RE: Desi Chudai Kahani मकसद
“मेरी तवज्जो नहीं थी उधर ।”
“नहीं थी तो हो गई होगी । झगड़े का मुद्दा चाहे न समझ पाई होवो लेकिन फिर भी कुछ तो जरूर सुना होगा ।”
वो सोचने लगी ।
“मैं आशापूर्ण निगाहों से उसकी सूरत देखता रहा । सोच में उसकी भवें तन गई, होंठों की कोरें नीचे को झुक गई और चेहरा यू खिंच गया कि वो उस घड़ी मुझे जरा भी खूबसूरत न लगी । अच्छी-भली खूबसूरत लड़की सोचने की कोशिश में पता नहीं क्या लगने लगी । जिस किसी ने भी ये कहा था कि खूबसूरती और अक्ल में छत्तीस का आंकड़ा होता था, जरूर उसने किसी खूबसूरत औरत को वैसे ही सोच में जकड़ा देख लिया था जैसे मैं उस घड़ी सुजाता मेहरा को देख रहा था ।
फिर उसके चेहरे से क्षणिक विकृति के लक्षण गायब होने लगे ।
मैं आशान्वित हो उठा । सोच का कोई सुखद नतीजा निकलता दिखाई दे रहा था ।
“उनमे झगड़े का मुद्दा वो बोली, कोई कागजात थे ।”
“कागजात !” मैं सकपकाया ।
“हां । किन्हीं कागजात को लेकर शशिकान्त पुनीत खेतान पर कोई इल्जाम लगा रहा था जिसकी खेतान पहले सफाई देने की कोशिश करता रहा था और फिर वो भी भड़क उठा था ।”
“क्या कागजात रहे होंगे वो ?”
“मुझे क्या पता ?”
“सोचो ।”
“जितना सोच सकती थी सोच लिया । अब और सोचने से भी कोई नतीजा नहीं निकलने वाला ।”
तब उसकी जगह मैं साचने लगा ।
क्या झगड़े का मुद्दा वो कागजात शशिकान्त की मां कौशल्या की वो चिट्ठी हो सकती थे जिसमे इस बात का सबूत निहित था कि लेखराज मदान मुकंदलाल सेठी का कातिल था । उस चिट्ठी ने कहीं तो होना ही था । क्या वो खेतान के कब्जे में रही हो सकती थी । कहीं इसीलिए तो चिट्ठी मदान के हाथ नहीं आ रही थी क्योंकि वो खेतान के पास रखकर चिराग तले अंधेरा वाली कहावत को चरितार्थ कर रही थी ।
लेकिन उस चिट्ठी को ले के झगड़ने वाली क्या बात थी ?
मुझे कोई बात ना सूझी ।
“कल शाम की कोई और बात ?” प्रत्यक्षत: मैं बोला ।
“और क्या बात ?” वह बोली ।
“शशिकांत की कोठी पर तुम्हारी मौजूदगी के दौरान कोई और आया था ?”
“पुनीत खेतान के अलावा कोई नहीं ।”
“कोई और जिक्र के काबिल बात ?”
उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“सोच के जबाव दो ।”
उसने कुछ क्षण सोच की पहले जैसी ही भयानक मुद्रा बनाई और फिर दोबारा इनकार में सिर हिलाया ।
“नैवर माइंड । अब नहीं तो फिर सही । कई बार किसी के कहने पर दिमाग पर जबरन जोर देने पर कोई बात नहीं याद आती जबकि वाद में किसी वक्त वो सहज स्वाभाविक ढंग से ही याद आ जाती है । यूं कोई बात बाद में याद आ जाए तो गांठ बांध लेना और वक्त आने पर मुझे बताना न भूलना ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“गुड ।” मैं बोला, “अब तुम सुनो खून वाली बात और पुलिस वाली बात ।”
“सुनाओ ।”
“शशिकांत का खून हो गया है ।”
“क्या !”
“वो मेटकाफ रोड पर अपनी स्टडी में मरा पड़ा है । किसी ने बाइस कैलीबर की रिवॉल्वर से गोलियां बरसाकर उसकी दुक्की पीट दी है । हालात ये बताते हैं कि कत्ल शाम साढ़े आठ के करीब हुआ था और गोलियां चलाई जाने का पैटर्न ये साबित करता है कि गोलियां किसी औरत ने चलाई थीं, उसने आंख बंद कर ली थीं और रिवॉल्वर का रुख मकतूल की तरफ करके घोड़ा खींचना शुरू कर दिया था ।”
“पै....पैटर्न क्या ?”
मैने उसे बताया कि गौलियां कैसे-कैसे चली थीं और कहां कहां टकराई थीं ।
“वो...वो औरत”, वो हकलाई, “मैं थोड़े ही हो सकती हूं !”
“क्यों नहीं हो सकती ?”
“मैं....मैं तो सात बजे ही वहां से चली आई थी । वो...वो वकील वो पुनीत खेतान...वो मेरा गवाह है ।”
“कहीं से चले आकर वहां वापिस भी लौटा जा सकता है ।”
“मैंने ऐसा नहीं किया । और फिर मेरे पास रिवॉल्वर का क्या काम ?”
“वो घटनास्थल पर मौजूद रही हो सकती है ।”
“मुझे रिवॉल्वर चलाना नहीं आता ।”
“वो क्या मुश्किल काम है । रिवॉल्वर का रुख टारगेट की तरफ करना होता है और घोड़ा दबा देना होता है ।”
“ल...लेकिन निशाना लगाना तो मुश्किल काम होता होगा ।”
“जब बहुत सी गोलियां चलाई जाएं तो कोई तो निशाने पर लग ही जाती है ।”
“ब..बहुत-सी गोलियां !”
मैंने बड़े उदासीन भाव से हामी में गर्दन हिलाई ।
“देखो” वह तनिक दिलेरी से बोली, “तुम खामखाह मुझे डरा रहे हो । मेरा उसके कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं ।”
“तुमने अभी कहा था कि तुमने उसके मुंह पर चाबी मारी और घर चली आई ।”
“हां ।”
“कैसे ?”
“ऑटो से ।”
“सीधे ?”
“नहीं ! पहले मैं तालकटोरा गार्डन गई थी ।”
“वो किसलिए ?”
“जो कुछ पीछे मेटकाफ रोड पर हुआ था उसकी वजह से मन बहुत अशांत था । मूड सुधारने की नीयत से तालकटोरा टहलने गई थी । फिर वहां से पैदल चलकर यहां लौटी थी ।”
“कितने बजे ?”
“नौ तो बज ही गए थे ।”
“इस लिहाज से साढ़े आठ बजे तुम तालकटोरा गार्डन में टहल रही थीं ?”
“हां ।”
“साबित कर सकती हो ?”
“कैसे साबित कर सकती हूं ? कोई वाकिफकार तो मुझे वहां मिला नहीं था ।”
“पुलिस ये दावा कर सकती है कि तुम अकेले या अपने फ्रेंड के साथ वापस मैटकाफ रोड गई थीं और खून करने के बाद सीधे यहां आई थीं ।”
“प...पुलिस !”
“हर हाल में तुम्हारे तक पहुंचेगी ।”
“मैं क्या करूं ?”
“ये मैं बताऊं ?”
“तुम्हीं बताओ । आखिर डिटेक्टिव हो । मुझे निकालो इस सांसत से । कुछ मदद करो मेरी ।”
“कुछ क्या पूरी मदद करता हूं ।” मैं उसकी आंखों मे झांकते हुए बोला ।
“शुक्रिया ।”
“दरवाजा बन्द करो ।” मैंने आगे झुककर उसकी जांघ पर हाथ रखा ।
“पागल हुए हो !” उसने तत्काल मेरा हाथ परे झटक दिया, “मुझे होस्टल से निकलवाओगे ।”
“तो फिर किसी जगह चलो जहां ऐसा खतरा न हो ।”
“कहां ?” वो संदिग्ध स्वर में बोली ।
“जहां मैं ले चलूं ।”
“पहले मेरी जान तो सांसत से छुड़वाओ ।”
“वो तो समझ लो छूट गई ।”
“कैसे ?”
“तुम्हें नहीं पता, अभी भी नहीं पता, कि शशिकांत का कत्ल हो गया है । तुम आज भी ऐसे ही वहां जाओ जैसे रोज जाती हो । जाके दरवाजा खोलो, लाश बरामद करो और शोर मचाना शुरू कर दो । यूं यही लगेगा कि तुम कल शाम के वाद पहली बार वहां लौटी हो ।”
“चाबी !”
“तुम्हें उम्मीद थी कि वो घर होगा ।”
“दरवाजा खुला होगा ?”
“रात को इतनी तकरार के बाद सुबह फिर वहां पहुंच जाने की मैं क्या सफाई दूंगी ?”
“कहना कि तुम्हें अहसास हुआ था कि गलती तुम्हारी थी । इसलिए आज तुमने अपनी गलती की तलाफी के तौर पर वहां जाना और भी जरूरी समझा था ।”
उसने संदिग्ध भाव से मेरी ओर देखा ।
“चाहने वालों में” मैं आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला, “ऐसी तकरार होती ही रहती हैं । आज रूठे कल मान गए ।”
“यानी कि मैं उसे अपना चाहने वाला कबूल करूं ?”
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