RE: Desi Sex Kahani वारिस (थ्रिलर)
मुकेश कार से निकला और सीढियां चढकर उसके करीब पहुंचा ।
“स्टडी में ।” - रामदेव सख्ती से बोला ।
“चलो ।”
“पहले तुम चलो ।”
मुकेश आगे बढा । रामदेव अपने और उसके बीच में दो कदम का फासला रख कर उसके पीछे चलने लगा ।
दोनों स्टडी में पहुंचे ।
पारेख अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर बैठा हुआ था । उसके चेहरे पर वैसे हिंसक भाव नहीं थे जैसे दिखाई देने का मुकेश को अन्देशा था अलबत्ता नाखुश वो बराबर था । कुछ क्षण उसने अपलक मुकेश की तरफ देखा ।
“तलाशी लो ।” - फिर वो बोला ।
सहमति में सिर हिलाता रामदेव ऐन उसने पीछे पहुंचा ।
“दोनों हाथ मुंडी पर ।” - उसने हुक्म दिया - “घूमने का नहीं ।”
मुकेश ने खामोशी से हुक्म बजाया ।
रामदेव ने उसकी जेबों का सामान निकाल कर अपने बॉस के सामने मेज पर रख दिया तो मुकेश ने हाथ नीचे गिरा लिये ।
“बाहर जा के ठहरो ।” - परेख रामदेव से बोला ।
रामदेव चुपचाप स्टडी से बाहर निकल गया ।
पारेख कुर्सी पर से उठा और विशाल मेज के दूसरे पहलू में पहुंचा । उसने मेज पर से मुकेश का सारा निजी सामान उठा कर उसे वापिस सौंप दिया ।
“थैंक्यू ।” - मुकेश बोला ।
“क्या मतलब हुआ इस हरकत का ?” - पारेख बोला ।
“किस हरकत का ?”
“तुम्हें नहीं मालूम ?”
मुकेश खामोश रहा ।
“पढे लिखे आदमी हो - वकील बताते हो अपने आपको - एक पढे लिखे इज्जदार शख्स को शोभा देता है चोरी करना !”
“क्या चुराया मैंने ? एक कागज का टुकड़ा !”
“और एक लाख रुपया ।”
“वाट डू यू मीन ? रुपया तुमने खुद मुझे दिया था ।”
“कौन कहता है ?”
“मैं कहता हूं ।”
“तुम तो कहोगे ही । तुम्हारे अलावा कौन कहता है ?”
“तुम... तुम मुझे यूं नहीं फंसा सकते ?”
“नहीं फंसा सकता ! क्या कसर बाकी है तुम्हारे फंसने में ?”
“लेकिन....”
“तुम गणपतिपुले में नहीं हो, वहां से एक सौ चालीस किलोमीटर दूर उस इलाके में हो जहां दिनेश पारेख का सिक्का चलता है । यहां का पुलिस चीफ मुझे सुबह शाम दो टाइम सलाम ठोकने आता है । पढे लिखे आदमी हो, खुद फैसला करो कि अभी मैं उसे यहां बुलाऊंगा तो वो किसी बात पर ऐतबार लायेगा ? मैं कहूंगा तुम चोर हो तो वो कहेगा तुम चोर हो, मैं कहूंगा तुम्हारी रात जेल में कटनी चाहिये तो वो कहेगा तुम्हारी रात जेल में कटेगी । अब बोलो कोई शक ?”
“कोई शक नहीं । तुम ऐसा कर सकते हो । लेकिन करोगे नहीं ।”
“क्या नहीं करूंगा ?”
“तुम पुलिस को नहीं बुलाओगे ।”
“बड़े यकीन से कह रहे हो ?”
“हां । इतने यकीन से कह रहा हूं कि कोई छोटी मोटी शर्त लगाने को तैयार हूं ।”
“छोटी मोटी शर्त जीत कर मेरा क्या बनेगा ?”
“ये सवाल तुम्हारे लिये बेमानी है क्योंकि जीतना तो मैंने है । और मेरा छोटी मोटी शर्त जीत कर भी कुछ बनेगा इसलिये लगी पांच पांच सौ की ।”
“बस !”
“इस शर्त में अहम ये नहीं है कि कोई रकम कितनी हारता है, अहम ये है कि बात किसकी पिटती है ।”
“बात !”
“हां, बात । तुमने कहा तुम मुझे गिरफ्तार करा दोगे, मैंने कहा पुलिस को बुलाने की तुम्हारी मजाल नहीं हो सकती । ये बात ।”
वो कुछ क्षण उलझनपूर्ण भाव से उसे घूरता रहा और फिर बोला - “क्या कहना चाहते हो ?”
“मुझे चोर साबित करने के लिये तुम्हें बताना पड़ेगा कि मैंने क्या चुराया और फिर चोरी का माल यानी कि हजार के नोटों की ये गड्डी और ये सेल डीड पुलिस के पास जमा कराना पड़ेगा । माई डियर ब्रदर, जो माल इतनी मेहनत से कल मिस्टर देवसरे की वाल सेफ में से चुरा कर लाये हो, उसे आज तुम पुलिस को सौंपना अफोर्ड नहीं कर सकते ।”
पारेख मुंह बाये उसका मुंह देखने लगा ।
“काफी चालाक हो ।” - फिर वो बोला - “मुझे तुम्हारे में कुछ खटका तो तुम्हारे आते ही था लेकिन मैंने ये नहीं सोचा था कि तुम ऐसे पहुंचे हुए निकलोगे ।”
“थैंक्यू । अब शर्त की बाबत क्या कहते हो ?”
“शर्त । उसकी बाबत क्या कहना है ?”
“मैं जीता या हारा ?”
“मैंने कब लगायी शर्त ?”
“अच्छा ! नहीं लगाई ?”
“बैठो ।”
मुकेश एक विजिटर्स चेयर पर बैठ गया तो वो भी टेबल के पीछे जाकर वापिस अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर जा बैठा । उसने फिर एक पेपरवेट थाम लिया और उसे लट्टू की तरह नचाने लगा ।
मुकेश खामोशी से बैठा रहा ।
“सच में कुछ जानते हो” - आखिरकार वो बोला - “या सिर्फ अन्धेरे में तीर चला रहे हो ?”
“सोचो ।”
“क्या जानते हो ? किस बिना पर कहते हो कि ये दोनो देवसरे की सेफ से चोरी गयी चीजें हैं ?”
“चीजों को चोरी की बता रहे हो ! बतौर चोर अपना नाम नहीं ले रहे हो !”
“जवाब दो ।”
“बाहर जो तुम्हारी सलेटी रंग की फोर्ड आइकान खड़ी है, उसे कल रात मैंने कोकोनेट ग्रोव में देखा था ।”
“मेरी फोर्ड आइकान ?”
“हां ।”
“सलेटी रंग की ?”
“हां ।”
“नम्बर बोलना ।”
“तब नम्बर की तरफ ध्यान मैंने नहीं दिया था । यहां बाहर गैराज में खड़ी कार के नम्बर की तरफ भी मैंने ध्यान नहीं दिया था । मुझे मालूम होता कि मेरे से ये सवाल पूछा जायेगा तो मैं अभी नम्बर याद कर लेता और कह देता कि वो नम्बर मुझे कल रात से याद था । बहरहाल लगता है कि ये बात उजागर हो जाने के बाद तुम ये दावा करोगे कि वो कोई और कार थी जो इत्तफाक से तुम्हारी कार से मिलती जुलती थी ।”
“काफी समझदार हो ।”
“ये सेल डीड मैंने तैयार किया था और मेरे सामने मिस्टर देवसरे ने इसे अपनी वाल सेफ में रखा था । तभी मैंने वाल सेफ में ये हजार के नोटों की गड्डी भी मौजूद देखी थी । तब के बाद से मैं हमेशा मिस्टर देवसरे के साथ था सिवाय कोई एक घन्टे के उस वक्फे के जबकि मैं ब्लैक पर्ल क्लब के एक बूथ में बेहोश या सोया पड़ा रहा था । उसी वक्फे में मिस्टर देवसरे का खून हुआ था और वाल सेफ खोल कर ये दोनो चीजें उसमें से निकाली गयी थीं । अब जवाब दो कि अगर कल रात तुम्हारी कार रिजॉर्ट के कम्पाउन्ड में नहीं थी तो क्योंकर ये दोनों चीजें तुम्हारे कब्जे में पहुंचीं ?”
जवाब में उसने एक जोर की हूंकार भरी ।
“जवाब देते नहीं बन रहा न, बिग ब्रदर !” - मुकेश व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“बन रहा है ।”
“दैट्स गुड न्यूज । तो फिर क्या जवाब है तुम्हारा ?”
“अभी सामने आता है ।”
उसने मेज पर से सिग्रेट लाइटर उठा कर उसे ऑन किया और सेल डीड उठा कर उसकी लौ उसको छुआ दी । फिर वही हश्र उसने नोटों की गड्डी का किया ।
मुकेश हक्का बक्का सा उसका मुंह देखता रहा ।
दोनों चीजें राख हो गयीं तो उसने राख को मसल कर मेज पर पड़ी ऐश ट्रे में डाल दिया ।
“अब ?” - वो बोला ।
“लाख रुपया फूंक दिया !” - मुकेश हकबकाया सा बोला ।
“अब क्या बचा ?”
“अब क्या बचा !” - मुकेश ने मन्त्रमुग्ध भाव से दोहराया ।
“मैंने तुम्हें बहुत कम करके आंका ।”
“और मैंने तुम्हें ।”
“कैसी चालाकी से तुमने मुझे ये बात सरकाई थी कि महाडिक का कान्ट्रैक्ट खारिज हो सकता था और मैं फिर क्लब की खरीद में दिलचस्पी ले सकता था । वो सारी कथा ही तुमने इस मंशा से की थी कि मैं तुम्हें कोई एडवांस आफर करता जो कि मैंने किया । खूब चक्कर दिया मुझे । खूब उल्लू बनाया । शाबाश !”
माथुर खामोश रहा ।
“मैंने दोस्तों के साथ पिकनिक पर रवाना होना है, मैं पहले ही काफी लेट हो चुका हूं तुम्हारी एकाएक आमद की वजह से, इसलिये एक आखिरी सवाल मैं तुमसे पूछता हूं ? तुमने सारी कथा एडवांस हासिल करने के लिये की थी ?”
“मुझे सपना आना था कि तुम वही हजार के नोटों की गड्डी मुझे सौंप दोगे ?”
“नहीं । मेरे ही सिर में फोड़ा निकल आया था । या शायद मेरा भेजा विस्की में तैरने लगा था । तो महाडिक के कानट्रैक्ट की कथा करने का मकसद हजार के नोटों की गड्डी निकलवाना नहीं था ।”
“नहीं था । कैसे हो सकता था ? मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि वो गड्डी यहां तुम्हारे कब्जे में हो सकती थी ।”
“एक चीज दूसरी चीज सुझा देती है । तुमने अपना ड्राफ्ट किया सेल डीड हवा में उड़ता देखा तो सहज ही ये सोच लिया कि नोटों की वो गड्डी भी यहीं होगी ।”
“फिर भी वही गड्डी मुझे सौंपे जाने की उम्मीद मैं नहीं कर सकता था । और ये भी जरुरी नहीं था कि बयाने की रकम एक लाख ही होती ।”
“बातों को तोड़ मरोड़ बढ़िया लेते हो । आखिर वकील हो । चलो मान ली मैंने तुम्हारी बात । मैंने मान लिया कि तुम सेलडीड या नोटों की गड्डी की फिराक में यहां नहीं आये थे क्योंकि तुम्हें उन दोनों चीजों की यहां मौजूदगी का इलहाम हुआ नहीं हो सकता था । कार की वजह से भी नहीं आये हो सकते क्योंकि कार तुम खुद कहते हो कि तुमने यहां आकर देखी । तो फिर क्यों आये ? अपनी आमद की असल वजह बयान करो ।”
“जानकारी की फिराक में आया ।”
“कैसी जानकारी ?”
“जैसी भी हासिल हो जाती । मसलन महाडिक की बाबत जानकारी कि वो किस फिराक में था ! क्या कर चुका था और क्या अभी करना चाहता था ! महाडिक तुम्हें जानता था - मैंने तुम्हारा नाम सुना ही उसकी जुबानी था - तुम महाडिक को जानते थे, महाडिक ही तुम्हें मिस्टर देवसरे से मिलवाने लाया था, इस लिहाज से मुझे उम्मीद थी कि यहां महाडिक की बाबत मेरा कुछ न कुछ ज्ञानवर्धन जरुर होगा ।”
“हुआ ?”
“उसकी बाबत उतना न हुआ जितना तुम्हारी बाबत हुआ । तुम्हारी हौसलामन्दी की बाबत हुआ । मुझे अभी भी यकीन नहीं आ रहा कि तुमने चुटकियों में लाख रुपया फूंक के रख दिया ।”
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