RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#32
“कुंवर सा , उठिए सुबह हो गयी है ”
इस आवाज से मेरी आँख खुली, मैंने देखा मैं एक दूकान के आगे पड़ी बेंच पर सोया पड़ा था .
“आहन एक मिनट रुको. और एक चाय ले आओ जरा ” मैंने उस से कहा और फिर आँखों को मूँद लिया . कुछ देर और सोना चाहता था मैं, चाय पीने के बाद मैं वापिस अपने खेतो की तरफ चल दिया. कल रात की खुमारी अभी तक आँखों में चढ़ी थी , बहते पानी में मैंने खुद के अक्स को देखा, एक रंग सा चढ़ा था मुझ पर , मेघा का रंग, उसके नूर का रंग.
सुबह की किरने कुछ ऐसे छू रही थी मुझे जैसे मेघा के लब चूम रहे हो मुझे, मेरी आँखे सपने सजाने लगी थी, मैंने कभी सोचा नहीं था की इन पगडण्डी पर चलते हुए मैं इश्क की मंजिल तक पहुँच जाऊंगा, इस कुछ किलोमीटर के जंगल ने मुझे बार बार अहसास करवाया था की मेरी दुनिया बस इस तक ही सिमटी हुई है , और बात थी सही थी, इसने मुझे सब कुछ दिया था मेघा, प्रज्ञा और कुछ अनसुलझे सवाल , मैंने अपनी पेंट कुछ ऊँची की और अपने पांवो को घुटनों तक ठन्डे पानी में लटका दिया. कसम से बहुत सुख मिला. मैंने आँखे फिर बंद कर ली. और ख्यालो में डूब गया.
खिडकिया बंद थी पर रोशनदानो से आती रौशनी बता रही थी की जिंदगी अभी भी थी, उस कमरे में , कुर्सी पर पीठ टिकाये वो सामने टंगी तस्वीर को घूरे जा रही थी , चेहरे पर मुस्कान थी आँखों में आंसू, एक गहरी सांस ली उसने और पास रखे कपड़े से उस तस्वीर पर जमी धुल को पोंछने लगी .
“जुदाई लम्बी हो गयी सरकार, अब नहीं होता मुझसे, अब नहीं होता ,तुम्हारे बिना कुछ भी तो नहीं है ,तोड़ क्यों नहीं देते इस डोर को ” जैसे वो उस तस्वीर से शिकायत कर रही थी , पर अफ़सोस तस्वीरे जवाब जो नहीं देती.
हताश होकर वो उस कमरे से बाहर आई, सूरज की रौशनी जो उसके चेहरे पर पड़ी, उसके तेज से जैसे सूरज भी लाल हो गया, अपने आस पास एक नजर डाली उसने, दिल में गहरी टीस उठी, गुलिस्तान को जैसे किसी की नजर लगी पड़ी थी , जो पहले कभी कुछ था वो अब कुछ नहीं था . उन टूटी संगमरमर की सीढियों पर बैठे वो सूरज को निहारती रही बस निहारती रही .
“कबीर ” बिस्तर पर करवट बदलते हुए वो हौले से फुसफुसाई,सूरज कब का सर पर चढ़ गया था पर उसका मूड नहीं था शायद उठने का, पास रखे तकिये को उसने हलके से चूमा और फिर सीने से लगा लिया.
काश उस समय कोई सहेली होती उसके पास तो रश्क कर लेती, उसके चेहरे पर आई मोहब्बत की रंगत को देख कर.
परदे हटाये, खिडकीयो को खोल दिया और शीशे के सामने निहारा उसने खुद को. चेहरे पर घिर आई लटो को कान के पीछे किया उसने और हंस पड़ी,
“बहुत जल्दी मैं तुम्हारे लिए सजुंगी कबीर, ” उसने शीशे को देखते हुआ कहा
“पर क्या होगा जब कबीर के सामने हकीकत आएगी, क्या ये जमाना हमारी मोहब्बत को मुकाम देगा. ” उसके दिमाग ने सवाल किया.
हस्ते चेहरे की ख़ुशी अचानक से गायब हो गयी. उसने एक गहरी सांस ली और खुद से बोली- देख लेंगे ज़माने को
“मेघा, ओ मेघा, उठ जा अब कब तक सोती रहेगी ” बाहर से आती आवाज ने उसे ख्यालो की दुनिया से धरातल पर ला दिया
“आई ” कहते हुए वो बाहर की तरफ भागी .
दूसरी तरफ
“हुकुम , सविता बता रही थी की कल कबीर घर आया था , पूछ रहा था आपकी तमाम प्रोपर्टी के बारे में ” मास्टर ने ठाकुर साहब को बताते हुए कहा
“उसे जानकारी भी होनी चाहिए , आखिर कल को आधा हिस्सा उसका ही होगा न ” ठाकुर साहब ने कहा
मास्टर- मुझे नहीं लगता हुकुम, उसे दौलत में रूचि है .
ठाकुर- आजकल उसके दिमाग में न जाने क्या चल रहा है , तुम्हे तो मालूम है ही उसने रतनगढ़ में क्या बखेड़ा खड़ा किया ,
मास्टर- ठाकुरों का खून है ,
ठाकुर- नहीं मास्टर, बात वो नहीं है , उसकी बेख्याली, उसकी बे परवाह हरकते, उसका यूँ भटकना कुछ तो है , वो कुछ तो कर रहा है , मैंने कुछ लोग लगाये थे उसकी मदद को पर एक एक करके उन सबका कत्ल हो गया.
मास्टर- तो क्या आपको लगता है की कबीर ने उनको
ठाकुर- नहीं वो ऐसा नहीं करेगा, लोगो की परवाह करता है वो . उसने रतनगढ़ वाले लड़के को भी नहीं मारा था
मास्टर- तो क्या मैं उसे सब बता दू, हर एक डिटेल
ठाकुरु- हाँ
ये कहते हुए ठाकुर साहब के चेहरे पर ऐसे भाव थे जिन्हें वो चाह कर भी छिपा नहीं सकते थे ,
भटकते भटकते मेघा जंगल की गहराई में उतर गयी थी, इस तरफ बहुत ज्यादा पेड़ थे घनी झाडिया थी, इतनी घनी की दोपहर बाद की धुप भी शर्मा रही थी वहां आने को. मेघा को तलाश थी किसी ऐसी जगह की जहाँ वो और कबीर मिल सके, इस दुनिया की नजरो में आये बिना. वो थोडा और आगे बढ़ी ही थी की उसके पैर किसी सख्त चीज़ से ठोकर खा गए, दर्द से बिलबिला गई वो. पैर को सँभालते हुए उसने देखा वो सीढ़ी थी , पत्थरों की बनाई सीढ़ी.
मेघा ने आस पास की झाड़ियो को हटाया तो उसने पाया की वो इंसानों की बनाई सीढिया थी , पर जगह की हालत बहुत ख़राब थी , हर तरफ प्रकृति ने अपना कब्ज़ा किया हुआ था
“ये कैसी जगह है , क्या है ये ” खुद से सवाल किया उसने
मेघा झाड़ियो को हटाने लगी पर उसे कुल्हाड़ी की जरुरत थी ताकि वो इन रस्ते में आये पेड़ो की टहनियों को काट सके, जैसे तैसे करके उसने थोडा सा रास्ता बनाया और कुछ सीढिया ऊपर चढ़ी, और जब उसे समझी आया की ये क्या है तो उसकी आँखों में चमक आ गयी.
अपनी मस्ती में चूर इधर उधर भटकने के बाद थकी रात में मैं बस सोने को ही था की दरवाजे पर हुई उस दस्तक ने मेरी नींद चुरा ली.
“तुम इस समय यहाँ ”
“हाँ, मैं यहाँ ”
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