RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#27
“तू पैदा होते ही मर क्यों नहीं गया , तेरे जैसी नालायक औलाद रब्ब किसी को न दे ” ये मेरे पिता के शब्द थे
मैं- तो फिर इस नालायक के पास आने की क्या जरुरत पड़ गयी, महलो के राजा को यु फकीरों के दर पर कोई देखेगा तो हसेगा
पिताजी- हरामजादे, तेरी ये बाते तीर सी चुभती है मुझे, और तू जो ये काण्ड करके आया है न , इसकी कीमत क्या है तू नहीं जानता , इस दुःख को मुझे ढोना पड़ेगा, अरे नालायक तू मुझे अगर कोई ख़ुशी नहीं दे सकता तो कम से कम दुःख तो मत दे.
मैं- जब हमारी राहे जुदा है तो मेरे बारे में क्या सोचना
पिताजी- आखिर कौन बाप होगा जो अपने बेटे की लाश को आग देगा
मैं- वो बाप आप नहीं होंगे, और ये झूठी फ़िक्र किसलिए करते है, आपको मेरी जरुरत न कभी थी न होगी, कबीर कभी आपकी छाया न था और न होगा, आपको इस बेटे की कभी जरुरत नहीं थी , न होगी दरअसल आप यहाँ आये है अपने गुरुर की खातिर , आपको डर इस बात का है की अगर मैं सुमेर सिंह से हार गया तो आप का सर झुक जायेगा , और ठाकुर साहब का अहंकार सबसे ऊँचा है , हैं न पिताजी ,
पिताजी- बेकार है तुझ से बात करना , मुझे इतना बता आखिर तुझे दुश्मनों के गाँव जाने की क्या जरुरत पड़ गयी,
मैं- ताई ने बताया नहीं क्या ,
मेरी बात सुनकर पिताजी के चेहरे पर हवाइया उड़ने लगी,एक पल को वो रौनकदार चेहरा पीला पड़ गया . उन्हें उम्मीद नहीं रही होगी, की ऐसे मैं उनके मुह पर उन्हें आइना दिखा दूंगा.
मैं- अब आप मुझे बताइए , ताई को मेरे बिस्तर में भेजने का क्या प्रयोजन था खैर आप से क्या पूछना जरुर कोई लालच रहा होगा, बिना किसी फायदे के आप कहाँ कुछ करते है , पर अफ़सोस, कबीर के पास आपको देने के लिए कुछ नहीं .और हाँ ताई से कहना उसे मेरे पास आने की जरुरत नहीं क्योंकि जब उसे सच मालूम होगा तो मैं उस से नजरे नहीं मिला पाउँगा और आप भी . , मुझे मेरे हाल पर छोड़ देना, यदि सुमेर सिंह मेरी साँसों की डोर काट भी दे तो आप मत आना मेरे जिस्म के टुकड़े समेटने और
मेरी तीखी बातो ने पिताजी के कलेजे को छलनी कर दिया वो बस इतना बोले- तेरी माँ से मिल ले बार, बहुत याद करती है तुझे
मैं जरुर मिलूँगा पर गाँव की मालकिन से नहीं , जिस दिन वो अपने बेटे से मिलने आएगी जरुर मिलूँगा.
“मैं राणा से मिलकर इस मामले को सुलझाने की कोशिश करूँगा ” पिताजी ने कहा
मैं- क्यों, ठाकुर साहब को अपने खून की गर्मी पर भरोसा नहीं रहा क्या आजकल
मेरी इस बात को सुन कर वो कुछ नहीं बोले बस चले गए वहां से.
कहते है न की इन्सान को अपने अहंकार से बहुत प्रेम होता है कुछ ऐसा ही हाल मेरा था और इसी अभिमान में मैं उस शाम फिर से तारा माँ के मंदिर में पंहुचा , आरती खत्म हो गयी थी मेरे पहुचने से पहले ही म मैंने दर्शन किये और पानी पी रहा था की मैंने सुमेर सिंह को देखा , अपने दोस्तों के साथ वो तयारी कर रहा था , उसने भी मुझे देखा पर वो अपना काम करता रहा . तक़दीर ने हम दोनों को न जाने किस काम के लिए चुन लिया था , जिंदगी के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा था मैं जहाँ से कुछ दिख नहीं रहा था मुझे, ,मैं मूर्ति के आगे जाके बैठ गया, मैं बस ऐसा ही करता था, कुछ देर बाद घंटी की आवाज आयी मुझे लगा मेघा होगी मैंने पलट कर देखा, एक बुजुर्ग औरत थी , माता को परसाद चढ़ाया उसने और फिर थाली मेरी तरफ कर दी,
“प्रसाद लो बेटे ” उन्होंने कहा
मैंने अपने हाथ आगे किये प्रसाद लिया और फिर उनके चरण -स्पर्श किये
“आयुष्मान भव ” बोली और मेरे पास ही बैठ गयी.
उनके पास एक किताब थी बहुत देर तक वो उसे पढ़ती रही, उनके चेहरे पर एक अजीब सा तेज था , वो शांत थी जैसे उस सन्नाटे का एक हिस्सा हो . फिर वो चली गयी, मैं इंतज़ार करता रहा मेघा का, पर वो नहीं ये,
मेरी अब ये दिनचर्या हो गयी थी मैं घंटो सुमेर सिंह को पसीना बहाते देखता हर शाम वो बुजुर्ग औरत मंदिर आती, मुझे प्रसाद देती अपनी किताब पढ़ती और चली जाती , ठीक पांच दिन बीत गए थे और फिर उस शाम जब उसने अपनी किताब पढनी बंद की तो बोली- मैं सुमेर की दादी हूँ
बेहद विनम्रता से कहे गए इन शब्दों ने मुझ पर जैसे बज्रपात सा कर दिया था , मुझे समझ नहीं आया की मैं क्या कहूँ , दरअसल मेरे पास कुछ भी नहीं था कहने को
“फिर मेरी भी दादी हुई न आप ”मैं बस इतना बोल पाया
वो- हाँ
मैं- दरअसल मैं , मेरा मतलब मुझे नहीं मालूम मैं क्या कहू,ये सब जो हुआ है , जो होगा ...........
“तुम्हे कुछ कहने की जरुरत नहीं , मैं सब समझती हु, इन बूढी आँखों ने बहुत कुछ देखा है ये जगह बेटे, ये जगह जहाँ हम बैठे है कहने को तो ये मंदिर है पर इसका सच ये है की ये कब्रिस्तान है, इस जमीन को खून से सींचा गया है , आत्मा की नजर से देखो तो तुम्हे चारो तरफ बिखरी लाशो के सिवा कुछ नहीं दिखेगा. ये सब अहंकार, द्वेष , अपनी अपनी लालसा का ठिकाना है , ” उन्होंने कहा
मैं- पर आप का ये सब मुझे बताने का क्या प्रयोजन है
दादी- मुझे मेरा पोता सबसे प्यारा है , मैचाहती हूँ की यदि वो तुमसे हार जाए तो तुम उसके प्राण नहीं लोगे,
मैंने उस बुजुर्ग औरत की आँखों में वैसी ही बेबसी देखि जैसे मैंने मेरे पिता की आँखों में देखि थी और मुझे अहसास हुआ की वो कितने सच्चे थे उस लम्हे में
मैं- दादी, ये मेरे बस में तो नहीं , हो सकता है की वो जीत जाये,
दादी- हो सकता है पर मुझे तुम्हारी सलामती भी चाहिए,एक दिए को बुझाकर कौन अपने घर में रौशनी करना चाहिए, बेटे यदि तुम हाँ कहो तो मैं तुम्हे वचन देती हु की तुम्हारे एक कोई भी ख्वाहिश मैं पूरी करुँगी ,
मैं- इस जगह के किसी भी किये वादे का कोई मोल नहीं , कोई वजूद नहीं
दादी- मेरा वचन है .
मैं- प्रीत का वचन भी यही तोडा गया था , है न दादी .............................,
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