RE: Thriller Sex Kahani - सीक्रेट एजेंट
“यार, सख्त, बोर, थका देने वाली ड्यूटी कर रहे हो, न चाहते हुए भी कोई छोटी मोटी कोताही हो ही जाती है । हो सकता है इधर आने की जगह वो पिछवाडे़ के रास्ते भीतर चली गयी हो और तुम्हें खबर ही न लगी हो !”
“नहीं हो सकता । क्योंकि इस बोर्डिंग हाउस का पिछवाडे़ से कोई रास्ता है ही नहीं !”
“ओह !”
“बाजू से-वो सामने की गली से-एक रास्ता है लेकिन वो बराबर मेरी निगाह में है ।”
“जरूर, जरूर । लेकिन निगाह किसी की भी चूक सकती है । खाली एक ही बार तो चूकना होगा न निगाह ने !”
“तुम तो मुझे फिक्र में डाल रहे हो !”
“मैं पहले से फिक्र में हूं । क्यों न फिक्र दूर कर लें ?”
“बोले तो ?”
“बाजू के रास्ते से ऊपर जा कर चुपचाप उसके कमरे में झांक आने में क्या हर्ज है ?”
वो सोचने लगा ।
“बाजू के दरवाजे का रास्ता भीतर से बंद तो होता नहीं होगा वर्ना कैसे कोई चुपचाप उधर से दाखिल हो सकता है ?”
“नहीं, बंद तो नहीं होता ! कोई ऐसा सिस्टम है कि बंद दरवाजा धक्का देने पर नहीं खुलता । दो तीन बार हिलाओ डुलाओ तो खुल जाता है ।”
“फिर क्या वांदा है ! जा के आते हैं ।”
महाबोले की फटकार के बाद से भाटे बहुत चौकस था फिर भी सोता पकड़ा गया था, इसलिये उसका अपने आप पर से भरोसा हिला हुआ था । असल में खुद उसे भी अंदेशा था कि लड़की किसी तरीके से उसकी निगाह में आये बिना अपने कमरे में पहुंच ही तो नहीं गयी हुई थी !
“चलो !” - एकाएक वो निर्णायक भाव से बोला ।
नीलेश ने मन ही मन चैन की सांस ली ।
बाजू के रास्ते से चुपचाप वो इमारत में दाखिल हुए और दूसरी मंजिल पर पहुंचे ।
नीलेश ने हैंडल घुमाकर हौले से दरवाजे को धक्का दिया ।
“खुला है ।” - वो फुसफुसाया ।
“देवा !” - भाटे हताश भाव से वैसे ही फुसफुसाया - “वो घर में है और मुझे खबर ही नहीं कि कब आयी । महाबोले साहब मेरी खाल खींच लेंगे ।”
“अभी से क्यों विलाप करने लगे ! पहले कनफर्म तो हो जाये कि भीतर है !”
“जब दरवाजा खुला है....”
“क्यों खुला है ?” कोई दरवाजा खुला छोड़ के सोता है !”
“ओह !”
“चुप करो । देखने दो ।”
नीलेश ने अंधकार में डूबे कमरे में कदम डाला । आंखे फाड़ फाड़ कर उसने सामने निगाह दौड़ाई । उसे न लगा कि वहां कोई था । हिम्मत करके उसने स्विच बोर्ड तलाश किया और वहां रोशनी की ।
कमरा खाली था । वो वहां नहीं थी ।
उसने आगे बढ़ कर बाथरूम में झांका । वो वहां भी नहीं थी ।
वार्डरोब में उसके होने का मतलब ही नहीं था फिर भी उसने उसे खोल कर भीतर निगाह दौड़ाई ।
इतना कुछ कर चुकने के बाद कमरे की अस्तव्यस्तता की ओर उसकी तवज्जो गयी । नेत्र सिकोडे़ उसने बैड पर खुले पडे़ सूटकेस और उसके भीतर बाहर बिखरे कपड़ों पर निगाह डाली ।
साफ जाहिर हो रहा था कि कूच की तैयारी में थी कि कोई विघ्न आ गया था ।
फिर उसकी तवज्जो उस ब्रा की तरफ भी गयी जिसमें किसी ने सिग्रेट मसल कर बुझाया था ।
नयी ब्रा ! कीमती ब्रा !
ऐसी बेहूदा हरकत किसने की ? क्यों की ? रोमिला की मौजूदगी में की या उसकी गैरहाजिरी में कोई वहां आया ?
किसी बात का जवाब हासिल करने का कोई जरिया उसके पास नहीं था ।
“अरे, भई, हिलो अब ।” - भाटे उतावले स्वर में बोला ।
“बस, जरा दो मिनट....” - नीलेश ने याचना की ।
“नहीं ।” - भाटे सख्ती से बोला - “मरवाओगे मेरे को ! हिल के दो ।”
“बड़ी देर से हुआ ये अंदेशा....”
“ओफ्फोह ! अब हिल भी चुको ।”
“जो हुक्म, जनाब ।”
उसने बिजली का स्विच आफ किया ।
अपने उस अभियान में उसके हाथ कुछ नहीं आया था, उसकी जानकारी में कोई इजाफा नहीं हुआ था । दोनों वहां से बाहर निकले ।
और वापिस सड़क पर पहुंचे ।
“हो गयी तसल्ली !” - भाटे बोला - “मिट गयी फिक्र !”
“हां, दारोगा जी । उम्मीद करता हूं कि तुम्हारी भी ।”
भाटे को अपने लिये दारोगा का सम्बोधन बहुत अच्छा लगा, बहुत कर्णप्रिय लगा ।
“अब तुम क्या करोगे ?” - वो बोला ।
“एक जगह और है मेरी निगाह में” - नीलेश संजीदगी से बोला - “जहां कि वो हो सकती है । जा कर पता करूंगा ।”
“वहां न हो तो थाने पहुंचना ।”
नीलेश सकपकाया ।
“काहे को ?” - वो बोला ।
“अरे, भई, गुमशुदा की तलाश का केस है । रिपोर्ट नहीं लिखवाओगे ?”
“अभी उसमें टाइम है । इतनी जल्दी कोई गुमशुदा नहीं मान लिया जाता । मैं कल तक इंतजार करूंगा ।”
“वो कल भी न मिले तो थाने पहुंचना ।”
“ठीक है ।”
“ताकीद है । बल्कि हुक्म है ।”
“किसका ?”
“जिसको अभी दारोगा बोला, उसका ।”
ढक्कन ! सच में ही खुद को दारोगा समझने लगा ।
“हुक्म सिर माथे, दारोगा जी । तामील होगी ।”
“निकल लो ।”
लम्बी ड्राइव के बाद नीलेश कोस्ट गार्ड्स की छावनी पहुंचा ।
उसे बैरियर पर रुकना पड़ा ।
एक सशस्त्र गार्ड वाच केबिन से निकल कर उसके पास पहुंचा ।
“डिप्टी कमाडेंट हेमंत अधिकारी साहब से मिलना है ।” - नीलेश बोला ।
“टाइम मालूम ?” - गार्ड रूखे स्वर में बोला ।
“मालूम । मेरे को इजाजत है ट्वेंटी फोर आवर्स में कभी भी काल करने की ।”
गार्ड ने संदिग्ध भाव से उसका मुआयना किया।
“रोकोगे तो मुश्किल होगी ।” - नीलेश बोला ।
“किसके लिये ?”
“तुम्हारे लिये ।”
गार्ड हड़बड़ाया । उसके चेहरे पर अनिश्चय के भाव आये ।
“स्पैन आउट आफ इट ।” - नीलेश डपट कर बोला - “इट्स ऐन इमरजेंसी !”
वो और हड़बड़ाया ।
“नाम बोलो ।” - फिर बोला ।
“नीलेश गोखले ।”
“इधर ही ठहरो । हैडलाइट्स आफ करो । इंजन बंद करो ।”
नीलेश ने दोनों बातों पर अमल किया, उसने कार की पार्किंग लाइट्स जलती रहने दी और अपनी ओर का दरवाजा थोड़ा खोल कर रखा ताकि कार के भीतर रोशनी रहती ।
गार्ड वापिस वाच केबिन में चला गया ।
लौटा तो उसके व्यवहार में पहले जैसी असहिष्णुता नहीं थी ।
“इधरीच ठहरने का ।” - वो बोला - “वेट करने का ।”
“ठीक है ।”
पांच मिनट खामोशी से कटे ।
फिर भीतर से एक आदमी लपकता हुआ बैरियर पर पहुंचा । उसने गार्ड को बैरियर उठाने का इशारा किया और खामोशी से नीलेश के साथ कार में सवार हो गया । उसके इशारे पर नीलेश ने कार आगे बढ़ाई । पेड़ों से ढ़ंकी सड़क पर आगे मार्गनिर्देशन की उसे जरूरत नहीं थी, वो वहां पहले भी आ चुका था ।
एक बैरेक के आगे ले जाकर उसने कार रोकी ।
दोनों कार से बाहर निकल कर बैरक के बरामदे में पहुंचे और अगल बगल चलते एक बंद दरवाजे पर पहुंचे । दरवाजे पर हेमंत अधिकारी के नाम का परिचय पट लगा हुआ था । उस व्यक्ति ने चाबी लगा कर दरवाजा खोला और भीतर की बत्तियां जलाई ।
“बैठो ।” - वो बोला - “साहब को सोते से जगाया गया है । तैयार हो कर आते हैं ।”
नीलेश ने सहमति में सिर हिलाया ।
“कुछ पियोगे ?”
“नहीं । थैक्यू ।”
वो चला गया ।
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