Hindi Antarvasna - आशा (सामाजिक उपन्यास)
10-12-2020, 01:05 PM,
#10
RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
जरा थोड़ी चेहरे की ही मरम्मत कर जाऊं - उसने मर ही मन सोचा । उसने अपना पर्स उठाया और केबिन से निकल कर टायलेट की ओर चल दी ।
दफ्तर खाली हो चुका था लेकिन अमर अभी भी अपनी मेज पर बैठा पैन्सिल हाथ में लिये आंकड़ों में सिर खपाई कर रहा था ।
आशा एक क्षण के लिये ठिठकी और फिर सैंडिल खटखटाती हुई उसकी बगल में से गुजरती हुई टायलेट की ओर बढ गई ।
अमर ने सिर नहीं उठाया । उसकी पेन्सिल मशीन की तरह कागज पर चल रही थी ।
आशा टायलेट में चली गई ।
पांच मिनट बाद वह बाहर निकली ।
अमर का सिर पूर्ववत कागजों पर झुका हुआ था ।
आशा ने जानबूझ कर बड़ी जोर से टायलेट का द्वार बन्द किया ।
अमर ने सिर नहीं उठाया ।
आशा अपने केबिन की ओर बढी ।
अमर की मेज के समीप पहुंचकर वह रुक गई !
“अगर इसी समय बम्बई पर बम गिर जाये तो भी शायद तुम्हें खबर न हो ।” - आशा बोली ।
अमर ने बड़ी मेहनत से कागजों पर से सिर उठाया । उसने एक भरपूर दृष्टि आशा के चमचमाते हुए चेहरे पर नजर डाली और फिर शांत स्वर से बोला - “आपने मुझसे कहा कुछ ?”
“जी नहीं ।” - आशा तनिक व्यंगय पूर्ण स्वर में बोली - “मैं इस दीवार को बता रही थी कि पांच बजे गये हैं, दफ्तर की छुट्टी हो गई है ।”
“जी, मुझे मालूम है लेकिन मुझे आज कोई खास जल्दी नहीं है ।”
“अच्छा ।”
“दरअसल आज में फिल्म देखने जा रहा हूं ।” - अमर यूं बोला जैसे फिल्म देखने जाना कोई किला जीतने जाना जैसा दुर्गम काम हो ।
“अच्छा कौन सी ?”
“अंग्रेजी की फिल्म देखने जा रहा हूं ।”
“अंग्रेजी तुम्हारी समझ में आ जाती है ?”
“कुछ आटा दलिया कर ही लेता हूं । आप जितनी तो नहीं आती ।”
“कौन सी फिल्म देखने जा रहे हो ?”
“अरे बस्क्यू ।”
“मैट्रो पर !” - आशा के मुंह से स्वयं ही निकल गया ।
“हां । फिल्म मैट्रो पर लगी है तो मैट्रो पर ही जाना पड़ेगा । ऐसा तो मुमकिन नहीं है कि फिल्म लगी तो मैट्रो पर हो लेकिन वह मुझे भिन्डी बाजार में भी दिखाई दे जाये ।”
आशा तनिक बौखला गई । यही फिल्म तो वह भी सिन्हा साहब के साथ देखने जा रही थी ।
“लेकिन आपको मैट्रो में मेरी मौजूदगी से कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।” - अमर भावहीन स्वर से बोला - “आपकी टिकटें बाक्स की हैं, मेरी मिडल स्टाल की हैं ।”
आशा के मुंह से सिसकारी निकल गई ।
“तुम्हें यह भी मालूम है ?” - वह आंखें फैलाकर बोली ।
“सिन्हा साहब के टिकटें मुझी से मंगवाई थीं ।”
“और मुझ पर जासूसी करने के लिये तुम अपने लिये भी उसी शो की टिकट खरीद लाये ।”
अमर कई क्षण खामोश रहा और फिर शान्त स्वर से बोला - “अपनी टिकट मैं सोमवार को लाया था जबकि सिन्हा साहब की टिकटें मैंने कल बुक कराई हैं । मिडल स्टाल से बाक्स में बैठे लोगों की सूरत तक दिखाई नहीं देती है । मैं जासूसी क्या करूंगा । आप कार में जायेंगी, मैं बस में जाऊंगा । मुझे तो यह भी मालूम नहीं होगा कि आप कब सिनेमा पर तशरीफ लाईं और कब चली गईं लेकिन फिर भी आपके बहम को शत प्रतिशत दूर करने के लिये मैं आज फिल्म देखने नहीं जाऊंगा ।”
और उसने अपने जेब से सिनेमा टिकट निकाला और उसके कई टुकड़े करके उसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया ।
आशा उसे रोकती ही रह गई ।
“मेरा यह मतलब नहीं था ।” - आशा धीरे से बोली ।
अमर चुप रहा ।
“बात जोश में मेरे मुंह से निकल गई थी । मुझे मालूम नहीं था कि तुम उसे इतनी गम्भीरता से लोगे ।”
अमर के चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कराहट आ गई ।
“इट्स परफैक्टली आल राइट, मैडम ।” - वह धीरे से बोला ।
आशा कुछ क्षण उसके दुबले पतले चेहरे को देखती रही । फिर उसके होठों पर एक हल्की सी मुस्कराहट फैल गई । उसने अपना बैग खोला और चाकलेट का वह पैकेट निकाला जिसका तीन चौथाई भाग वह दिन में खा चुकी थी ।
“लो, चाकलेट खाओ ।” - वह मित्रतापूर्ण स्वर में बोली ।
“थैंक्यू मैडम ।” - अमर चेहरे पर पहले जैसी फीकी मुस्कराहट लिये शिष्ट स्वर में बोला - “मैं चाकलेट नहीं खाता ।”
“क्या !” - आशा विस्मयपूर्ण स्वर से बोली - “तुम खुद चाकलेट नहीं खाते ?”
“जी हां ।”
“फिर तुम चाकलेट खरीदते क्यों हो ?”
“हां” - अमर भावहीन स्वर से बोला - “मैं खुद हैरान हूं । मैं चाकलेट खरीदता क्यों हूं ।”
आशा ने अनिश्चित भाव से चाकलेट का पैकेट दुबारा पर्स में डाल दिया और पर्स बन्द कर दिया ।
अमर ने अपने कागजों को मेज के दराज में डाला और दराज को ताला लगाकर उठ खड़ा हुआ ।
“गुड नाइट मैडम ।” - अमर पूर्ववत मुस्कराता हुआ बोला - “मैं आपके लिये एक मनोरंजन शाम की कामना करता हूं ।”
आशा चुप रही ।
अमर उसकी बगल से गुजरता हुआ आफिस के मुख्य द्वार से बाहर निकल गया ।
आशा उसे जाता देखती रही ।
वह वापिस अपने केबिन की ओर लौट पड़ी ।
उसी क्षण सिन्हा बाहर निकल आया ।
“सॉरी !” - वह बोला - “तुम्हें इन्तजार करना पड़ा ।”
“कोई बात नहीं ।” - आशा ने अपनी नुमायशी मुस्कराहट फिर अपने चेहरे पर लाते हुए कहा ।
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