RE: Desi Chudai Kahani मकसद
पिंकी ने फिर मेरे पास आना ही आना था, मेरी जेब में मौजूद वीडियो कसेट में उसकी जान जो अटकी हुई थी ।
कुछ मामलों में आपका खादिम बहुत संतोषी जीव है । बंदा एक दिन में दो भोग नहीं लगाता ।
अपने फ्लैट में पहुंचकर मैंने कपड़े तब्दील किए और फिर बैडरूम में जाकर विडियो फिल्म चलाई । विडियो फिल्म आधे से ज्यादा खाली निकली । बाकी में मैने पहले पिंकी की शशिकांत से शादी होते देखी और फिर पहले मैटकाफ रोड पर शशिकांत के विडियो पर देखे सीन का विस्तृत संस्करण देखा ।
अगले रोज नौ बजे मैने लेखराज मदान को उसके अपार्टमंट पर फोन किया ।
“ओए, कोल्ली,” मेरी आवाज सुनते ही वो भड़ककर बोला, “कहां मर गया था ?”
“क्या हुआ ?” मैं बोला ।
“पूछता है क्या हुआ । ओए, सारी रात तेरे फोन का इन्तजार करता रहा मैं ।”
“मैं पहुंचा तो था तुम्हारे फ्लैट पर ।”
“क्या फायदा तब पहुंचने का । तब तो अभी मैं पुलिस के साथ फंसा हुआ था ।”
“अब मुझे क्या पता था ?”
“'कहता है क्या पता था ! वीर मेरे, फोन तो फिर भी करना चाहिए था । कुछ बताने के लिए नहीं तो कुछ पूछने के लिए ही सही ।”
“सॉरी । अब पूछ लेता हूं । कैसी बीती पुलिस के साथ ?”
“बढ़िया” अब उसके लहजे में तब्दीली आई, “खास कुछ नहीं पूछा उन्होंने मेरे से । मैंने यही कहा कि मैं तो घर पर था । बीमार था । लेटा पड़ा था ।”
“वो मान गए ? होटल में तुम्हारे बयान की तसदीक करने नहीं आए ?”
“अभी तो नहीं आए लेकिन तसदीक हो जाएगी । होटल से भी और बीवी से भी । मेरी गारंटी ।”
“फिर क्या बात है ?”
“तू क्या कर रहा है ?”
“बहुत कुछ कर रहा हूं ।”
“ओए, कुछ नतीजा भी निकल रहा है कि नहीं ?”
“निकलेगा ।”
“यानी कि अभी नहीं निकला ।”
“अभी वक्त ही कितना हुआ है !”
“वीर मेरे, फिर भी ।”
“सुनो, सुनो । पहले मेरी सुनो । पहले उसकी सुननी चाहिए जो फोन करता है ।”
“सुनाओ ।”
“लाश का पोस्टमार्टम हो गया ?”
“अभी नहीं । दस बजे होगा । तफ्तीश कर रहे यादव नाम के इंस्पेक्टर ने मुझे ग्यारह बजे पुलिस हैडक्वार्टर बुलाया है ।”
“गुड ! मैं भी वहीं पहुंचूंगा । मुझे बाहर ही मिलना । मेरे पहुंचने से पहले भीतर इंस्पेक्टर यादव के ऑफिस में मत जाना ।”
“क्यो ?”
“मैं उससे मिलना चाहता हूं । मिलने का मुझे बहाना चाहिए । खुद ही पहुंच जाऊंगा तो वो शक करेगा कि जरूर मुझे कत्ल की खबर है । तुम साथ ले के जाओगे तो शक तो वो फिर भी करेगा लेकिन तब ये सोचेगा कि तुमने अपने भाई के कत्ल की तफ्तीश के लिए मेरी सेवाएं प्राप्त की हैं और जो कुछ मुझे मालूम है वो तुमने लाश की बरामदी के बाद बताया है ।”
“मैं उसे यही कहूं कि तू मेरे लिए काम आकर रहा है ?”
“नहीं । तुम कहना कि मैं तुम्हारा दोस्त हूं और दोस्त के तौर पर ही तुम्हारे साथ आया हूं । आगे जो नतीजा वो निकालता है, निकालता रहे ।”
“वो तुझे जानता है ?”
“बहुत अच्छी तरह से ।”
“फिर तो जरा भांपने की कोशिश करना कि केस की बाबत उसकी क्या राय है ।”
“और क्या मैं उसकी सेहत का हाल पूछने वहां जाना चाहता हूं ? यही इरादा है मेरा ।”
“ठीक है । ग्यारह बजे मैं तुझे हैडक्वार्टर के बाहर मिलूंगा ।”
“ठीक है ।”
“एक बात और, कोल्ली ।”
“फिर कोल्ली !”
“सुधीर ।”
“बोलो ।”
“भई, मेरी गैरहाजिरी में तेरा मेरे यहां आना मैं पसंद नहीं करता ।”
“और मैं तुम्हारी हाजिरी में भी वहां आना पसंद नहीं करता । तभी तो तुम्हारे साथ चलने वहां नहीं आ रहा । तुम्हें पुलिस हैडक्वार्टर बुला रहा हूं ।”
“तू तो खफा हो रहा है ।”
“बिल्कुल नहीं । वैसे एक बात बताओ । ये पाबंदी, मेरा मतलब है तुम्हारी ये नापसंदगी, सिर्फ मेरे लिए है या हर किसी के लिए है ?”
“हर किसी के लिए है । औरों को ये बात मालूम है । तुझे अब बता रहा हूं ।”
“घर आए-गए के बारे में बीवी से ही खबर लगती होगी ?”
“हां ।”
“वो बताए तो बताए, न बताए तो न बताए !”
“की मतलब ?”
“कुछ नहीं । नमस्ते ।”
मैंने लाइन काट दी ।
अपनी सैकेंड हैंड फिएट कार पर मैं नेहरू प्लेस में स्थित यूनिवर्सल इन्वेस्टीगेशन्स के नाम से जाने वाले अपने ऑफिस में पहुंचा ।
रजनी वहां पहले से मौजूद थी और हमेशा की तरह जगमग जगमग कर रही थी ।
उसे भीतर आने को कहता हुआ मैं अपने निजी कक्ष में पहुंचा । वो भी मेरे पीछे-पीछे ही वहां पहुंची । वो शलवार कमीज पहने थी और निहायत कमसिन लग रही थी ।
“दरवाजा भीतर से बंद करके कुंडी लगा दे ।” मैं सहज भाव से बोला ।
“वो किसलिए ?” वो बड़ी मासूमियत से बोली ।
“ताकि बिना विघ्न बाधा आकर मेरी गोद में बैठ सके ।”
“शर्म कीजिए । अभी तो दिन चढा है ।”
“जैसे शाम को कहता तो आके गोद मे बैठ ही जाती ।”
वो हंसी ।
“एक बात तो है !” मैं अपलक उसे निहारता हुआ बोला ।
“क्या ?” वो बोली ।
“बहुत खूबसूरत है तू ।”
“हां ।”
“क्या हां ?”
“बहुत खूबसूरत हूं मैं ।”
“हद है मॉडेस्टी तो छू तक नहीं गई तुझे ।”
“क्यों ? क्या डुआ ?”
“अरे, यूं हामी भरते हैं ? यूं गोली की तरह दनदना देते हैं हां ।”
“तो और क्या करते हैं ?”
“अरे, शरमाकर, सकुचाकर निगाह झुकाकर, झुकी निगाहें फड़फड़ाकर कहते हैं कि ऐसी तो कोई बात नहीं ।”
“लेकिन जब बात ऐसी ही हो तो ?”
“अब कौन मुकाबला करे तेरी कतरनी का सवेरे-सवेरे । बैठ ।”
“गोद में आकर ?”
“अरे, कहीं भी मर ।”
वो मेरे सामने एक कुर्सी पर बैठ गई ।
“अब राजी है ?” मैं भुनभुनाया ।
“हां ।” वो बड़े इत्मीनान से बोली ।
“एक बात बता ?”
“पूछिए ।”
“मेरी पहुंच से बाहर रहना तू अपनी खूबी समझती है ?”
“हां ।”
“कहती है हां ।” मैं असहाय भाव से गर्दन हिलाता हुआ बोला ।
“जी हां ।”
“मूर्ख है तू । अरे, आदमी के बच्चे को इतना नहीं हड़काना चाहिए कि वो गेरुवें वस्त्र धारण करके हर की पौड़ी पर जा बैठने की सोचने लगे ।”
वो होंठ दबाकर हंसी ।
फिर मैंने अपनी जेब से मदान का दिया वो लिफाफा निकाला जिसमें पचास हजार रूपये के नोट थे और उसके नाम मेरे जाली हस्ताक्षरों वाली चिट्ठी थी । मैंने लिफाफा उसे सौंपा ।
“क्या है ?” वो तत्काल गंभीर होती हुई बोली ।
“खोल, देख ।”
उसने लिफाफा खोला और नोट और चिट्ठी निकाली । वो चिट्ठी पढने लगी । मैंनै एक सिगरेट सुलगा लिया ।
चिट्ठी पढ चुकने के वाद उसने हैरानी से मेरी तरफ देखा ।
“आप वाकई जा रहे हैं ?” वो बोली ।
“पागल है !” मैं बोला, “जा रहा होता तो ये चिट्ठी मैं तुझे खुद देता ! जब रूबरू मुलाकात मुमकिन हो तो चिट्ठी का क्या मतलब ?”
“तो फिर ?”
“रजनी, मेरा सवाल ये है कि अगर ये चिट्ठी तुझे डाक से मिलती या कोई तेरे पास इसे लेके आता तो
“मेरा भी यही ख्याल था । मेरे दुश्मनों का भी ।”
“जी !”
“ये चिट्ठी बोगस है । मैंने नहीं लिखी । इस पर हुए मेरे हस्ताक्षर जाली हैं ।”
“ऐसा क्यों ?” उसने बड़ी मासूमियत से पूछा ।
मैंने उसे चिट्ठी और नोटों से सम्बंधित किस्सा सुनाया ।
“हाय राम !” वो बोली, “तभी कल आप फोन पर कह रहे थे कि आप मरते-मरते बचे हैं ।”
“और तू मेरा मजाक उड़ा रही थी ।”
“अब मुझे क्या पता था कि सच में ही ......”
“खैर छोड़ । और मतलब की बात सुन । आगे से कभी तेरे पास मेरा कोई सन्देश या चिट्ठी आए तो उसकी तसदीक किए बिना उस पर अमल शुरू न कर देना समझ गईं ।”
“हां ।”
“आखिर एक डिटेक्टिव की सैक्रेटरी है, छोटी-मोटी धोखाधडियों से खुद भी सावधान रहना सीख ।”
“सीखूंगी ।”
“एक बात बता ।”
“पूछिए ।”
“मैं मर जाता तो तुझे अफसोस होता ?”
तब पहली बार मैंने उसके चेहरे पर गहन अनुराग के भाव देखे लेकिन वो तत्काल ही एक छलावे की तरह लुप्त हो गए ।
“अभी तो नहीं होता” फिर वो सपाट सूरत के साथ बोली, “अलबत्ता एक साल बाद जरूर होता ।”
“क्या मतलब ?”
“चिट्ठी की तरह अगर ये नोट जाली नहीं है तो साल-भर की तनखाह तो हासिल थी ही मुझे । साल-भर क्या अफसोस होता ।”
|