RE: Desi Chudai Kahani मकसद
मैं कनाट प्लेस मेहरासंस के शोरूम में पहुंचा ।
मैंने उस सेल्समैन के बारे में दरयाफ्त किया जिसे सुबह मदान हीरे के टोप्स सोंपकर गया था । मैंने उसे मकतूल के ड्राइव-वे पर से मिला हीरा दिखाया । उसने टोप्स निकाले और उसे खाली पड़ी जगह में जोड़कर इस बात की तसदीक की कि वो वहीं से उखड़ा हुआ हीरा था ।
“अब नया हीरा तराशने की जरूरत नहीं ।” सेल्समैन बोला, “अब तो यही लग जाएगा ।”
“नया ही तराशिये ।” मैं वो हीरा बड़ी सफाई से उसकी उंगलियों से निकालता हुआ बोला ।
अपने पीछे तनिक हकबकाए सेल्समैन को छोड़कर मैं वहां से रुखसत हो गया ।
मैं मंदिर मार्ग पहुंचा ।
सुजाता मेहरा वहां गर्ल्स होस्टल के दूसरी मंजिल पर स्थित अपने कमरे में मौजूद थी ।
वो वक्त वर्किंग गर्ल्स के होस्टल में मौजूद होने नहीं होता था इसलिए होस्टल में काफी हद तक सन्नाटा छाया हुआ था ।
सुजाता मेहरा 'तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फसाना' मार्का लड़की निकली । उम्र में वो कोई तेईस चौबीस साल की थी, खूबसूरत थी, नौजवान थी लेकिन सूरत से ही मौहल्ले भर में मुंह मारती फिरने वाली बिल्ली की तरह चरकटी और नदीदी लग रही थी ।
पता नहीं चालू लड़कियों को भगवान इतना खूबसूरत क्यों बनाता है, या शायद खूबसूरत लड़कियां ही चालू होती हैं ।
मैंने उसे अपना परिचय दिया और परिचय की तसदीक के तौर पर अपना एक विजिटिंग कार्ड भी थमाया ।
उसने मुझे कमरे में एक कुर्सी पर बिठाया और स्वयं मेरे सामने पलंग पर बैठ गई । वह बिना दुपट्टे के शलवार कमीज पहने थी इसलिए ढका होने के बावजूद उसके उन्नत वक्ष का बहुत दिलकश नजारा मुझे हो रहा था ।
एक गिला मुझे रहा ।
दरवाजा उसने खुला छोड़ दिया था ।
युअर्स ट्रूली ये नहीं कहता कि दरवाजा बंद होता तो वो आकर मेरी गोद में ही बैठ जाती लेकिन तब ये सुखद सम्भावना कम से कम विचारणीय तो रहती ।
“कमरे में मेल गैस्ट को रिसीव करने के लिए” वो जैसे मेरे मन की बात भांपकर बोली, “दरवाजा खुला रखना जरूरी है । रूल है ये यहां का ।”
“ओह !” मैं बोला, “सिगरेट के बारे में क्या रूल है ?”
“चलेगा । एक मुझे भी दो । सुलगा के ।”
मैंने अपना एक डनहिल का पैकेट निकालकर दो सिगरेट सुलगाए और एक उसे थमा दिया । उसने बड़े तजुर्बेकार ढंग से सिगरेट के दो लम्बे कश लगाए और उसकी राख करीब मेज पर पड़े एक चाय के कप में झाड़ी । फिर उसने वही कप मेरी ओर सरका दिया ।
“मै सुन रही हूं ।” वो बड़ी बेबाकी से बोली ।
“क्या ?” मैं तनिक हकबकाया ।
“वही जो तुम कहने जा रहे हो ।”
“ओह! गुड । बात कैसी पसन्द करती हो ? आउटर रिंग रोड से खूब लंबा घेरा काट कर मकसद तक पहुचने वाली या शार्टकट वाली ।”
“शार्टकट वाली ।”
“गुड । आज मैटकाफ रोड नहीं गई ?”
उसने हैरानी से मेरी तरफ देखा ।
“शशिकात के यहां ।” मैं आगे बढा, “शार्टकट वाली बात तो ऐसी ही होती है ।”
“नहीं गई तो तुम्हें क्या ?”
“मुझे तो कुछ नहीं लेकिन किसी और को है ?”
“किस को ?”
“पुलिस को ।”
“क्या ?”
“बात को बातरतीब आगे बढ़ने दोगी तो आसानी से सब कुछ समझ पाओगी । यकीन जानो जब मैं यहां से रुखसत होऊंगा तो समझने के लिए कुछ बाकी छोड़कर नहीं जाऊंगा ।”
“हूं ।” उसने हथेली में छुपाए रखकर ही सिगरेट का एक कश लगाया और धुआं पता नहीं किधर हजम कर लिया ।
“अब बोलो । मेटकाफ रोड शशिकान्त की कोठी पर क्यों नहीं गई जहां कि तुम हर रोज ग्यारह बजे जाती हो ?”
“नहीं गई । आगे भी कभी नहीं जाऊंगी ।”
“क्यों ?”
“वो कहानी अब खत्म ।”
“कैसे खत्म ?”
“कल शाम बहुत कमीनगी से पेश आया वो मेरे से । खामखाह मेरे से उल्टा-सीधा बोलने लगा । अकेले में कुछ कहता तो मैं सुन लेती लेकिन उसने तो अपने एक मेहमान के सामने मुझे बेइज्जत किया ।”
“मेहमान ?”
“कोई पुनीत खेतान करके था स्टाक ब्रोकर था वो उसका ।”
“स्टाक ब्रोकर या वकील ?”
“वकील भी होगा ।”
“यानी कि टू इन वन । कानूनी सलाहकार भी ओर इनवेस्टमेंट एडवाइजर भी । लीगल एंड फाइनांशल एडवाईजर !”
“वही समझ लो ।”
“वो कल शाम वहां था ?”
“हां । छ पांच पर आया था ।”
“ठहरा कब तक था ?”
“मुझे नहीं मालूम । क्योकि मैं सात बजे तक वहां से चली आई थी ।”
“यानी कि तुम्हारे वहां से रुखसत होने तक वो वहीं था ?”
“न सिर्फ वहीं था, बल्कि अभी जल्दी रुखसत होने का उसका कोई इरादा भी नहीं लगता था ।”
“ऐसा कैसे सोचा ?”
“किसी बात पर झगड़ रहे थे दोनों । मेरे वहां से चले जाने तक वो झगड़ा किसी अंजाम तक पहुंचता जो नहीं लग रहा था ।”
“किस बात पर झगड़ रहे थे ?”
“मुकम्मल बात मुझे नहीं मालूम । मैं कोई उसके साथ थोड़े ही बैठी थी ।”
“वो कहां बैठे थे ?”
“शशि की स्टडी में ।”
“और तुम कहां थीं ?”
“पिछवाड़े के बैडरूम में ।”
“वहां तक स्टडी की आवाजें पहुचती थीं ?”
“तभी जब कोई बहुत ऊंचा बोले ।”
“झगड़ा पुनीत खेतान के आते ही शुरू हो गया था ?”
“नहीं । झगड़े का माहौल उसके आने के कोई पन्द्रह-बीस मिनट बाद बना था । बीच में एक-दो बार ठण्डा भी पड़ा था ।”
“वो किसलिए ?”
“मेरे से भी जो झगड़ना था उसने ।”
“आदतन झगड़ालू आदमी था शशिकांत ?”
“था क्या मतलब ? अब कौनसा उसे हैजा हो गया है ?”
उसके सिर्फ ‘था’ और ‘है’ में मीन-मेख निकालने लगने से ये मतलब नहीं लगाया जा सकता था कि उसे शशिकांत के कत्ल की खबर नहीं थी । मैं उसे जानना नहीं था । वो जितनी दिखती थी, उससे कहीं ज्यादा चालाक और पहुंची हुई हो सकती थी ।”
“आदतन झगड़ालू आदमी है” मैंने संशोधन किया, “शशिकान्त ?”
“पता नहीं क्या बला है ।” वो तिक्त भाव से बोली, “मैं तो समझ ही नहीं सकी उसका मिजाज ।”
“तुम जो बाकायदा उसकी हाउसकीपर बनी बैठी थी, किस खुशी में कर दी उसकी इतनी खिदमत ? क्यों हो गई इतनी मेहरबान उस पर ?”
“इसी खामख्याली में कर दी खिदमत कि उसे मेरी कद्र होगी वो मुझ पर मेहरबान होगा ।”
“सफा-सफा हिन्दोस्तानी में इसे मर्द को अपने पर आशिक करवाने की कोशिश कहते हैं ।”
उसने घूरकर मुझे देखा ।
“औरत जात की” मैं निर्विकार भाव से बोला, “कुछ खास उम्मीदें जब किसी मर्द मे पूरी नहीं होती तो वो चिड़कर उस पर ये लांछन लगाने लगती है कि वो बेमुरब्बत है, बद्जुबान है, खुदगर्ज है, नाशुक्रा है वगैरह ...”
वो कुछ क्षण पूर्ववत् मुझे घूरती रही और फिर एकाएक हंसी ।
“यानी कि मैंने ठीक कहा ?” मैं बोला ।
“हां ।”
“ठीक कहने का कोई इनाम ?”
उसने सिगरेट का आखिरी कश लगाया और बचे हुए टुकड़े को आगे को झुककर उस चाय के प्याले में डाला जो उसने पहले ही मेरी तरफ सरका दिया हुआ था । यूं मुझे उसके उन्नत दूधिया वक्ष की घाटी में बहुत दूर तक झांकने का मौका मिला । अब पता नहीं वो बेध्यानी में ज्यादा नीचे झुक गई थी या वो नजारा मुझे कराकर उसने मुझे इनाम दिया था ।
“देखो” वो मुझे समझाती हुई बोली, “मैं उसकी नाइट क्लब में चिट क्लर्क की नौकरी करती थी । दो हजार तनख्वाह थी । और भी सुविधाएं थीं । नाइट क्लब जैसी जगह की मुलाजमत होने की वजह से ऊपरी कमाई के भी बड़े चांस थे । कुल मिलाकर बढिया, मौज-बहार वाली नौकरी थी । लेकिन पुलिस की मेहरबानी से नाइट क्लब पर ताला पड़ गया । खड़े पैर क्लब के सारे मुलाजिम बेरोजगार हो गए । दिल्ली शहर में आनन-फानन नई, बढ़िया नौकरी ढूंढ लेना कोई मजाक तो है नहीं । ऐसे माहौल में मैंने क्लब के मालिक को शीशे में उतारने की कोशिश की तो क्या गलत किया ?”
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