RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
#41
बिस्तर पर करवटे बदलते हुए प्रज्ञा गहरी सोच में डूबी थी उसके दिमाग में बस एक लाइन गूँज रही थी .
“राणाजी और मुझ में से किसको चुनोगी तुम ”
“मैं किसे चुनुंगी , मैं अपनी बेबसी को चुनुंगी ” उसने अपने आप से कहा
एक उसका पति था जिसके साथ २०-२२ साल का नाता था एक उसका दोस्त था जिस से कुछ महीनो की जान पहचान में वो इतना जुड़ गयी थी , प्रज्ञा के मन में द्वंद शुरू हो गया था जिसका अंत न जाने कैसे होने वाला था .
उसने आँखे बंद कर सोने की कोशिश की पर फिर उसका ध्यान सुबह आये फोन की तरफ चल गया, वो और गहरी चिंता में डूब गई, ऐसा कैसे हो सकता है, सब गलती मेरी ही हैं मैंने ध्यान नहीं दिया, कहीं कुछ उल्टा सीधा हो गया तो मैं राणा जी को क्या जवाब दूंगी, सोच ने प्रज्ञा को बहुत परेशां कर दिया था .
रात जवान थी, हवा ठहरी थी पर फिर भी ये जंगल , कसम से मुझे हमेशा लगता था ये अपने आप में बहुत कुछ छुपाये हुए था , ये ऐसी आवाजे थी जैसे कोई कुछ बजा रहा हो, और सब से पहला सवाल भी यही था की इतनी रात को कोई क्यों संगीत यंत्र बजाएगा. और हमारा चुतियापा तो देखो, जहाँ किसी का कुछ लेना देना नहीं , हमें वहा नाक घुसानी जरुरी .
उस लहर का पीछा करने लगा मैं, जैसे वो खींच रही थी मुझे अपनी और, उस धुन में एक अजीब सा सकूं था जैसे सब कुछ भूल कर बस मैं उसे ही सुनता रहूँ, जैसे मेरे अकेलेपन का करार हो ऐसा लगा मुझे, जैसे कोई हिरन कुलांचे भर रहा हो ऐसे उछलते हुए, उस धुन में बहते हुए मैं बस दौड़े जा रहा था ,
मुझे होश आया जब अचानक से वो धुन बंद हो गयी, अब मैं हुआ हक्का बक्का, क्योंकि उस चाँद की रौशनी में मैंने जो देखा , मुझे पसीना सा आ गया मैंने देखा मैं उस जगह खड़ा हूँ जहाँ दिन में मेघा मुझे लायी थी .
मेरे साथ न जाने क्या हो रहा था , ये क्या पहेली थी दिन में मेघा मुझे यहाँ लाती है और रात को ये अनजानी धुन जो बस मुझे खींच लायी थी इस जगह पर, मैंने एक गहरी सांस ली और सीढिया चढ़ने लगा, आखिर ये कैसी डोर थी , जिसका मैं बस एक सिरा था, मेरे दिमाग में पहला ख्याल था ये सब उस दिन से शुरू हुआ था जब मैं पहली बार मेघा से मिला था ,
सबसे बड़ा सवाल ये की इस वक्त मेरा यहाँ होने का का प्रयोजन था, क्या ये कोई जाल था जिसमे मैं फंसे जा रहा था, ये सब सोचते हुए सीढिया चढ़कर मैं ऊपर गया मैंने देखा ऊपर फर्श के बीचो बीच कोई बैठा है , चाँद की रौशनी में उसके काले कपड़ो में लगे शीशे चमक बिखेर रहे थे,
“कौन है ये, ” मैंने खुद से पूछा
उसकी पीठ मेरी तरफ थी, मैं कुछ कदम उसकी तरफ बढ़ा की एक तेज स्वर ने मुझे हिला दिया, ऐसा संगीत जो आपको मंत्रमुग्ध कर दे, आपके कदमो को थाम दे कसम से आप यदि देखते उस पल को, आप जीते उस पल को तो महसूस करते की मैं क्या देख सुन रहा था .
चांदनी जैसे नाच उठी थी, उस ख़ामोशी ने उन बिखरे स्वरों से जैसे लय लगा थी,उस जगह पर जिन्दगी को महसूस किया मैंने, एक के बाद एक दिए जल उठे थे जैसे दिवाली की रात हम अपने घर, अपनी छत अपनी सीढियों, को सजा देते है रौशनी के दियो से ठीक वैसे ही वो जगह झिलमिला उठी थी , ऐसा विश्म्य्कारी द्रश्य देख कर कोई और होता तो ना जाने क्या कर बैठता पर मेरी जिन्दगी में तो जैसे रोज का ही ये ड्रामा हो गया था ,
“सुनो, कौन हो तुम ” मेरे मुह से आखिर निकल ही गया .
उसकी धुन थम गई, पीछे मुड कर देखा उसने
“अंधेरो में यूँ भटकना नहीं चाहिए, अक्सर ये अँधेरे लील जाते है इंसानों को , ये अँधेरे गहरे होते है उजालो से अपने अंदर बहुत कुछ छुपाये रहते है , ” एक सर्द आवाज मेरे कानो से टकराई
वो एक औरत थी, बेशक चांदनी थी पर मैं उसके चेहरे को ठीक से देख नहीं पा रहा था उसके घूँघट की वजह से.
“बेशक, आपने सही कहा पर न जाने क्यों इन अंधेरो से मेरा पुराना वास्ता है , ऐसा लगता है मुझे ” मैंने कहा
वो- वाह क्या बात है , बहुत खूब कही, तो फिर ये भी जानते होंगे इन अंधेरो ने क्या छुपाया है अपने अन्दर.
मैं- फिलहाल तो मैं जानना चाहता हु, आप कौन हो, यहाँ क्या कर रहे हो
वो - उफ़ ये सवाल, जानते हो ये जो सवाल होते हैं न अपने आप में जवाब में होते है बस लोग समझ नहीं पाते
बेपरवाही से उसने फिर से अपने रुबाब को उठा लिया और जैसे उसे कुछ फर्क नहीं पड़ा था मेरी मोजुदगी से, अपनी आँखे मूंदे वो बस अपनी धुन बजाती रही . मैं वाही बैठ गया बस उसे देखता रहा , जैसे बरसो की जान पहचान हो.
कुछ लम्हों के लिए मेरी आंख भी बंद सी हो गयी, और जब आँख खुली तो मैंने कोसा खुद को , गुस्सा बहुत आया मुझे, मैंने एक मौका खो दिया था , दिन निकल आया था सूरज चमक रहा था , वहां कोई नहीं था कुछ नहीं था, सिवाय उस रुबाब के जो गवाह था की ये सब कोई ख्वाब नहीं था, हकीकत थी . ऐसी हकीकत जो मुझे परेशां कर रही थी .
बस एक रुबाब उसके सिवा कुछ नहीं , न उन जलते दियो के निशान न कोई और कुछ नहीं , अब करे तो क्या करे, कहे तो किस से कहे , बताये तो किसे बताये , सवाल बहुत जवाब एक भी नहीं , वो कौन थी , उसका ये रुबाब बजाना क्या संकेत था, जी चाहता था सामने उस दिवार पर सर पटक लू अपना, कोई तो आये मेरी उलझन सुलझाए .
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