RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
आशा भी मुस्कराई और बाहर निकल आई ।
अपनी सीट पर आते ही उसने उस कागज के हजार टुकड़े किये और उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया ।
फिर उसने पर्स में से चाकलेट का पैकेट निकाला और चाकलेट का एक टुकड़ा तोड़ कर मुंह में रख लिया ।
तीन बजे के करीब अशोक का फोन आया ।
आशा जी ।” - उसने पूछा - “फिर क्या फैसला किया आपने ?”
“हल्लो !” - उसे अशोक का व्यग्र स्वर सुनाई दिया ।
“मुझे सोचने दो ।”
“ओके ।”
“आल राइट ।” - अन्त में आशा निर्णयात्मक स्वर से बोली - “आज चलूंगी ।”
“तो फिर में शाम को आपके दफ्तर में आ जाऊं ।”
“नहीं ।”
“बस स्टैण्ड पर ?”
“नहीं । मैं साढे पांच बजे के बाद तुम्हें जेकब सर्कल पर मिलूंगी ।”
“वहां क्यों ?”
“वहां मुझे थोड़ा काम है । बाद में तुम जहां कहोगे चलूंगी ।”
“प्रामिस ?”
“प्रामिस ।
“ओ के ।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
आशा फिर काम में जुट गई ।
पांच बजे उसने टाइपराइटर बन्द कर दिया और पर्स उठाकर केबिन से बाहर निकल आई ।
सिन्हा अभी भी आफिस में मौजूद था । सिन्हा अपने आफिस में देर तक बैठा करता था लेकिन आशा को पांच बजे के बाद रुकने के लिये बहुत कम कहा करता था । सिन्हा द्वारा पांच के बाद पहली बार रोके जाने पर ही उसने इस विषय में अपनी बड़ी तीव्र अनिच्छा प्रकट की थी क्योंकि आफिस टाइम के बाद रोके जाने पर सिन्हा के स्वर्गवासी बाप की हरकतें याद आ जाती थीं । सिन्हा ने अपने बाप की तरह आशा को पांच बजे के बाद दफ्तर में रोक कर कोई जबरदस्ती करने की कोशिश तो नहीं की थी लेकिन वह आशा ने दफ्तर के काम के अतिरिक्त और क्या चाहता है, इस बात के उसने आशा को बड़े तगड़े संकेत दिये थे । इसीलिये आशा दफ्तर में सिन्हा के साथ अकेला रह जाना पसन्द नहीं करती थी ।
उसने बाहर आकर देखा, अमर भी अभी अपनी सीट पर बैठा था ।
“आज फिल्म देखने जा रहे हो ।” - आशा ने उसके समीप पहुंच कर पूछा । सुबह की चिट्ठी की बात याद करके उसके चेहरे पर लालिमा दौड़ गई थी ।
“आपने कैसे जाना ?” - अमर ने सिर उठाकर पूछा ।
“तुम तो पांच बजे के बाद दफ्तर में तभी रुकते हो जब फिल्म देखने जाना हो ।”
“आज वैसी बात नहीं है ।”
“तो फिर ?”
“सिन्हा साहब ने रुकने के लिये कहा है । कह रहे थे कोई जरूरी बात करनी है ।”
“आई सी ।” - आशा बोली ।
अमर ने अपना सिर दुबारा मेज पर फैले कागजों पर झुकाकर जैसे वार्तालाप के पटाक्षेप का संकेत दे दिया ।
आशा कुछ क्षण अनिश्चित मुद्रा बनाये उसके समीप खड़ी रही । पहले उसका जी चाहा कि वह सुबह की चिट्ठी के बारे में अमर से कुछ बात करे लेकिन फिर उसने अपने सिर को झटका दिया और मुख्य द्वार से होती हुई दफ्तर से बाहर निकल गई ।
अशोक जेकब सर्कल पर मौजूद था । वह पिछले दिन वाला ही अपना टैरेलीन का खूबसूरत सूट पहने हुआ था । आज उसके हाथ में ब्रीफकेस नहीं था । आशा को देखकर उसका चेहरा चमक उठा । वह लपक कर आशा के समीप जा पहुंचा ।
“आ गई आप ?” - वह उत्साहपूर्ण स्वर से बोला ।
“नहीं ।” - आशा मुस्कराती हुई बोली - “तुम्हारे सामने मेरा भूत खड़ा है ।”
“ओह ।” - अशोक बोला और बेतहाशा हंसने लगा - “आप भी सोचती होगी कैसा मूर्ख आदमी है । आबवियस बात पर भी सवाल करता है ।”
आशा मुस्कराई ।
“आइये, यहां से तो हिलें ।” - अशोक बोला ।
“कहां चलोगे ?”
“मेहमान तो आप हैं । आप बताइये कहां चले ? ताजमहल, सन्-एण्ड सन, सी ग्रीन, रिट्ज, नटराज, एयर लाइन्स, एम्बैसेडर...”
“बस, बस ।” - आशा उसे टोकती हुई बोली - “कमीशन तो तुम्हें अभी न जाने कब मिलेगा, तुम अभी से ही क्यों अपनी कम से कम एक महीने की कमाई को एक दिन में बरबाद करने का इन्तजाम कर रहे हो ?”
“यह बरबादी नहीं है जी ।”
“बरबादी नहीं तो और क्या है यह । तुम बाबा, ऐसी जगह चलो, जहां चार आने में चाय मिलती हो । अगर तुम्हें कोई जगह ऐसी नहीं मालूम है तो मैं बता देती हूं ।”
अशोक कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला - “अच्छा, ऐसा करते हैं, ‘टी-सैंटर’ में चलते हैं । वहां चाय पिंयेगे । और उसके बाद थोड़ी देर मेरिन ड्राइव और समुद्र के बीच के बान्ध पर बैठेंगे ।”
“यह ठीक है ।” - आशा बोली - “वहां से मुझे घर जाने में भी आसानी रहेगी ।”
“आप रहती कहां हैं ?”
“कोलाबा में । स्ट्रैंड सिनेमा के पास ।”
“ठीक है । आइये ।”
आशा उसके साथ हो ली ।
“टैक्सी ले लें ?” - अशोक बोला ।
“क्यों पैसे बरबाद करते हो ? जल्दी क्या है ? बस में चलते हैं ?”
“ओ के ।”
दोनो बस स्टैन्ड की ओर बढे ।
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