RE: Desi Chudai Kahani मकसद
“हां ।”
“कमरे में रोशनी थी ?”
“नहीं । मैंने जाकर की थी ।”
“कैसे ?”
“कैसे क्या ? स्विचबोर्ड पर लगा एक स्विच आन किया था, रोशनी हो गई थी ।”
“क्या रोशन हुआ था । ट्यूब लाइट या वाल लैंप ।”
“ट्यूब लाइट ।”
“वाल लैंप तब सलामत था ?”
“मुझे क्या पता ! मुझे तो ये ही नहीं पता कि वहां कोई वाल लैंप भी था ।”
“मेज पर कोई अस्तव्यस्तता नोट की हो जैसे कोई होल्डर कलमदान में अपनी जगह न हो, या टूटा पड़ा हो ?”
“मेरा ध्यान उधर नहीं गया था ।”
“पीछे वाल कैबिनेट पर जैसे दाएं कोने में घड़ी वाला बुत था, वैसे दाएं कोने में एक घुड़सवार का बुत था...”
“था तो मैंने नहीं देखा था । दरअसल एक तो मैंने वहां अंधेरे में कदम रखकर खुद रोशनी की थी इसलिए मेरी आंखें चौंधियां गई थीं, दूसरे शशिकांत की हालत ने मुझे हकबका दिया था, उन हालात में मेरी निगाह तो मरे हुए शशिकांत पर से ही नहीं हट रही थी, वो घड़ी ऐन उसके पीछे न होती तो शायद मेरी उस पर भी निगाह न पड़ती ।”
“मुझे लगता है अपनी उस हालत में तुम्हारे से टाइम देखने में गलती हुई । जरूर घड़ी तब साढ़े आठ के करीब का टाइम दर्शा रही थी जिसे कि तुमने साढ़े सात के करीब का टाइम समझ लिया था ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि साढ़े सात बजे तो शशिकांत जिन्दा था । इस बात का एक चश्मदीद गवाह मौजूद है । उसके घर में एक मेहमान था उस वक्त जोकि सात पचास पर उसे सही सलामत पीछे छोड़कर वहां से रुखसत हुआ था । मौकाएवारदात के हालात बताते हैं कि कत्ल आठ अट्ठाइस पर हुआ था ! एक गोली तो वक्त दर्शाती घड़ी को भी लगी थी जोकि उसी टाइम पर रुक गई थी । तुमने जरूर ये ही वक्त देखा था जिसे तुम सात अट्ठाइस का वक्त समझ बैठी थीं ।”
वो सोचने लगी ।
“क्या नहीं हो सकता ऐसा ?”
“हो तो सकता है ।”
“जब तुम वहां पहुंची थीं तो बाहर कंपाउंड में रोशनी थी ?”
“हां ।”
“ड्राइंगरूम में ?'
“वहां भी थी ।”
“काफी या किसी कोने खुदरे में रखे छोटे मोटे टेबल लैंप की ?”
“काफी । ट्यूब लाइट की रोशनी थी वहां ।”
“तुमने भीतर दाखिल होते वक्त बारहली - जो आयरन गेट पर है - या भीतरली - जो कोठी के प्रवेशद्बार पर है - कोई घंटी बजाई थी ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“दोनों दरवाजे खुले जो थे ।”
“आवाज तो लगाई होगी भीतर पहुंचने के बाद । नाम लेकर तो पुकारा होगा शशिकांत को ?”
“नहीं ।”
“वो भी नहीं ?”
“नहीं । तुम भूल रहे हो कि वहां मैं उसका हाल-चाल जानने के लिए नहीं, उसका कत्ल करने के लिए गई थी । मेरा मकसद उस तक पहुंचना था, ऐसा मैं चुपचाप कर पाती तो वो मेरे लिए फायदे की बात होती । मुझे तो वो जहां दिखाई देता, मैंने उसे शूट कर देना था ।”
“वो घर में अकेला न होता तो ?”
“वो अकेला ही होता था । मैंने मालूम किया था चुपचाप ।”
“इत्तफाक से उस वक्त उसके साथ घर में कोई मेहमान होता तो ?”
जवाब में वो बड़े कुटिल भाव से होंठ बिचकाकर हंसी ।
“ओह माई गॉड !” मेरे मुंह से निकला, “तुम उसे भी शूट कर देती ?”
इस बार हंसी के साथ-साथ मुझे एक नागिन जैसी फुंफकार भी सुनाई दी ।
आखिर ऐसे ही तो औरत को ‘डैडलियर देन दी मेल’ नहीं कहा गया ।
“फिर ?” प्रत्यक्षत: मैं बोला ।
“फिर क्या ? मैं फौरन वहां से वापस लौट पड़ी ।”
“वापसी में तुमने स्टडी की या ड्राइंगरूम की या कम्पाउंड की कोई बत्ती बुझाई ?”
“नहीं ।”
“वहां पहुंचते वक्त या लौटते वक्त तुम्हें सड़क पर कोई जाना-पहचाना बंदा या बंदी मिली ?”
“नहीं ।”
उसका वो जवाब सच झूठ के नपने से नापने लायक था । उसने अपनी बहन सुधा को या पिंकी माथुर को वहां आता-जाता देखा हो सकता था । पिंकी की खातिर नहीं तो अपनी बहन की खातिर तो इस बाबत वो यकीनन झूठ बोल सकती थी ।
“आज सुबह” वो कह रही थी, “जब तुम यहां पहुंचे थे तो यकीन जानो मुझे हार्ट अटैक होते-होते बचा था ।”
“तुमने समझा होगा कि मुर्दा जिंदा हो गया ।” मैं बोला ।
“हां । तब तुम मेरी सूरत देख पाते तो यही समझते कि मैने भूत देख लिया था ।”
“सूरत कैसे देख पाता ? वो तुम्हारे उस फैंसी झरोखे में से मेजबान की सिर्फ आंखें जो दिखाई देतीं हैं आने वाले को ।”
“हां । फिर तुमने अपना परिचय दिया तो मेरी जान में जान आई । फिर मुझे ये भी सूझा कि तुम्हारी मूंछें नहीं थीं ।”
“हेयर स्टाइल में भी फर्क है ।”
“अब दिखाई दे रहा है । तब तुम्हारे हेयर स्टाइल की तरफ मेरी तवज्जो नहीं गई थी ।”
“हूं । अब जैसी छक्के छुड़ा देने वाली बात तुमने मुझे सुनाई, वैसी ही एक मेरे से भी सुनो ।”
“क्या ?”
“तुम शशिकांत का कत्ल करती तो ये गुनाहबेलज्जत वाला काम होता ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि इस बाबत जो लाइन आफ एक्शन तुमने सोची थी, वो ही तुम्हारे खाविंद ने पकड़ी हुई थी ।”
“वो भी उसका कत्ल करने पर आमादा था ?”
“हां ।”
“नहीं हो सकता ।”
“क्यों ?”
“वो अपने सगे भाई के कत्ल का ख्याल भी नहीं कर सकता था । इसीलिए तो ये नामुराद कदम मुझे उठाना पड़ रहा था ।”
“तुम्हारी सोच में दो नुक्स हैं ।”
“क्या ?”
“एक तो ये कि उसका शशिकांत का कत्ल करने का कोई इरादा ही नहीं था .....”
“लेकिन अभी तो तुमने कहा, कि वो....”
“वो कत्ल मेरा करता और जाहिर करता कि शशिकांत मर गया था । मेरे शशिकांत का हमशक्ल होने का वो ये फायदा उठाना चाहता था ।”
“ओह ! ओह !”
“मैं तो तकदीर से ही बच गया वरना ये बलि का बकरा अपने क्लायंट की अप्सरा जैसी बीवी के मरमरी जिस्म का भोग लगाये बिना ही जहन्नुमरसीद हो गया होता ।”
“अब तो भोग लग चुका” उसने बहुत नशीली आंखों से मुझे देखा - “अब तो जन्न्तनशीन होवोगे न ?”
“हो भी चुका । वहीं तो विचर रहा हूं मैं इस वक्त । मेरा तो नश्वर शरीर ही इस वक्त तुम्हारे सामने मौजूद है, आत्मा तो कब की...”
“बातें मत बनाओ और बोलो दूसरा नुक्स क्या है मेरी सोच में ?”
“शशिकांत तुम्हारे पति का भाई नहीं । शशिकांत तुम्हारे पति का कुछ भी नहीं लगता ।”
उसके चेहरे पर हैरानी के बड़े सच्चे भाव आए ।
“तुम्हें किसने कहा ?” वो बोली ।
“खुद तुम्हारे पति ने ।”
“कमाल है ! क्या किस्सा है, भई ? साफ बताओ ।”
मैंने उस बाबत जो कुछ मदान से सुना था, दोहरा दिया ।
“हद हो गई ।” सारी बात सुन चुकने के बाद वो बोली, “यानी कि मैं तो बाल-बाल बची खून से अपने हाथ रंगने से ।”
“मदान भी ।” मैं बोला ।
“तुम्हें यकीन है कि खून मदान ने नहीं किया ?”
“लगता है तुम्हें यकीन नहीं है ।”
“वो मुझे पट्टी पढा रहा था कि पूछे जाने पर मैं यही कहूं कि कल शाम से वो घर पर ही था ।”
“मैंने ही उसे ऐसा करने की राय दी थी लेकिन तब मुझे ये नहीं सूझा था कि उस पट्टी को पढ़ने में तुम्हारा भी फायदा है ।”
“मेरा क्या फायदा है ? मुझे तो उल्टे सफेद झूठ बोलना पड़ेगा कि ....”
“वाह मेरी भोली बेगम !”
“क्या हुआ ?”
“अरे, तुम उसकी यूं गवाह बनीं तो वो तुम्हारा गवाह न बना ! तुम्हारे ये कहने से कि वो कल शाम से घर पर था, क्या अपने आप ही स्थापित न हो गया कि तुम भी कल शाम घर पर ही थीं ? ऐसी गवाही की जितनी उसे जरूरत है, उससे कहीं ज्यादा तुम्हें जरूरत है । कहने को पति पर अहसान किया कि उसकी खातिर कुर्बान होकर झूठ बोल रही हो, असल में अपनी पोजीशन मजबूत की । मैटकाफ रोड की अपनी कल की विजिट की बाबत जो कुछ तुमने अभी मुझे बताया है, वो अगर मदान को पता लग जाए तो उसे अपने बचाव के लिए तुम्हारी गवाही की जरूरत ही नहीं रह जाएगी ।”
“तुम्हारा मतलब है कि मैं फंस जाऊं तो वो खुश होगा ?”
“बहुत ज्यादा ।”
“वो मेरा दीवाना है ।”
“अपनी जिंदगी का भी तो दीवाना होगा । जब जिंदगी ही न रही तो ऐसी दीवानगी किस काम की ! जान है तो जहान है, मेमसाहब ।”
“तुम ठीक कह रहे हो । ..तुम.. .तुम उसे कह तो नहीं दोगे कुछ ?”
“हरगिज नहीं ।”
“शुक्रिया ।”
“जुबानी ?”
“ज्यादा खाने से बद्हजमी हो जाती है ।”
“चलो, मान ली तुम्हारी बात । तुम भी क्या याद करोगी कि किसी संतोषी जीव से पाला पड़ा था । अब ये बताओ कि शशिकांत की कोठी से रुखसत होने के बाद तुमने क्या किया था ?”
“मैंने पिस्तौल से पीछा छुड़ाया था ।”
“कहां ? कैसे ?”
“पहले मैं बस अड्डे वाले जमना के नए पुल पर गई थी लेकिन उस दर बहुत आवाजाही थी । जमना के पुराने पुल का रुख किया तो पाया कि वहां तो उससे भी ज्यादा रश था । आखिर में मैं वजीराबाद के पुल पर पहुंची थी जो कि काफी हद तक सुनसान था । वहां मैंने पिस्तौल को जमना में फेंका था और वापस लौट आई थी ।”
“कहां ?”
“फ्लैगस्टाफ रोड वहां मेरी बहन सुधा माथुर रहती है । यहां से मैं यही कह कर गई थी कि मैं बहन से मिलने जा रही थी । वहां मेरी हाजिरी जरूरी थी । वहां से मैंने मालूम करना था कि मेरे पीछे मेरे पति ने वहां फोन तो नहीं किया था, जैसे कि वो अक्सर करता था । ऐसा फोन आया होने पर मैं कहती कि मैं सुधा के साथ बाजार गई थी और पूछे जाने पर वो भी यही कहती ।”
“फोन आया था ?”
“नहीं । जो कि मेरे लिये सहूलियत की बात थी । मैंने सुधा को समझा दिया था कि पूछे जाने पर वो यही कहे कि मैं शाम से वहीं थी ।”
“मदान, सुधा की बात पर एतबार करता है ?”
“अभी तक तो करता है । इसका सबूत ये है कि सुधा के यहां जाने से उसने मुझे कभी नहीं रोका । और कहीं मैं अकेले जाने की कहूं तो जरूर हुज्जत करता है और अमूमन नहीं जाने देता ।”
“लेकिन सुधा के यहां जाने के बहाने, या वहां जाकर, तुम कहीं भी जा सकती हो !”
उसने बड़ी अनमने भाव से सहमति में गर्दन हिलाई ।
“तुम्हारी बहन की आवाज तुम्हारे से मिलती है । सिर्फ अंदाजेबयां का फर्क है । खास जरूरत आन पड़ने पर वो तुम्हारे अंदाज में बोलकर मदान को यकीन दिला सकती है वो तुमसे ही बात कर रहा है । ठीक ?”
उसने आंखें तरेरकर मेरी तरफ देखा ।
“अपनी बहन के सदके मदान को धोखा देने का तुम्हारा ये सिलसिला आम चलता होगा ।”
“इसमें धोखे की कौन-सी बात है ?”
“जिस बात को छुपाने की जरूरत हो वो धोखे की ही होती है । नंबर दो सृष्टि में कोई उम्रदराज खाविंद पैदा नहीं हुआ जो अपनी नौजवान बीवी पर शक न करता हो । नंबर तीन, सृष्टि में कोई ऐसी नौजवान बीवी पैदा नहीं हुई जो अपने उम्रदराज खाविंद को धोखा न देती हो ।”
“ओह शटअप !”
“आपस की बात है, स्वीटहार्ट, कोई नुक्स नहीं निकाल रहा मैं तुम्हारे में । जहां तक मेरा सवाल है, मुझे तो हरजाई किस्म की औरतें खास पसंद आती हैं ।”
“क्यों ? दूसरी किस्म की औरतें नहीं पसंद आती ?”
“इसके अलावा कोई दूसरी किस्म भी होती है औरतों की ?”
“फिर लगे बहकने ।”
“खैर ! बात ये हो रही थी कि बहन के सदके मौज-मेले का तुम्हारा सिलसिला आम चलता होगा ।”
उसने उत्तर न दिया ।
“और तुम्हारे सदके बहन का सिलसिला ?”
“आई सैड, शटअप ।”
“वैसे कौन है वो खुशनसीब ? कौन है वो मुकद्दर का सिकंदर जिसे बहन के सदके मदान की खीर में चम्मच मारने का मौका देती हो ?”
“अभी तुम क्या करके हटे हो ?”
“मेरा मतलब है स्टेडी कौन है ? मैं तो कैजुअल लेबर हुआ न ! तुम्हारी खिदमत बजा लाने की पक्की नौकरी किसकी लगी हुई है ?”
“ऐसा कोई नहीं है ।”
“यानी कि बताना नहीं चाहतीं ?”
“अरे, कहा न, ऐसा कोई नहीं है ।”
“ओ के । वो किस्सा फिर कभी सही । अब तुम ये बताओ कि जब तुम फ्लैग-स्टाफ रोड पहुंची थी तो तुम्हारी बहन घर पर थी ?”
“नहीं । लेकिन वो मेरे सामने ही वहां पहुंच गई थी ।”
“कहां से ?”
“जहां कहीं भी वो गई थी । न मैंने उससे इस बाबत सवाल किया था और न उसने खुद बताया था । हां, इतना उसने जरूर कहा था कि एकाएक ही उसे बहुत जरूरी काम पड़ गया था, जिसकी वजह से वो थोड़ी देर के लिए करीब ही कहीं गई थी ।”
“बहन के पास कितनी देर ठहरी तुम ?”
“यही कोई पंद्रह-बीस मिनट ।”
“और कहां गई थीं ?”
“कहीं भी नहीं ? वहां से उठी तो सीधे यहां आई थी ।”
“कब पहुंची यहां ?”
“मुझे टाइम का कोई अंदाजा नहीं ।”
“मदान कहता है तुम साढ़े नौ बजे लौटी थीं ।”
“उसने घड़ी देखी होगी ।”
“पुनीत खेतान से वाकिफ हो ?”
“वो मदान का लीगल एडवाइजर है, फाइनांशल एडवाइजर भी है । टैक्स भरने के लिए आडिट-वाडिट का काम भी वही देखता है ।”
“यानी कि वाकिफ हो ।”
“हां । वो यहां आता रहता है ।”
“क्योंकि मदान उसका क्लायंट है ?”
“हां ।”
“बस इसी वजह से तुम्हारी उससे वाकफियत है ?”
“और क्या वजह होगी ?”
“तुम बताओ ।”
“और कोई वजह नहीं ।”
“यानी कि मदान से शादी के बाद ही तुम्हारी पुनीत खेतान से वाकफियत हुई ?”
“जाहिर है ।”
“फिर तो” मैं बड़े सहज स्वर में बोला, “जरूर वो लड़की तुम्हारी हमनाम और हमशक्ल होगी जो इसी पुनीत खेतान के ऑफिस में टाइपिस्ट हुआ करती थी ।”
वो सकपकाई ।
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