Hindi Antarvasna - आशा (सामाजिक उपन्यास)
10-12-2020, 01:30 PM,
#36
RE: Hindi Antarvasna - Romance आशा (सामाजिक उपन्यास)
आशा ने अशोक की ओर देखा । अशोक की आंखों में एक गहरे आश्वासन का भाव था जैसे वह कह रहा हो कि मैं अब समझता हूं कि यह लुच्ची औरत क्या कह रही है, क्यों कह रही है ।
फिर अशोक ने एक घृणापूर्ण दृष्टि अर्चना पर डाली और आशा कर हाथ थामता हुआ बोला - “आओ आशा ।”
“फिर कभी आना ।” - अर्चना ने पीछे से अशोक को आवाज दी - “अकेले ।”
अशोक ने घूमकर नहीं देखा ।
वह इमारत के मुख्य द्वार से बाहर निकल आया ।
अगले ही मिनट में शोफर ने पार्किंग में से गाड़ी निकाल कर उनकी बगल में ला खड़ी की ।
दोनों कार की पिछली सीट पर बैठ गये ।
“कोलाबा चलो ।” - अशोक ने आदेश दिया ।
“अच्छा साहब ।” - शोफर बोला और उसने गाड़ी कोलाबा की ओर ले जाने वाली सड़क पर डाल दी ।
आशा सिर झुकाये बैठी थी ।
“आशा !” - अशोक धीरे से बोला ।
आशा ने सिर नहीं उठाया ।
“नाराज हो ?”
“आज तुमने मेरी बहुत दुर्गति करवाई है ।” - आशा धीरे से बोली ।
“आशा तुम्हारा संकेत अर्चना माथुर के व्यवहार की ओर है तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि अगली मुलाकात पर वह खुद तुमसे माफी मांगेगी और भविष्य में वह तुम्हारे साथ यूं पेश आया करेगी । जैसे तुम संसार की सबसे महत्वपूर्ण महिला हो ।”
आशा के नेत्रों के सामने जेपी के दायें हाथ का ऐक्शन घूम गया और उसकी आंखों में एकाएक शीशा सा कौंध गया । लेकिन वह चुप रही । बात जिक्र करने के योग्य नहीं थी ।
“तुमने मुझसे झूठ क्यों बोला ?” - एकाएक आशा ने प्रश्न किया ।
“झूठ ! मैंने तुमसे कभी झूठ नहीं बोला ।”
“तुमने यह क्यों कहा कि तुम एक मामूली इन्श्योरेन्स एजेन्ट हो ?”
“आशा मैंने कभी यह भी नहीं कहा था कि मैं इंश्योरेन्स एजेन्ट ही हूं । तुम ही मुझे इंश्योरेन्स एजेन्ट समझ बैठी थीं । तुम उस शाम को याद करो जब ठीक चार बजे मैं सिन्हा के दफ्तर में उससे मिलने आया था । ठीक उसी समय शायद कोई इंश्योरेन्स एजेन्ट भी सिन्हा के पास आने वाला था । क्योंकि मैं ठीक चार बजे तुम्हारे सामने आ खड़ा हुआ था । इसलिये तुम कूद कर इस नतीजे पर पहुंच गई कि मैं ही इंश्योरेन्स एजेन्ट हूं । मैंने अपनी जुबान से कभी नहीं कहा कि मैं इंश्योरेन्स एजेन्ट हूं । उल्टा जब मैं सिन्हा के केबिन से बाहर निकला और तुमने मुझे से बीमे के बारे में सवाल पूछने आरम्भ कर दिये तो मैं बौखला गया था । हां मेरी इतनी गलती जरूर है कि एक मजाक में हुई शुरुआत को इतना आगे तक घसीट लाया । उस के लिये मैं तुम से माफी चाहता हूं ।”
आशा चुप रही ।
“आशा जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था तभी मैं तुम से बेहद प्रभावित हुआ था । तुम मुझे एक गरीब इंश्योरेन्स एजेन्ट समझती थीं इसलिये मुझ से सहानुभूति दिखाती थीं और शायद इसीलये तुम ने मेरे पहले निमंत्रण को भी नहीं ठुकराया था । अगर तभी मैं तुम्हें अपनी वास्तविकता बता देता तो शायद तुम मुझसे बात भी नहीं करती ।”
आशा चुपचाप सुनती रही ।
“जहां तक आज की घटना का सवाल है ।” - अशोक फिर बोला - “तो अपनी वास्तविकता मुझे कभी तो तुम पर प्रकट करनी ही थी । मैंने सोचा क्यों न आज ही यह काम कर दूं । मैं जेपी से तुम्हारे बारे में पहले ही जिक्र कर चुका था । वे तुम से मिलने के लिये बहुत उत्सुक थे । अर्चना माथुर की पार्टी में मैं तुम्हें जेपी के पास एकाएक ले जाकर तुम्हें चौंका देना चाहता था । तुम्हें हैरान कर देना चाहता था लेकिन हैरान तो पता नहीं तुम हुई या नहीं हुई लेकिन वहां जाकर बेहद परेशान जरूर हो गई तुम ।”
आशा कुछ क्षण चुप रही और फिर बोली - “मैं तो मूर्ख थी जो तुम्हें एक मामूली इंश्योरेन्स एजेन्ट समझ बैठी थी । तुम्हारी हर बात इस और संकेत करती थी कि तुम एक ऊंचे वर्ग से सम्बन्धित पैसे वाले आदमी हो । कहीं जाना हो तो तुम फौर टैक्सी ले लेने का सुझाव दे देते थे, चाय पीने की बात होती थी तो तुम बम्बई के सबसे बढिया होटलों का नाम लेते थे । तुम्हारा शानदार लिबास और तुम्हारी शक्ल सूरत तो तुम्हारी वास्तविकता की चुगली करती ही थी । नेपियन सी रोड की जिस कोठी में तुम अपने कथित ड्राइवर मित्र के साथ गैरेज के ऊपर रहते हो वह भी तुम्हारी ही होगी । तुम ने जब अपने डैडी के बारे में कहा था कि वे जिन्दगी की उस स्टेज पर पहुंच चुके हैं जहां इन्सान को कुछ करने की जरूरत नहीं होती तो मैं समझी थी कि तुम यह कहना चाहते हो कि वे रिटायर हो गये हैं और इतने बूढे हो गये हैं कि अब कुछ कर नहीं पा रहे हैं और पेन्शन पर गुजारा कर रहे हैं । जब कि वास्तव में तुम्हारा संकेत करोड़पति बात की दौलत की ओर था । करोड़ो रुपया कमा चुकने के बाद वाकई आदमी जिन्दगी की उस स्टेज पर पहुंच जाता है जहां उसे कुछ करने की जरूरत नहीं रहती । मुझे एक बार भी तुम्हारी वास्त‍विकता पर सन्देह हो गया होता तो सारी बात फौरन मेरी समझ में आ जाती ।”
“अच्छी दिल्लगी रही न ?” - अशोक मुस्कराता हुआ बोला ।
“और फिर कोई बेहद रईस आदमी ही बम्बई में इतना प्रभाव रख सकता है कि वह अप्सरा पर हाऊस फुल होने के बाद भी टिकट हासिल कर ले । अशोक तुम्हें तो मेरे साथ चार आना मार्का चाय पी कर लोकल गाड़ियों और बसों में सफर करके और मीलों पैदल चल कर बड़ी तकलीफ हुई होगी ।”
“सच पूछो तो वे मेरी जिन्दगी के सबसे सुखद क्षण थे । उतनी प्रसन्नता और आनन्द का अनुभव मैंने आज तक अपनी नामर्ल जिन्दगी में नहीं किया ।”
“कोलाबा में कहां चलू साहब ?” - उसी क्षण शोफर ने पूछा ।
“स्ट्रैंन्ड सिनेमा आ गया ?” - अशोक ने कार की खिड़की से बाहर झांकते हुये पूछा ।
“अभी आगे है साहब ।”
“स्ट्रैन्ड की बगल वाली गली में जाना है ।”
“मैं मेन रोड पर उतर जाऊंगी ।” - आशा जल्दी से बोली ।
“जब गाड़ी गली में जा सकती है तो मेन रोड पर उतरने की क्या जरूरत है ।” - अशोक बोला ।
आशा ने दुबारा विरोध नहीं किया ।
“और शम्भू ।” - अशोक ड्राइवर से बोला - “यह तुम्हारी होने वाली मालकिन है । आगे से हम से ज्यादा तुमने इनकी सुख-सुविधा का ख्याल रखना है ।”
“मैं तो सेवक हूं मालिक ।” - शोफर खीसें निपोरता हुआ बोला ।
अशोक उसे रास्ता बताता रहा । अन्त में कार उस इमारत के सामने आ कर रूक गई जिस में आशा का फ्लैट था ।
दोनों बाहर निकल आये ।
इमारत के द्वार के पास आकर आशा रुक गई ।
“अशोक ।” - वह बोली ।
“हां ।” - अशोक आशापूर्ण स्वर से बोला ।
“यह अंगूठी तुम वापिस ले लो ।” - और उसने अंगूठी को उंगली से उतारने का उपक्रम किया ।
“ऐसा मत करो आशा ।” - अशोक ने उसका हाथ थाम लिया और विनयपूर्ण स्वर से बोला - “मेरा दिल टूट जायेगा ।”
“लेकिन अशोक मैं नहीं चाहती कि इस अंगूठी की वजह से तुम किसी बहम में पड़ो । मैं तुम से शादी नहीं कर सकती । मैं पति के रूप में तुम्हारी कल्पना नहीं कर सकती ।”
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