RE: Desi Chudai Kahani मकसद
“था तो कम से कम मुझे दिखाई नहीं दिया था ।” वो बोली, “मैं सारी कोठी तो घूमी नहीं थी । मैं तो बस स्टडी और ड्राइंग रूम में गई थी ।”
“स्टडी के साथ अटैच्ड बाथरूम में भी नहीं झांका था ?”
“नहीं ।”
“जैसे तुम कहती हो कि तुम्हें वहां मौत की सूंघ लग गई थी, वैसे तुम्हें वहां किसी की मौजूदगी की सूंघ नहीं लगी थी ?”
“नहीं लगी थी । तभी तो कहती हूं कि शायद वहां कोई था ही नहीं ।”
“या बाहर ?”
“बाहर कहां ?”
“कहीं भी । ड्राइव वे पर । कम्पाउंड में । बाहर सड़क पर । कहीं कोई नहीं दिखाई दिया तुम्हें ?”
वो खामोश रही ।
“मैं ये बात जानने के लिए पूछ रहा हूं कि क्या तुम्हारे वहां गए होने का राज खुल सकता है ? क्या किसी ने तुम्हें कोठी में या उसके आसपास देखा हो सकता है ?”
वह कुछ क्षण खामोश रही और फिर बहुत दबे स्वर में बोली, “सुधीर”
“बोलो ।” मैं आशापूर्ण स्वर मैं बोला ।
“जब मैं बाहर आकर अपनी कार में बैठी थी और उसे यू टर्न देकर बापस लौटने लगी थी तो उसी वक्त मुझे सामने से आती एक टैक्सी दिखाई दी थी । सुधीर, उस टैक्सी में सुधा सवार थी ।”
“सुधा ! तुम्हारी सौतेली मां !”
“हां ।”
“तुमने साफ पहचाना था उसे ?”
“हां । वो ही पिछली सीट पर बैठी थी और जैसे टैक्सी की रफ्तार घटने लगी थी, उससे लगता था कि वो वहीं आ रही थी ।”
“अगर तुमने उसे देखा था तो उसने भी तुम्हें देखा होगा ?”
“शायद न देखा हो । मेरी कार की हैडलाईट्स हाई बीम पर थीं जिससे कि सामने से आने वाले की आंखें चौंधियां जाती हैं और उसे ठीक से कुछ दिखाई नहीं देता ।”
“ऐसी ही हालत तुम्हारी नहीं थी ?”
“नहीं । टैक्सी की हैडलाइट्स हाई बीम पर नहीं थी ।”
“यानी कि हो सकता है कि उसने तुम्हें न देखा हो, देखा हो तो पहचाना न हो ।”
“हां ।”
“वो शशिकान्त की कोठी पर ही गई थी ?”
“मैं ये देखने के लिए वहां नहीं रुकी थी लेकिन और कहां गई होगी वो ?”
“हूं । तुम्हारी बनती कैसी है अपनी सौतेली मां से ?”
“क्या बननी है सौतेली मां से ?” वो वितृष्णापूर्ण स्वर में बोली, “वो भी नौजवान सौतेली मां !”
“अब जो रिश्ता कायम हो गया है, वो तो हो ही गया है ।”
“रिश्ते दिल से बनते हैं । खून से बनते हैं ।”
“ठीक कहा । पेश कैसे आती है तुम्हारी सौतेली मां तुम्हारे से ?”
“मां-मां मत करो” वो चिड़कर के बोली, “सुधा बोलो ।”
“पेश कैसे आती है सुधा तुम्हारे से ?”
“पुचपुच तो बहुत करती है । सच में ही मेरी मां बनके दिखाने की कोशिश करती है लेकिन मैं जानती हूं कि सब दिखावा है ।”
“दिखावा किसलिए ?”
“डैडी को खुश करने के लिए । उन्हें आदर्श और नेकबख्त बीवी बनके दिखाने के लिए ।”
“आई सी । उसके कैरेक्टर के बारे में कोई राय जाहिर करो ।”
“मैं क्या राय जाहिर करूं, तुम खुद सोचो । साठ साल उम्र के, पति का फर्ज निभा सकने में नाकाम मर्द की हसीन, नौजवान, बीवी, जोकि उसकी व्हील चेयर के हत्थे से बंधी भी नहीं रहती, संन्यास धारण कर लेने की इच्छुक तो होगी नहीं ।”
“उसकी नवाजिशों का हकदार, तलबगार, कोई कैंडीडेट है तुम्हारी निगाह में ?”
“मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहती ।”
“यानी कि है ।”
“कहा न, मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहती ।”
नाम न लेना चाहने का एक मतलब ये भी हो सकता था कि नाम लेने लायक कोई नाम उसके जेहन में था ही नहीं । उस लड़की पर मेरा ऐतबार कतई नहीं बैठ रहा था । कल शाम हत्या के वक्त के आसपास मैटकाफ रोड पर सुधा माधुर की मौजूदगी की बात भी उसकी गढी हुई हो सकती थी । उसकी एक-एक बात साफ जाहिर करती थी कि वो अपनी सौतेली मां को सख्त नापसंद करती थी । वो उसकी कल्पना एक चरित्रहीन, दौलत की दीवानी औरत के तौर पर करती थी, उससे खुंदक खाती थी और उसे किसी जहमत मे फंसाकर कोई निहायत भ्रष्ट किस्म का आत्मिक संतोष प्राप्त करना चाहती थी ।
सुधा से रात हो जाने तक मैंने उस बाबत खामोश रहना ही उचित समझा ।
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