RE: Hindi Antarvasna - प्रीत की ख्वाहिश
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हजारो अफ़साने थे हजारो बहाने थे , आँखों से बहती गंगा थी तो दिल में उमड़ता सागर भी था, जिन्दगी ने जिन्दगी को ऐसे मोड़ पर ला पटका था की अब क्या कहना था और क्या करना था , रेत मुट्ठी से फिसलती जा रही थी और थामने को अब था भी क्या , इतिहास ने वर्तमान को इस तरह से तहस-नहस कर दिया था की दामन में बाकी क्या रहना था कोई नहीं जानता था .
मेरे हाथ में वो तस्वीर थी जिसे मैंने ठीक होने के लिए शहर में दिया था और अब जब मैं इसे देख रहा था , हकीकत ने मेरे सर पर ऐसा बम फोड़ दिया था की मैं सोच रहा था की काश उस दिन मैं रतनगढ़ आया ही नहीं होता तो ठीक रहता. जैसी भी थी जिन्दगी मैं जी तो रहा था न, बेशक तनहा था मैं अकेला था पर कम से कम ये उलझन तो नहीं थी मेरे पास,
उलझन जो अब और उलझ गयी थी , इस तस्वीर ने मुझे ऐसे दोराहे पर ला पटका था मैं कहूँ तो भी किसे और किसके आगे अपना दुखड़ा रोऊँ, और पिछले जनम की किसी अधूरी कहानी का हिस्सा अगर मैं था भी तो इस जन्म में और उलझ गयी थी कहानी , नसीब देखो मैं तो किसी को कुछ बताने लायक भी नहीं रहा था ,
उस तस्वीर में जो कुंदन के घर की बहु थी वो कोई और नहीं बल्कि............ उसके गले में पड़े लॉकेट को मैं समझ क्यों नहीं पाया, ये लॉकेट जो मैंने खुद पहना था और जो अब ,,,,,,,,,,, नहीं ये नहीं हो सकता , नहीं हो सकता ये मैं चीख पड़ा. ये केवल रिश्तो की डोर नहीं थी ये फांसी का फंदा बन कर मेरे गले से लिपट गया था अब.
मैंने वो तस्वीर गाडी में डाली और वापिस देवगढ़ की तरफ चल पड़ा. आँखों में आंसू थे दिल में दर्द था , मुझे किसी से अब मिलना था ,वापसी में मैं पीर साहेब की मजार पर रुका, पर चैन नहीं मिला . और मिले भी तो कैसे दिल के दो हिस्से जो हो गए थे , अब मैं कुछ कुछ समझ पा रहा था की कुंदन के लिए कितना मुश्किल रहा होगा ये सब पर अब कुंदन की जगह कबीर था और कबीर के लिए भी कहाँ आसान था ये चुनाव करना, सुना था मोहब्बत बहुत इम्तिहान लेती है पर ऐसी परीक्षा तो कभी नहीं ली गयी होगी न किसी हीर-रांझे की न किसी लैला- मजनू की जैसी परीक्षा मेरी थी , बंद मुट्टी खोलनी ही होगी मुझे और खोलते ही दिल का एक हिस्सा बिखर जायेगा मेरा.
देवगढ़ आकर मैंने उस तस्वीर को वापिस से दिवार पर लगाया और उस चेहरे को देखने लगा, ये वो चेहरा था जिसने सब बदल दिया था सब कुछ , सवालो के जवाब कही थे तो वो थे रतनगढ़ में , मैंने वही जाने का सोचा . मैंने कच्चा रास्ता लिया ताकि जल्दी पहुँच सकू पर नसीब में अभी और कुछ लिखा था .
पीपल के उस पेड़ के निचे वो बैठी थी , भरी दोपहर में प्रज्ञा यहाँ क्या कर रही थी , मैं गाड़ी से उतरा और उसके पास गया आँखे मूंदे वो जैसे कुछ सोच रही थी , मेरे आने का भान भी नहीं हुआ उसे,
“प्रज्ञा, ” मैंने पुकारा उसे
उसने आँखे खोली, नजरे नजरो से मिली “सरकार ” बस रुंधे गले से इतना ही बोल पाया मैं और वो दौड़ कर मेरे सीने से लग गयी. चूमने लगी मुझे, गालो पर होंठो पर गर्दन पर , ऐसी दीवानगी, ऐसा पागलपन उसने अपने आगोश में बाँध लिया मुझे, मैंने खुद को उसके हवाले कर दिया. इस दुनिया में बस एक वो ही थी जिसे सरकार कह कर बुलाता था मैं .
मुझे खींच कर वो उस बूढ़े पीपल के पास ले आई
“देखो इस पेड़ को, क्या याद आता है ” पूछा उसने
मैं- तुम बताओ
वो- हमारी पहली मुलाकात, वो रात जब मैं तुमसे मिली थी , वो मुलाकात जैसे बस कल की ही बात हो .
मैं- हाँ , कल की ही बात हो जैसे , बहुत देर लगाई तुमने
“जुदाई ख़त्म हुई , अब लौट आई मैं ” प्रज्ञा ने कहा
मैं- आओ मेरे साथ
वो- कहाँ
मैं- घर
वो- किसका घर
मैं- तुम्हारा, मेरा, हमारा घर
वो-हाँ , पर पहले मैं कही और जाना चाहती हूँ
मैं- कहा
वो- बताती हूँ
कुछ देर बाद गाड़ी रफ़्तार से दौड़ रही थी , मुझे लगा था की वो शायद देवगढ़ जाएगी पर नहीं , वो तो रतनगढ़ भी नहीं जा रही थी , वो तो अर्जुन्गढ़ जा रही थी .
“अर्जुन्गढ़ ” पूछा मैंने
वो- हाँ भी और नहीं भी.
मैं- तो फिर कहा
वो- तुम्हे नहीं मालूम
मैं- मुझे कैसे मालूम होगा .
वो- हो जायेगा जल्दी ही सब मालूम हो जायेगा. मुझे याद आ गया तुम्हे भी आ जायेगा.
गाड़ी अर्जुन्गढ़ भी पार कर गयी थी , दूर खेतो से होते हुए हम नहर पार गए थे और फिर एक जगह प्रज्ञा ने गाडी रोकी, और एक तरफ देखने लगी .
मैं- क्या
उसने मेरा हाथ पकड़ा और ले चली मुझे खींचते हुए. एक सुनसान जगह पर जाकर बोली वो- घर ,
मैं- यहाँ तो कुछ भी नहीं .
प्रज्ञा ने अपनी हथेली को थोडा सा काटा और कुछ पढ़ते हुए खून के छींटे हवा में फेंके और कुछ ही देर में एक खंडहर दिखने लगा. काली स्याह हवेली, जिस पर भी वक़त की मार पड़ी थी हमारी ही तरह.
“तुम्हारी हवेली ” मैंने कहा
ख़ुशी से जैसे चहकते हुए उसने हाँ में सर हिलाया.
मैंने उसका हाथ पकड़ा और चल पड़ा . लोहे का वो जर्र्ज्र दरवाजा हलके से धक्के से खुल गया . सीढिया चढ़ते हुए हम अन्दर आये, धुल भरी दीवारों पर चारो तरफ तस्वीरे लगी थी , उसने एक तस्वीर को अपनी चुन्नी से साफ़ किया, ये तस्वीर हम दोनों की थी “याद है , ये तस्वीर तब खींची थी जब हम दोनों उस दोपहर नदी किनारे थे, ” उसने कहा
मैं मुस्कुरा दिया.
“सबकुछ वैसा ही है ”
प्रज्ञा ने मेरा हाथ थामा और मुझे पहली मंजिल पर बने उस कमरे में ले आई,
“मेरा कमरा ” बड़ी शोखी से बोली
“इसी कमरे में हम एक हुए थे , यही मैंने जाना था की तुम्हारा एक हिस्सा होना क्या था मेरे लिए. ”
प्रज्ञा मेरे पास आई और अपने होंठ मेरे होंठो पर रख दिए.
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