RE: Desi Chudai Kahani मकसद
“ऐसा तो वैसे भी समझा ही जाएगा । आखिर तुम उसके घर में रहती थीं और ये बात कहीं छुपने वाली है ।”
वह कुछ क्षण सोचती रही, फिर उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“तो फिर चलो ।” मैं उठता हुआ बोला, “मैंने उधर ही जाना है, तुम्हें मैटकाफ रोड उतारता जाऊंगा ।”
“मैं कपड़े तो बदल लूं ।”
“बदल लो ।” मैं सहज भाव से बोला ।
“तुम्हारे सामने बदल लूं ?”
“क्या हर्ज है ?”
“पागल हुए हो ।”
“मैं नीचे जाके ऑटो तलाश करता हूं । जल्दी आना ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
नीचे पहुंचकर मैंनै खुद डिसूजा का टेलीफोन नम्बर ट्राई किया लेकिन नतीजा सुजाता वाला ही निकला । कोई जवाब न मिला ।
फिर मैंने एक निगाह अपनी कलाई घड़ी पर डाली और फायर आर्म्स रजिस्ट्रेशन के आफिस में फोन किया ।
मालूम हुआ कि वाईस कैलीबर की हाथी दांत की मूठ वाली जो रिवाल्वर मैंने शशिकांत की कोठी के कम्पाउंड से बरामद की थी, वो कृष्ण बिहारी माथुर नाम के किसी सज्जन के नाम रजिस्टर्ड थी जो कि फ्लैग स्टाफ रोड पर एक नम्बर कोठी में रहता था ।
माथुर ! फ्लैग स्टाफ रोड ।
पहले मेरा इरादा शक्तिनगर पुनीत खेतान के ऑफिस में जाने का था लेकिन अब मैंने फ्लैग स्टाफ रोड जाने का निश्चय किया ।
वहां पहुंचने के लिए भी मैटकाफ रोड रास्ते में आती थी इसलिए कोई समस्या नहीं थी ।
मैंने डायरेक्ट्री में मदान के पेंटहाउस अपार्टमेंट का नम्बर देखा और उस पर फोन किया ।
फोन खुद मदान ने उठाया ।
“कोल्ली ।” मेरी आवाज सुनते ही वह व्यग्र भाव से बोला, “ओए, अभी तक पुलिस नहीं बोल्ली ।”
“बोल पड़ेगी ।” मैं बोला, “बस एक घंटा और लगेगा ।”
“मैं सस्पेंस से मरा जा रहा हूं ।”
“मत मरो । तुम भी मर गए तो इंश्योरेंस क्लेम की दुक्की पिट जाएगी ।”
“दुर फिटे मूं ।”
“कहानी तैयार है तुम्हारी ।”
“पूरी तरह से ।”
“बीवी फिट हो गई ।”
“हां । सब समझा दिया है उसे ।”
“बढ़िया ।”
“फोन कैसे किया ?”
“तुम्हारी बीवी की जो बहन है....सुधा माथुर जो फ्लैग स्टाफ रोड पर रहता है फ्लैग स्टाफ रोड पर कहां रहती है ?”
“एक नम्बर कोठी में ।”
“हस्बैंड का क्या नाम है ?”
“कृष्णबिहारी माथुर । क्यों ?”
“मैं उससे मिलना चाहता हूं ।”
“क्यों ?”
“है कोई वजह ।”
“तू उसके पास भी नहीं फटक पाएगा ।”
“क्यों ?”
“वो पुराने जमाने का टिपीकल रईस आदमी है जो ऐरे गैरे लोगों को अपने पास न फटकने देने में अपनी शान समझता है । करोड़पति है । कई कारोबार कई मिल हैं उसकी । बादशाह की तरह रहता है फ्लैग स्टाफ रोड पर । आम, मामूली लोगों से आदम बू आती है उसे । कीड़े-मकोड़े समझता है उन्हें । तू उससे मिलने की कोशिश करेगा तो कोई तुझे उसकी कोठी का फाटक भी नहीं लांघने देगा ।”
“इस पंजाबी पुत्तर ने फ्लैग स्टाफ रोड की किसी कोठी से बड़े-बड़े किले फतह किये हुए हैं ।”
“वहां दाल नहीं गलेगी वीर मेरे । यकीन कर मेरा ।”
“कभी वहां तुम्हारी अपनी दाल कच्ची रह गई मालूम होती है ।”
जवाब में उसके मुंह से बड़ी भद्दी गाली निकली और फिर वह बोला, “भूतनी दा रईस होगा तो अपने घर का होएगा ।”
“तुम्हारे से रिश्तेदारी नहीं मानता ?”
“मैं नहीं मानता ।”
“उसी ने पास नहीं फटकने दिया होगा अंडरवर्ल्ड डान को ! गैंगस्टर शिरोमणि को ! रैकेटियर-इन-चीफ को ।”
“बक मत ।”
“क्लायंट का हुक्म सिर माथे पर ।”
“तू क्यों मिलना चाहता है उससे ?”
“तुमने अभी उसे पुराने जमाने का टिपीकल रईस कहा । है ही वो पुराने जमाने का रईस या उसकी फितरत पुराने जमाने के रईसों जैसी है ?”
“दोनों ।”
“क्या मतलब ?”
“अगर तेरा जवाब उसकी उम्र की बाबत है तो वो साठ साल का है ।”
“तोबा । तुम्हारे से भी पांच साल बड़ा !”
“कोल्ली, दसवीं बार पूछ रहा हूं । तू क्यों मिलना चाहता है उससे ?”
उत्तर देने के स्थान पर मैंने लाइन काट दी ।
मामला गहराता जा रहा था ।
जिस रिवॉल्वर से हत्या हुई थी, वो हत्प्राण के कथित भाई की बीवी की बहन के पति के नाम रजिस्टर्ड थी ।
मैंने डायरैक्ट्री में कृष्णबिहारी माथुर की एंट्री निकाली । उसके नाम के आगे दो दर्जन टेलीफोन अंकित थे जिनमें से कम से कम चारफ्लैग स्टाफ रोड के पते वाले थे ।
मैंने एक नंबर पर फोन किया ।
तुरंत उत्तर मिला ।
“हल्लो ।” एक मर्दाना आवाज मुझे सुनाई दी ।
“मैं” मैं बोला, “मिस्टर कृष्यबिहारी माथुर से बात करना चाहता हूं ।”
“आप कौन साहब ?”
“मेरा नाम सुधीर कोहली है ।”
“किस बारे में बात करना चाहते हैं ?”
“मामला पर्सनल है l”
“मुझे बताइए । मैं उनका प्राइवेट सैक्रेट्री हूं ।”
“और गोपनीय भी, प्राइवेट सैक्रेट्री साहब ।”
“फिर भी मुझे बताइए ।”
“और अर्जेंट भी ।”
“आप खामखाह वक्त जाया कर रहे हैं । साफ बोलिए आप कौन सी प्राइवेट, पर्सनल और अर्जेंट बात करना चाहते हैं वर्ना मैं फोन बंद करता हूं ।”
“आपको बताए बिना बात नहीं होगी ?”
“मुझे बताने के वाद भी होने की कोई गारंटी नहीं ।”
“वो मामला इतना नाजुक है कि खुद माथुर साहब ही पसंद नहीं करेंगे कि.....”
“आप बेकार बातों में वक्त जाया कर रहे हैं । मैं फोन बद करता हूं ।”
“सुनिए । सुनिए । प्लीज ।”
“बोलिये । जल्दी ।”
“मैं माथुर साहब से एक रिवॉल्वर के बारे में बात करना चाहता हूं ।”
“रिवॉल्वर ।”
“बाइस केलीबर की । हाथी दांत की मूठ वाली । सीरियल नम्बर डी-24136 है । माथुर साहब के नाम रजिस्टर्ड है ।”
“क्या बात करना चाहते हैं है आप उस रिवॉल्वर के बारे में ।”
“मै उन्हें ये बताना चाहता हूं कि वो रिवॉल्वर इस वक्त कहां है ।”
“कहां है क्या मतलब ? उनकी रिवॉल्वर उनके पास नहीं है ?”
“नहीं है ।”
“आपको कैसे मालूम ?”
“मालूम है । कैसे मालूम है, ये मैं उन्हीं को बताऊंगा । अब आप बेशक फोन बंद कर दीजिए ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“अपना नाम फिर से बताइए ।” फिर पूछा गया ।
“कोहली । सुधीर कोहली ।”
“आपकी लाइन आफ बिजनेस क्या है, मिस्टर कोहली ?”
“मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूं ।”
“आधा घंटे बाद फोन कीजिए, मिस्टर कोहली ।”
“लेकिन......”
मैं खामोश हो गया । तब तक लाइन कट चुकी थी ।
मैंने सीढ़ियों की ओर निगाह दौड़ाई, सुजाता को नमूदार होती न पाकर वक्त्गुजारी के लिए मैंने अपने ऑफिस फोन किया ।
“यूनिवर्सल इन्वेस्टिगेशंस । मुझे अपनी सैक्रेट्री रजनी का खनकता हुआ स्वर सुनाई दिया ।
“मैं” मैं बोला, “तुम्हारा एम्प्लोयर बोल रहा हूं ।”
“बोलिए !”
“बोलिए ! मैं भुनभुनाया, “हद है तुम्हारी भी ।”
“क्या हुआ ?” उसने भोलेपन से पूछा ।
|