RE: Mastaram Kahani कत्ल की पहेली
“आप मजाक कर रही हैं ।”
“तुम आना तो सही । फिर देखना क्या होता है ।”
“ओके ।”
एकाएक वसुन्धरा ने स्टेशन वैगन को इतना तीखा लैफ्ट टर्न दिया कि आयशा का बैलेंस बिगड़ गया और उसके मुंह से चीख निकल गयी । उसे ऐसा लगा जैसे गाड़ी सड़क के किनारे उगे पेड़ों से जा टकराने लगी हो लेकिन गाड़ी पेड़ों में घुस गयी तो उसे अहसास हुआ कि वहां पेडों के बीच से गुजरती एक पगडण्डी से जरा बड़ी राहदारी थी जिस पर कि स्टेशन वैगन हिचकोले लेती दौड़ रही थी ।
“इस रास्ते की” - आयशा तनिक उखड़े स्वर में बोली - “मुझे तो खबर नहीं थी ।”
“शार्टकट है । मैंने ढूंढा है । आगे झड़ियां थीं जिसकी वजह से दिखाई नहीं देता था । मैंने झाड़ियां कटवा दीं । हम सीधे सड़क पर जाते तो बॉस की एस्टेट अभी एक मील दूर थी । इस शार्टकट से तो देखिये हम पहुंच भी गये ।”
गाड़ी जैसे घने जंगल से निकलकर खुले में पहुंची ।
आयशा ने नोट किया कि वो जगह इतनी उंची थी कि वहां से आगे सतीश के किले जैसे मैंशन का और उससे आगे समुद्र का निर्विघ्न नजारा किया जा सकता था । अब गाड़ी के ढलुवां रास्ते पर एक फूलों से लदे खूबसूरत उद्यान के बीच से गुजर रही थी और अब सतीश का दौलतखाना करीब तर-करीब होता जा रहा था ।
कई एकड़ हरियाली में फैली उस एस्टेट में जो विशाल इमारत खड़ी थी, वो गोवा की आजादी के बाद सतीश के स्वर्गीय पिता ने बनवाई थी और भव्यता और ऐश्वर्य में अपनी मिसाल खुद थी । उसमें जो विशाल स्विमिंग पूल था, वो अनोखे तरीके से बना हुआ था । वो आधा खुले आसमान के नीचे था और आधा इमारत के रेलवे प्लेटफार्म जैसे विशाल लाउन्ज की छत के नीचे तक यूं फैला हुआ था कि वहां सोफे पर बैठा कोई शख्स इच्छा होने पर सोफे पर से ही स्विमिंग पूल में छलांग लगा सकता था ।
सतीश उसे बुलबुल का बंगला कहता था लेकिन राजप्रासाद नाम भी उसके लिए छोटा पड़ता था । जैसी कमाल की वो इमारत थी, वैसी ही कमाल की वहां फरनिशिंग और बाकी सुख-सुविधाएं थी । ऐसा था सतीश का वैभवशाली रहन-सहन जिसमें वो पिछले आठ सालों से अपनी बुलबुलों के साथ सालाना पुनर्मिलन समारोह करता आ रहा था ।
टेनिस कोर्ट और मिनी गोल्फ कोर्स के समीप से गुजरती स्टेशन वैगन मैंशन की पोर्टिको में पहुंची ।
“आए चलिये” - वसुन्धरा बोली - “मैं आपके सूटकेस लेकर आती हूं ।”
सहमति में सिर हिलाती हूई आयशा गाड़ी से निकली और लम्बे डग भरते हुए उसने चिर-परिचित इमारत के भीतर कदम रखा । आगे लाउन्ज था जहां से अट्टहासों की आवाजें आ रही थीं । कई जनाना आवाजों के बीच गुंजती सतीश की आवाज सबसे ऊंची थी । तत्काल प्रत्याशा में उसका चेहरा खिल उठा, उसका मन उत्साह से झूमने लगा ।
सतीश की पुनर्मिलन पार्टी का जादुई असर उस पर होने भी लगा था । उसने आगे बढकर लाउन्ज का दरवाजा खोला और भीतर कदम रखा । तत्काल अट्टहास के स्वर नयी हर्ष ध्वनि करने लगे ।
“आयशा । आयशा । आयशा आ गयी । आयशा आ गयी ।”
***
राज माथुर बुलबुल सतीश के आलीशान लाउन्ज में मौजूद था और ऐसी निगाहों से सतीश के साथ वहां मौजूद परीचेहरा हसीनाओं को देख रहा था जैसे जो वो देख रहा हो, उसे उस पर यकीन न आ रहा हो । एक नहीं, दो नहीं, पूरी छः परियां । सबका शाही कद काठ, सब हसीन, सब जवान, सबके बाल सुनहरापन लिये हुए भूरे, सब हंसती-खिलखिलातीं मौज मनातीं उसके इर्द-गिर्द । थोड़ी कमीबेशी के साथ सबकी एक ही उम्र ।
उसकी जिन्दगी का वो पहला मौका था जबकि वो जबरदस्ती गले पड़े अपने वकालत के पेशे के लिये अपनी तकदीर को कोस नहीं रहा था ।
छः । छः स्वर्ग की अप्सरायें वहां मौजूद थीं और अभी एक और - पायल पाटिल - वहां पहुंचने वाली थी ।
क्या पता उसका हुस्न इन छः से भी ज्यादा तौबाशिकन हो ?
उसने फ्रांस से आयातित गिलास में सर्व की गयी विस्की की एक चुस्की ली । वैसे ही गिलास बाकी सबके हाथों में, हाथों की पहुंच के भीतर मौजूद थे ।
आठ बजे वो वहां पहुंचा था तो सतीश उससे - एक नितान्त अजनबी से, एक मामूली हैसियत वाले युवा वकील से - बड़े प्रेम-भाव से यूं बगलगीर होकर मिला था जैसे वो सतीश का पुराना वाकिफ था और अक्सर वहां आता-जाता रहता था और उसने बारी-बारी एक-एक का हाथ पकड़कर सबका उससे परिचय कराया था ।
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