RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#34
गुलाबी रंगत लिए प्रज्ञा के चुतड , जिनमे बहुत ज्यादा कशिश थी , उन पर हाथ फेरते हुए मैंने राणा जी नसीब से जलन महसूस की. , उसकी चूत की गुलाबी फांके, हलके हलके से बाल, सौन्दर्य और मादकता का एक ऐसा मिश्रण था उसका जिस्म, मैंने उसके चूतडो को थोड़ी ताकत से विपरीत दिशाओ में फैलाया तो उसकी गांड का छेद भी खिंच गया .
Uffffffffffff, ये नारी का जिस्म, हर मर्द की कमजोरी, मैं निचे झुका और अपने होंठो को उस जन्नत के दरवाजे पर लगा दिया. उन गुलाबी फांको को मैंने अपने दांतों तले दबा लिया
प्रज्ञा का पूरा जिस्म एक झटके में हिल गया.
“ohhhhhhhhhhhhhh kabirrrrrrrrrrrrrrrrrr ओह्ह्ह्हह ” जोर जोर से चिल्लाने लगी वो . मस्ताने लगी वो. चूत से गीले रस का दरिया बहने लगा. और मैं पूरी जीभ उसके मादक अंग पर फेरने लगा. प्रज्ञा ने अपने कुल्हे पूरी तरह ऊपर उठा लिए जिस से मेरी पहुँच और हो गयी. , वो भी जानती थी की उसका लक्ष्य मुझे चूत का रस पिलाना है .
कुछ देर बाद मैंने अपना चेहरा चूत के मुख से हटा लिया और अपनी तीन उंगलिया चूत में घुसा दी और तेजी तेज अन्दर बाहर करने लगा.
“कबीर कबीर, उफ्फ्फ्फफ्फ्फ़ ” प्रज्ञा बहुत बुरी तरह से कामुक हो गयी थी . कांप रही थी, मैंने उंगलियों की रफ़्तार और बढ़ा दी. प्रज्ञा ज्यादा देर तक सह नहीं पायी और फिर उसकी चूत से फव्वारा फूट पड़ा.
वो मूतने लगी थी, पेशाब की तेज बहती धार ने सब कुछ गीला कर दिया. पर मैंने अपना हाथ नहीं रोका वो मस्ती से चीखती रही, चिल्लाती रही पर जब तक मूत की छोटी से छोटी बूँद बह नहीं गयी मैं रुका नहीं
“बहुत बहुत कमीने हो तुम ” हाँफते हुए बोली वो
“तुमसे ही सीखा है ” मैंने कहा
प्रज्ञा उठी और मेरी गोद में आके बैठ गई, लंड को चूत पर लगाया और उसे अपनी चूत में घुसा लिया.
“अब दिखाती हूँ मेरा कमीनापन ” उसने कहा और मेरे को धक्का देते हुए मेरे ऊपर आ गयी.
न जाने क्यों उसे ऊपर चढ़कर चुदाई करना क्यों पसंद था. पर बात तो थी उस मस्तानी में, मैंने बस उसके चूतडो को थाम लिया और खुद को उसके हवाले कर दिया. उसके धक्को से मजा बहुत आ रहा था उसकी चूत के पानी में बहुत चिकनाई थी,
“चूची मुह में लो ” उसने अपनी चूची मेरे मुह में दे दी , मैंने निप्पल को चुसना शुरू किया,प्रज्ञा और कामुक होने लगी, कुछ देर बाद मैं उसके ऊपर आ गया और अब चुदाई जोरो से होने लगी .
“नहीं, गाल नहीं, निशान हो जायेगा ” उसने मना करते हुए कहा तो मैंने उसके होंठो को चूम लिया. प्रज्ञा ने टांगो को मेरी कमर के चारो तरफ कस लिया और झड़ने लगी,
“छोड़ भी दो अब ” बोली वो
मैं- होने ही वाला है बस थोड़ी देर और
मैंने उसे घोड़ी बनाया और पीछे से चोदने लगा. प्रज्ञा आहे भरने लगी और कुछ देर बाद मैंने उसकी चूत को वीर्य से सींच दिया.
कुछ देर वो मेरी बाँहों में लेटी रही फिर उठ कर अपने कपडे पहनने लगी,
मैं- कपडे किसलिए
वो घर भी तो जाना है
मैं- मैंने सोचा रुकोगी यही
वो- जाना होगा. मायके से सीधा यही आई, तुमसे मिलने का दिल था
मैं- रुक जाती तो अच्छा लगता.
वो- फिर कभी पक्का ,
मैं- ठीक है मैं तुम्हारे साथ चलता हु, जंगल में अकेली ठीक नहीं है जाना
वो- मैं चली जाउंगी कबीर, और फिर तुम्हे भी वापिस आना होगा, वो और ठीक नहीं है
मैं- मैंने कहा न, मैं तुम्हे अकेले नहीं जाने दूंगा.
प्रज्ञा- समझो न कबीर,
मैं- कहा न नहीं.
हमने अपना अपना हुलिया ठीक किया. और फिर बाहर आ गए उसकी गाड़ी क पास
“एक मिनट, तुम्हारे लिए कुछ लायी थी ” उसने दरवाजा खोला और कुछ बैग निकाले.
प्रज्ञा- कुछ खाने का सामान है और कुछ कपडे
मैं- जरुरत नहीं थी
प्रज्ञा- इतना तो हक़ दो मुझे,
अब मैं क्या कहता मैंने सामान अन्दर रखा और फिर हम रतनगढ़ की तरफ निकल पड़े, मैंने देखा टूटे चबूतरे पर एक दिया जल रहा है,
“मेघा , मेरे दिमाग में उसका नाम गूंजा ”
“क्या सोचने लगे कबीर, ” प्रज्ञा ने पूछा
मैं- कुछ नहीं बस यु ही
प्रज्ञा- अगली बार पक्का, एक रात हम साथ रहेंगे कबीर,
मैं- हाँ
उसने मेरे कांधी पर सर रख दिया मैंने गाड़ी की रफ़्तार और बढ़ा दी. थोड़ी ही देर बाद हम मंदिर के पास से गुजर चुके थे, रतनगढ़ शुरू हो गया था, एक जगह मैंने गाड़ी रोक दी..
प्रज्ञा- गाड़ी ले जाओ ,
मैं- कैसि बाते करती हो ,
प्रज्ञा- चिंता रहेगी तुम्हारी,
मैं- कल मिल लेना फिर
वो- समय मिलते ही
मैं गाड़ी से उतर गया उसने सीट संभाली तभी मेरे दिमाग में एक बात आई
मैं- प्रज्ञा, एक मदद चाहिए
वो- हाँ
मैं- क्या तुम मेरे लिए किसी को खोज सकती हो
वो- किसे
मैंने उसे दादी के बारे में बताया , तो वो भी हैरान हुई
वो- ऐसी तो कोई औरत नहीं हमारे गाँव में.
मैं- तुम्हारी सास
प्रज्ञा- नहीं , वो बेड पर रहती है , उन्हें हर समय एक सहायक चाहिए होता है , पर यदि तुम्हारे पास कोई तस्वीर हो तो मैं कोशिश कर सकती हु,
मैं- अगली मुलाकात पर मैं तुम्हे दे दूंगा.
“अपना ख्याल रखना ” उसने कहा और फिर गाडी आगे बढ़ा थी. मैं भी वापिस मुड गया . मंदिर के पास से गुजर ही रहा था की पायल की आवाज ने मेरा ध्यान खींच लिया.
“मेघा, क्या मेघा है मंदिर में ” मैंने खुद से कहा और मंदिर की तरफ बढ़ गया , पर वहां कोई नहीं था, कोई भी नहीं, क्या मेरा वहम था , या शायद मेरे ख्यालो में वो थी इसलिए. मैं माता की मूर्ति के पास गया. सर झुकाया और तभी मेरी नजर एक छोटी सी हांडी पर पड़ी. मैंने उसे देखा और हाथ में उठा लिया.
छोटी हांडी थी बस दो तीन गिलास पानी आ जाये, मैंने ढक्कन हटाया पानी से भरी थी, प्यास तो लगी ही थी मैंने उसे होंठो से लगा लिया. और एक पल को मेरी आँखे बंद हो गयी. मुझे कुछ याद आ गया. उफफ्फ्फ्फ़ इस पानी की मिठास, ये पानी, ये पानी, ये पानी वही था जो मैंने उस तम्बू में पिया था . एक ऐसा स्वाद जो अपने आप में निराला था, तमाम जहाँ के शरबत भी जिसकी होड़ न कर पाए. गटागट मैंने वो हांडी खाली कर दी.
मेरे सवालो में एक सवाल और जुड़ गया था की ये हांडी यहाँ कौन लाया. मैं सोच ही रहा था की तभी मुझे फिर से पायल की आवाज आई,
“मेघा, मेघा क्या ये तुम हो मेघा ” मैंने थोड़ी जोर से कहा
आवाज फिर आई, मैं बाहर आया, कोई नहीं था सिवाय अँधेरे के,
“मेघा क्या तुम हो, ” मैंने फिर आवाज लगाई कोई जवाब नहीं आया
कुछ पल बीते और फिर ऐसे लगा की जैसे कोई भाग रहा हो. मैं पायल की आवाज की दिशा में भागा और जल्दी ही मैं सड़क पर था , ,,,,,,,,,,,,,,,,, ..........की
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