तक किसी ने तुमसे शादी करने की इच्छा प्रकट नहीं की ।”
“की है । लेकिन वे सबसे पहले मुझे चखकर देखना चाहते थे । तुम्हारे शब्दों में उस उलट फेर में विश्वास रखते थे । जिसकी वजह से हनीमून पहले हो जाता है और शादी बाद में होती है और कई बार सिर्फ हनीमून ही होता है, शादी होती ही नहीं ।”
“जब तुम्हें अपनी पसन्द का आदमी मिल जायेगा तो तुम उससे शादी कर लोगी ।”
“फौरन लाइक ए शाट ।”
“और अगर ऐसा कोई आदमी न मिला तो ?”
“क्यों नहीं मिलेगा ? इतनी बड़ी दुनिया है, इतने लोग रहते हैं इतनी जिन्दगी पड़ी है । कभी तो मुझे ऐसा आदमी मिलेगा, जिसे देखकर मुझे यूं लगेगा कि एक लम्बे अरसे से इसी का इन्तजार कर रही थी, इसी के लिये जी रही थी ।”
“कई बार इन्सान इन्तजार ही करता रह जाता है” - सरला धीरे से बोली - “और आने वाला नहीं आता । कई बार दुनिया बहुत छोटी लगने लगती है, इसमें रहने वाला हर आदमी अजनबी मालूम होने लगता है और जिन्दगी कितनी भी लम्बी क्यों न हो कुछ काम ऐसे होते हैं जो जिन्दगी के एक विशिष्ट भाग में ही हो पाते हैं ।”
“अभी कोई खास देर नहीं हुई है ।”
“इसी सिलसिले में मैं तुम्हें अम्बरसर का एक किस्सा सुनाती हूं । हाल बाजार में मेरी एक सहेली थी...”
“न बाबा न ।” - आशा एकदम उठ खड़ी हुई और जल्दी से बोली - “अमृतसर का किस्सा फिर सुनूंगी, मैं चली ।”
“अरे सुनो तो !” - सरला आग्रहपूर्ण स्वर में बोली ।
“और फिर सुनूंगी ।” - आशा मेज पर से अपना पर्स उठाती हुई बोली - “तुम्हारे साथ बातों मे लग जाती हूं तो मुझे वक्त का ख्याल ही नहीं रहता । पहले ही देर हो रही थी अब और देर हो गई । बाबा, तुम अपने वक्त पर ही उठा करो । जल्दी उठ कर तो तुम बखेड़ा कर देती हो ।”
“यह जो मैंने सवेर सवेरे महारानी जी को चाय बनाकर पिलाई है, यह बखेड़ा है ।”
“जितना वक्त तुमने चाय बनाकर बचाया है उससे चौगुना वक्त तुम ने खामखाह की बहस शुरू करके बरबाद कर दिया है । ...मैं पूछना भूल गई आज तुम जल्दी क्यों उठ गई हो ?”
“ग्यारह बजे अंधेरी पहुंचना है । शूटिंग है ।”
“अच्छा, मैं चली ।” - आशा बोली और फ्लैट से बाहर निकल गई ।
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