RE: Desi Chudai Kahani मकसद
“तुम्हें कैसे मालूम है कि वो तब मरा पड़ा था ? तुमने उसकी कोई नब्ज-वब्ज टटोली थी ?”
“मैं तो उसके पास भी नहीं फटकी थी लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि वो मरा पड़ा था । अब तुम कुछ भी कहो लेकिन मुझे मौत की सूंघ लग रही थी उस जगह से ?”
“स्टडी में और क्या देखा था तुमने ?”
“कुछ भी नहीं । सिवाए इसके कि वहां ट्यूब जल रही थी लेकिन दीवार पर लगा सजावटी वॉल लैंप टूटा हुआ था और....और शायद मेज पर रखा कलमदान उलटा पड़ा था ।”
“बाहर कंपाउंड में रोशनी थी ?”
“नहीं ।”
“भीतर ?”
“भीतर ड्राइंगरूम में तो अंधेरा-सा ही था । शायद एक कोने में एक टेबल पर रखा एक टेबल लैंप जल रहा था वहां । दरअसल स्टडी की तरफ मेरी तवज्जो गई ही इसलिए थी कि क्योंकि वहां के खुले दरवाजे में से ट्यूब लाइट की रोशनी बाहर निकल रही थी ।”
“आई सी । अब एक बड़ा अहम् सवाल । गई क्यों थी तुम वहां ?”
“ये मैं नहीं बता सकती ।”
“ये क्या बात हुई ! ये कोई बात हुई ! ये तो यूं हुआ की पहले बांधा, फिर ताना, फिर खींचा और फिर खींच के छोड़ दिया कि जाओ बेटा लटके रहो ।”
“ये क्या जुबान बोलते हो तुम ?”
“बोलो, क्यों गई थी वहां ?”
“वजह मैं अपनी जुबान से नहीं बता सकती ।”
“वजह का अगर अंदाजा मैं लगाऊं तो उसकी बाबत कुछ हां या न तो कर दोगी या वो भी नहीं ?”
“क...क्या कहते हो ?”
“तुम ड्रग एडिक्ट हो । तुम ड्रग के चक्कर में उसके पास गई थी ।”
वो गैस निकले गुब्बारे की तरह पिचक गई ।
“बोलो हां या न ?”
“ह..ह..हां ।”
“दैट्स लाइक ए गुड गर्ल ।”
“किसी से कहना नहीं । खास तौर से डैडी से ।”
“नशेड़ियों का एतबार बड़ा बेएतबारा होता है । जब नशे की तलब लगती है तो दीवाने हो जाते हैं । नशे का इंतजाम न हो तो उसे हासिल करने के लिए खून तक करने पर उतारू हो जाते हैं । तुम्हीं ने तो नहीं कर डाला उसका खून ?”
“नहीं ।”
“पहले ही मरा पड़ा था ?”
“हां । बोला तो ।”
“अक्सर जाती रहती थीं तुम वहां ?”
“पहली बार गई थी ।”
“पहले कभी ऐसी जरूरत पेश नहीं आई ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“पहले उसकी राजेंद्रा प्लेस वाली क्लब जो चलती थी । वहीं मेरा काम बन जाता था । क्लब पर ताला पड़ गया था तो फोन करने भर से काम चल जाता था ।”
“कल फोन पर काम नहीं बना ?”
“फोन लगा ही नहीं । तभी तो मैं वहां गई ।”
“तुम उसकी नाईट क्लब में भी आती जाती थी, इस लिहाज से तो तुम्हारी वाकफियत पुरानी हुई ।”
वो खामोश रही ।
“इतनी पुरानी हुई कि विडियो कैमरे की शहादत में तुम उसके सामने अलफ नंगी पेश हो सकती थी ।”
“मुझे अभी भी यकीन नहीं कि ऐसी कोई फिल्म है ।”
“यानी कि तुम्हारा इनकार फिल्म के अस्तित्व की बाबत है, अपनी करतूत की बाबत नहीं ।”
“उसकी बाबत भी है ।”
“वो मर गया है । जहां कत्ल से मौत होती है, वहां पुलिस पहुंचती है । जहां पुलिस पहुंचती है, वहां की भरपूर तलाशी होती है । यूं तुम्हारी कोई ब्लू फिल्म मकतूल के यहां से बरामद होने पर कितनी जय-जयकार हो सकती है तुम्हारी दिल्ली शहर में, कभी सोचा !”
“वो...वो फिल्म” वो कंपित स्वर में बोली- “नहीं बरामद होनी चाहिए ।”
“यानी मानती हो कि ऐसी फिल्म है ?”
“नहीं । लेकिन अगर है तो नहीं बरामद होनी चाहिए ।”
“नेक ख्वाहिशात से ही नेक काम नहीं होते, मैडम ।”
“तुम कुछ करो न ?”
“मैं करूं ?”
“आखिर डिटेक्टिव हो ।”
“वालंटियर नहीं ।”
“डैडी के लिए भी तो काम कर रहे हो ?”
“फीस ले के ।”
“मैं भी फीस दे दूंगी ।”
“क्या ?”
“जो तुम चाहो ।”
“जो मैं चाहूं ?”
“हां ।”
“मुकर न जाना ।”
“नहीं मुकरुंगी ।”
“डाउन पेमेंट अभी करो ।”
“कैसे ?”
“शीशा चढाओ ।”
उसने कार का अपनी ओर का और मैंने अपनी ओर का शीशा चढ़ाया । शीशे उस प्रकार के थे जिनमें से बाहर से भीतर नहीं झांका जा सकता था ।
“मेरी तरफ देखो ।” मैं बोला ।
उसने घूमकर मेरी तरफ देखा ।
मैंने अपनी बांहे उसकी गर्दन के गिर्द डाल दी और उसे अपनी तरफ खींचा ।
“अरे, अरे !” उसने तत्काल मुझे परे धकेला, “चलती सड़क है ।”
“लेकिन चल कोई नहीं रहा ।” मैं बोला, “सुनसान पड़ी है सड़क ।”
“अरे, आते-जाते का पता लगता है !”
“तो क्या हुआ ?”
“तो क्या हुआ ! सामने से सब दिखाई देता है ।”
“उसका भी इंतजाम हो सकता है ।”
“क्या ?”
“विंड स्क्रीन पर पानी का जैट छोडो और वाईपर चला दो ।”
चेहरे पर असमंजस के भाव लिए उसने ऐसा किया ।
“बस, बस ।”
उसने पानी और वाईपर दोनों बंद किए ।
अब सामने का शीशा धुंधला गया था ।
“वाकई टॉप के हरामी हो ।” वो प्रशंसात्मक स्वर में बोली ।
“तारीफ का शुक्रिया ।” मैं बोला । मैंने फिर उसे अपनी बांहों में दबोच लिया और उसके होठों पर अपने होठ रख दिए । मेरे तजुर्बेकार हाथ उसके जिस्म की गोलाइयों पर दस्तक देने लगे । उसने कोई ऐतराज क्या, काफी हद तक सहयोग दिया ।
सुधीर कोहली - मैंने मन-ही-मन अपनी पीठ थपथपाई - दी लक्की बास्टर्ड ।
मेरा फ्यूज उड़ने को हो गया तो मैंने उसे अपने से अलग किया ।
“मारुती कार” मैं हांफता हुआ बोला, “इन कामों के हिसाब से नहीं बनी ।”
“मैं वापस जाके कोई बड़ी गाड़ी ले आती हूं ।” वो स्वप्निल स्वर में बोली ।
“गाड़ी फिर गाड़ी है ।”
“तो ?”
“किसी ऐसी जगह चलते है जहां टीवी हो और विडियो हो ताकि तुम्हें ऐतबार दिलाया जा सके कि जैसी फिल्म का मैं जिक्र कर रहा था, वैसी का अस्तित्व है ।”
“ऐसी जगह कहां ?”
“मेरा फ्लैट । ग्रेटर कैलाश में ।”
“वो तो बहुत दूर है । वहां तो मैं इस वक्त नहीं जा सकती ।”
“क्यों ?”
“मैंने कहीं और जाना है । तुम्हारे कोठी से बाहर निकलने के इंतजार में पहले ही बहुत देर हो चुकी है ।”
“कहीं फिक्स के इंतजाम में जाना हैं ?”
उसने उत्तर न दिया ।
“तो फिर कैसे बात बने ?” मैं बोला ।
“फिल्म कहां है ?” उसने पूछा ।
“मेरे पास ।” मैंने कोट की जेब से निकालकर उसे कैसेट दिखाई ।
“फिर क्या बात है !” वो हर्षित स्वर में बोली, “फिर तो फिल्म मुझे दो । मुझे जब फुर्सत लगेगी, मैं घर पर ही इसे देख लूंगी ।”
“और मैं ?”
“तुम क्या ?”
“मैं कब देखूंगा ?”
“तुम तो देख ही चुके होंगे । तभी तो तुम्हें मालूम है कि इसमें क्या हैं ।”
“सिर्फ दो मिनट । इससे ज्यादा ड्यूरेशन का तो ट्रेलर ही होता है ।”
“तुम देखना क्यों चाहते हो इसे ? ट्रेलर से फिल्म का अंदाजा तो हो ही जाता है ।”
“देखो । मैंने जान जोखिम में डालकर ये फिल्म मौकाएवारदात से निकाली है । पुलिस को खबर लग जाए तो सीधे तिहाड़ में बोरिया बिस्तर हो । इस लिहाज से मुझे कम से कम ये देखने का मौका मिलना चाहिए कि तुम किन कारनामों में माहिर हो ।”
“वो मैं तुम्हें लाइव दिखा दूंगी ।”
“जहेनसीब । लेकिन फिल्म देखना फिर भी मेरे लिए जरुरी है । इसमें ऐसा कुछ और भी हो सकता है जो कि शशिकांत के कत्ल के राज पर रोशनी डाल सकता हो ।”
“तो फिर क्या किया जाए ?”
“जिस काम से जा रही हो, उससे फ्री होकर मेरे फ्लैट पर आ जाना ।”
“मुझे तो उस काम में ही रात पड़ जायेगी ।”
“क्या हर्ज है ! मैं भी अंधेरा होने से पहले घर नहीं पहुंच पाने वाला । तुम ऐसा करो । आठ बजे का टाइम फिक्स कर लो ।”
“ठीक है ।” वो बोली, “आठ बजे ।”
“अब तुम जाओगी कहां ?”
“मॉडल टाउन ।”
“बढ़िया । मुझे शक्तिनगर उतार देना ।”
“उतार दूंगी । अब जरा उतरकर शीशा साफ करो ।”
“शीशा !”
“धुंधलाना ही जानते हो ? साफ करना नहीं जानते । मैं विंडस्क्रीन की बात कर रही हूं । बाहर कुछ दिखाई देगा तो चलाउंगी न !”
“ओह ! ओह !”
उसने मुझे एक डस्टर थमा दिया । मैंने बाहर निकलकर विंडस्क्रीन साफ की और वापस कार में सवार हो गया ।
तत्काल उसने कार सड़क पर दौड़ा दी ।
“अब जरा” मैं बोला, “कल शाम की बात की ओर जरा तवज्जो दो । शशिकांत की कोठी में, पक्की बात है कि, कोई नहीं था ?”
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