RE: Thriller Sex Kahani - सीक्रेट एजेंट
“लोग जुआ खेलना चाहते हैं उन्हें कौन रोक सकता है ! प्रास्टीच्यूशन की तरह जुए को भी कोई मुल्क, कोई सरकार, कोई निजाम नहीं रोक सकता । सदियों से ये लानत हैं, सदियों से इनको रोकने की ग्लोबल कोशिशें हैं । न इन लानतों पर अंकुश लगता है, न कोशिशों में कमी आती है । बड़ी हद हुआ है तो ये हुआ है कि कोशिशों की मुतवातर नाकामी से आजिज आकर कई मुल्कों ने प्रास्टीच्यूशन और गेम्बलिंग दोनों पर से रोक हटा दी है । लास वेगास को देखो, पूरा एक शहर ही गेम्बलिंग को समर्पित है । कोलम्बो और काठमांडू को देखो जहां कैसीनो न हों तो टूरिस्ट ट्रेड की कमर ही टूट जाये । मोंटे कार्लो में दुनिया भर से धनकुबेर बोरों में नोट लेकर पहुंचते हैं जुआ खेलने के लिये । स्वीडन में वेश्यायें डाक्टरों, वकीलों की तरह रजिस्टर्ड हैं और धंधे की कमाई पर बाकायदा इंकम टैक्स भरती हैं । बैंकाक सैक्स टूर्स के लिये सारे योरोप में मशहूर है, ऐसा लगता है जैसे वहां की हर नौजवान लड़की को प्रास्टीच्यूशन के अलावा कोई काम ही नहीं है । यहां इंडिया में ही प्रास्टीच्यूशन इतना प्राफीटेबल धंधा बन गया है कि रूस से नौजवान लड़कियां धंधा करने के लिये, पैसा कमाने के लिये टूरिस्ट वीसा पर यहां आती हैं, सूटकेस भर नोट कमा के लौट जाती हैं, फिर आ जाती हैं । कभी किसी ने सोचा था कि सैक्स भी इम्पोर्ट की आइटम बन जायेगी...”
“तुम तो लैक्चर देने लगी !”
“सारी ! मैं दरअसल कहना ये चाहती थी कि लोगबाग मटका या सट्टा यहां खेलते हैं तो एजेंट की कमीशन की कमाई यहां होती है, कहीं और जाके खेलेंगे तो इधर से तो वो कमाई गयी न !”
“इसलिये पुलिस का हवलदार पार्ट टाइम मटका कलैक्टर ! सट्टा एजेंट !”
“अरे भई, जब उसके अफसर को, थानाध्यक्ष को, उसकी करतूतों से ऐतराज नहीं तो तुम्हें भला क्यों होना चाहिये !”
“लेकिन शरेआम...”
“तो भी तुम्हें क्या !’
“तुम्हारा भी यही रवैया है ! मुझे क्या ?”
“मोटे तौर पर । लेकिन फिर है भी !”
“मतलब ?”
“जो रेवड़िया यहां बंट रही हैं, जिनका यहां खुल्ला दरबार हे, उसमें मेरे हिस्से का साइज चिडि़या की बीट जैसा है ।”
“अगर तुम्हारे हिस्से के साइज में इजाफा हो जाये तो तुम्हें किसी बात से कोई ऐतराज नहीं ?”
“फिर काहे को होगा, भई !”
“कमाल है ! तुम मेरी समझ से बाहर हो ।”
“शुक्र मनाओ कि पकड़ से, पहुंच से बाहर नहीं हूं । खुद तसदीक करना चाहो तो आज लेट नाइट में टाइम है मेरे पास । बोलो, क्या ....”
“गोखले !”
नीलेश ने हड़बड़ाकर सिर उठाया तो पाया बार पर से पुजारा उसे बुला रहा था ।
“बॉस बुलाता है । जाता हूं ।”
“हिज मास्टर्स काल !” - रोमिला व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली ।
“आफ कोर्स !”
वो लपकता हुआ बार के पीछे पहुंचा और पुजारा के निर्देश पर एप्रन पहन कर गिलास चमकाने में जुट गया ।
बार में तक कुछ और ग्राहकों के कदम पड़ चुके थे, मेल कस्टमर्स से अब कदरन ज्यादा मेजें आबाद दिखाई देने लगी थीं इसलिये जलवे लुटाती रोमिला उनमें विचरने लगी थी ।
फिर धीरे धीरे रौनक बढ़ने लगी ।
नौ बजने तक वहां की भीड़ और शोर शराबे में बेतहाशा इजाफा हो गया - इतना कि बार पर हर घड़ी दो बारमैन - एक पुजारा दूसरा नीलेश - जरूरी हो गए । हाल में अब रोमिला जैसी और भी सजीधजी बारबालायें दिखाई देने लगी थीं लेकिन बार पर बिजी होते हुए भी नीलेश की निगाह खामखाह सिर्फ रोमिला का अनुसरण कर रही थी जो कि हंसी के फूल बिखेरती, जलवे लुटाती टेबल-टु-टेबल विचर रही थी, चुहलबाजी में किसी मेहमान की गोद में खुद जा बैठती थी तो कोई उसे खींचकर खुद अपनी गोद में बिठा लेता था । लेकिन वो सब क्षण भर को होता था, मेहमान अभी अपना अगला कदम निर्धारित ही कर रहा होता था कि वो पारे की तरह फिसलती थी और मेहमान को अपने नुकसान का अहसास होने से पहले किसी और टेबल पर किसी और मेहमान के साथ चुहलबाजी कर रही होती थी ।
बहरहाल तब तक ऐसा कोई वाक्या पेश नहीं आया था, नशे के हवाले कोई महेमान ऐसा आपे से बाहर नहीं हुआ था, कि नीलेश को अपने बाउंसर के रोल में आना पड़ता ।
बारबालाओं में एक दूसरी लड़की यासमीन मिर्जा थी जो कि रोमिला जैसी ही हसीन थी और बढि़या बनी हुई थी लेकिन जो जलवे लुटाने में ज्यादा दिलेर थी । कोई मेहमान उसे गोद में खींचकर उसके गिरहबान में या स्कर्ट में हाथ डाल देता था तो एतराज करने की जगह, छिटक कर अलग होने की जगह उसका दिल रखने को यूं जाहिर करती थी जैसे मेहमान की मनमानी से वो मेहमान से ज्यादा आनंदित हुई थी । असल में वो सब ड्रामा वो एक मिशन के तहत करती थी । वो एक्सपर्ट जेबकतरी थी, जब मेहमान उसके गिरहबान में हाथ डालकर उसकी छातियां भींच रहा होता था तब वो बड़ी सफाई से उसका बटुवा पार कर रही होती थी ।
नीलेश बार पर बहुत बिजी था फिर भी यासमीन का पेटेंट कारनामा उस घड़ी उसकी निगाह में था ।
उसका तब का शिकार एक अधेड़ व्यक्ति था जो उसकी छातियां मसल रहा था, उसको किस करने की कोशिश कर रहा था और समझ रहा था कि उसी में कोई खूबी थी जो वो फुल पटाखा बारबाला उस पर ढ़ेर थी और उसे ‘सब कुछ’ नहीं तो ‘इतना कुछ’ करने दे रही थी ।
उसकी खुशफहमी उतनी ही देर टिकी जितनी कि यासमीन को उसका बटुवा सरकाने में लगी । फिर वो मछली की तरह फिसलकर उस व्यक्ति की गिरफ्त से निकली और उसने सीधे लेडीज टायलेट का रुख किया जहां - नीलेश जानता था कि - वो हाथ आये बटुवे के तमाम बड़े नोट निकाल लेती थी ।
कुछ क्षण बाद यासमीन फिर हाल में प्रकट हुई, सीधे बटुवे के मालिक के पास पहुंची और जा कर उसकी गोद में बैठ गयी । उसने एक हाथ उसकी गर्दन के पीछे डाला और जबरन उसका मुंह अपने उन्नत वक्ष की घाटियों में धंसा दिया।
अधेड़ व्यक्ति का चश्मा टूटते टूटते बचा, उसकी सांस घुटने को हो गयी लेकिन फिर भी वो बाग बाग था और पहले से ज्यादा जोशोखरोश के हवाले था ।
हाथापाई के उस सैकण्ड राउंड के दौरान - नीलेश को मालूम था - यासमीन बटुवा वापिस अपने शिकार की जेब में सरका देती थी और मेहमान की मनमानी का पटाक्षेप कर देती थी ।
ऐन ऐसा ही हुआ ।
एकाएक एसने बेचारे चश्मे वाले अधेड़ व्यक्ति को आने से धक्का देकर अलग किया और ये जा वो जा ।
वेटर ने जाकर उसको रिपीट के लिये पूछा ।
अपनी मायूसी से उबरने की कोशिश करते चश्मे वाले ने अनमने भाव से इनकार किया तो वेटर ने बिल पेश कर दिया ।
सहमति में सिर हिलाते उसने जेब से बटुवा बरामद किया, उसे खोला तो पाया कि उसमें तो वेटर को टिप देने लायक भी पैसे नहीं थे ।
फासले से भी नीलेश ने उसके चेहरे पर हाहाकारी भाव आते साफ देखे ।
फिर मेहमान शोर मचाने लगा, दुहाई देने लगा कि कोंसिका क्लब में उसको लूट लिया गया था ।
वो वक्त बाउंसर के दखलअंदाज होने को होता था ।
किसी को ऐसी दुहाई देकर क्लब को बदनाम करने की इजाजत भला कैसे दी जा सकती थी !
पुजारा ने नीलेश को इशारा किया ।
बार के पीछे से निकल कर लम्बे डग भरता नीलेश हालदुहाई मचाते मेहमान के करीब पहुंचा, खून जमा देने वाली घुड़की से उसने उसे चुप कराया और फिर उसको जबरन चलाता बाहर को ले चला । बाहर फुटपाथ पर पहुंच कर उसने अब भयभीत मेहमान को एक बाजू धकेल दिया ।
सहमा हुआ मेहमान नशे में घूमता अपना माथा दोनों हाथों में थाम कर वहीं फुटपाथ के किनारे सड़क पर टांगे फैला कर बैठ गया और राहगीरों के लिये तमाशा बन गया ।
ऐसी थी महिमा कोंसिका क्लब नाम के सैलानियों के उस बार की ।
नीलेश वापिस भीतर कदम रखने ही लगा था कि उसने देखा डण्डा हिलाता एक सिपाही चश्मे वाले के सिर पर आ खड़ा हुआ था ।
नीलेश उस सिपाही को पहचानता था और उसके नाम से - अनंतराम महाले - वाकिफ था । वो ठिठका और घूम कर उधर देखने लगा ।
महाले ने चश्मे वाले को जबरन उठा कर उसके पैंरो पर खड़ा किया ।
“अंदर से आया ।” - महाले नीलेश को घूरता बोला - “टुन्न है । मुंडी थामे फुटपाथ पर बैठेला है । बोले तो झाड़ दिया ! क्लीन कर दिया फुल !”
“मेरे को कैसे मालूम होगा, भई ।” - नीलेश भुनभुनाता सा बोला - “मैंने क्या इसकी जेबें टटोलीं !”
“जरुरत किधर थी ! साला मुंडी पकड़ के बाहर फेंका कि नहीं फेंका कचरा का माफिक ! बिल चुकता करने को कोई रोकड़ा पॉकेट में होता तो साला कौन इससे इधर ऐसे पेश आया होता ! इसके माथे पर लिख रयेला है कि लूट लिया, रोकड़ा पार कर दिया, बिल चुकता करने के लायक न छोड़ा । मैं शर्त लगाता है सबसे बडे़ वाले गांधी का कि इसका पॉकेट खाली ! रोकड़ा खल्लास !”
“पब्लिक प्लेस में, रश वाली पब्लिक प्लेस में खबरदार रहना मांगता है न !”
“साला बेवड़ा ! कैसे होयेंगा खबरदार ! खबरदार रहने पर जोर देगा तो साला नशा नहीं होगा ।”
“मेरे को नशे का इतना ज्ञान नहीं । अब क्या करोगे इसका ?”
“थाने लेकर जाऊंगा । जो करना होगा, ऊपर वाला कोई करेगा !’’
“क्या ?”
“हल्ला करेगा लुट गया, कम्पलेंट दर्ज कराना चाहेगा तो…तो देखेंगे ।”
“ऐसा नहीं करेगा तो ?”
“तो नार्मल होने पर खुद ही उठेगा और नक्की करेगा ।”
“ये कम्पलेंट नहीं लिखायेगा ।”
“बहुत कंफीडेंस से बोलता है, गोखले !”
“लिखायेगा तो कोई लिखेगा नहीं ।”
“बहुत कंफीडेंस से…”
“देखना ।”
वो घूमा और वापिस बार में दाखिल हो गया ।
बार के आधे रास्ते में उसे रोमिला मिली । दोनों एक दूसरे के सामने ठिठके । नीलेश ने नोट किया वो बद्हवास लग रही थी और उसके कपडे़ भी अस्तव्यस्त थे ।
“बेवडे़ को बढ़िया हैंडल किया ।” - वो बोली ।
नीलेश ने लापरवाही से कंधे उचकाये ।
“नाइंसाफी करते इधर में” - रोमिला ने एक उंगली से अपने बायें वक्ष को छुआ - “कुछ होता नहीं ?”
“बोले तो ?”
“यासमीन ने जो किया, तुमने अपनी आंखो से देखा, साफ देखा । फिर भी कचरा उस भीङू का ही हुआ । निकाल बाहार फेंका ।”
“अपनी ड्यूटी की ।”
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