प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ
07-04-2017, 12:36 PM,
#45
RE: प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ
दो नम्बर का बदमाश



बचपने से जब भी ज़ोरों की बारिश होती या ज़ोर की बिजली कड़कती थी तो मैं डर के मारे घर में दुबक जाया करता था। पर उस रात की बारिश ने मुझे रोमांच से लबालब भर दिया था। आज भी जब ज़ोरों की बारिश होती है, और बिजली कड़कती है, मुझे एक शेर याद आ जाता है:

ऐ ख़ुदा इतना ना बरस कि वो आ ना पाएँ !
आने के बाद इतना बरस कि वो जा ना पाएँ !!

जून महीने के आख़िरी दिन चल रहे थे। मधु (मेरी पत्नी, मुधर) गर्मियों की छुट्टियों में अपने मायके गई हुई थी। मैं अकेला ड्राईंग रूम मे खिड़की के पास बैठा मिक्की के बारे में ही सोच रहा था। (मिक्की मेरे साले की लड़की है)। पिछले साल वह एक सड़क-दुर्घटना का शिकार हो गई थी और हमें रोता-बिलखता छोड़ कर चली गई थी। सच पूछो तो पिछले एक-डेढ़ साल में कोई भी दिन ऐसा न बीता होगा कि मैंने मिक्की को याद नहीं किया हो। वो तो मेरा जैसे सब कुछ लूट कर ही ले गई थी। मैं उसकी वही पैन्टी और रेशमी रुमाल हाथों में लिए बैठा उसकी याद में आँसू बहा रहा था। हर आहट पर मैं चौंक सा जाता और लगता कि जैसे मिक्की ही आ गई है।

दरवाजे पर जब कोई भी आहट सी होती है तो लगता है कि तुम आई हो
तारों भरी रात में जब कोई जुगनू चमकता है लगता है तुम आई हो
उमस भरी गर्मी में जब पुरवा का झोंका आता है तो लगता है तुम आई हो
दूर कहीं अमराई में जब भी कोई कोयल कूकती है लगता है कि तुम आई हो !!

उस दिन रविवार था। सारे दिन घर पर ही रहा। पहले दिन जो बाज़ार से ब्लू-फिल्मों की ४-५ सीडी लाया था उन्हें कम्प्यूटर में कॉपी किया था। एक-दो फ़िल्में देखी भी, पर मिक्की की याद आते ही मैंने कम्प्यूटर बन्द कर दिया। दिन में गर्मी इतनी ज्यादा कि आग ही बरस रही थी। रात के कोई १० बजे होंगे। अचानक मौसम बदला और ज़ोरों की आँधी के साथ हल्की बारिश शुरु हो गई। हवा के एक ठंडे झोंके ने मुझे जैसे सहला सा दिया। अचानक कॉलबेल बजी और लगभग दरवाज़ा पीटते हुए कोई बोला, “दीदीऽऽऽ !! … जीजूऽऽऽ.. !! दरवाज़ा जल्दी खोलो… दीदी…!!!?” किसी लड़की की आवाज थी।

मिक्की जैसी आवाज़ सुनकर मैं जैसे अपने ख़्यालों से जागा। इस समय कौन आ सकता है? मैंने रुमाल और पैन्टी अपनी जेब में डाली और जैसे ही दरवाज़े की ओर बढ़ा, एक झटके के साथ दरवाज़ा खुला और कोई मुझ से ज़ोर से टकराया। शायद चिटकनी खुली ही रह गई थी, दरवाज़ा पीटने और ज़ोर लगाने के कारण अपने-आप खुल गया और हड़बड़ाहट में वो मुझसे टकरा गई। अगर मैंने उसे बाँहों में नहीं थाम लिया होता तो निश्चित ही नीचे गिर पड़ती। इस आपा-धापी में उसके कंधे से लटका बैग (लैपटॉप वाला) नीचे ही गिर गया। वो चीखती हुई मुझसे ज़ोर से लिपट सी गई। उसके बदन से आती पसीने, बारिश और जवान जिस्म की खुशबू से मेरा तन-मन सब सराबोर होता चला गया। उसके छोटे-छोटे उरोज मेरे सीने से सटे हुए थे। वो रोए जा रही थी। मैं हक्का-बक्का रह गया, कुछ समझ ही नहीं पाया।

कोई २-३ मिनटों के बाद मेरे मुँह से निकला “क्क..कौन… अरे.. नन्न्नन.. नि.. निशा तू…??? क्या बात है… अरे क्या हुआ… तुम इतनी डरी हुई क्यों हो?” ओह ये तो मधु की कज़िन निशा थी। कभी-कभार अपने नौकरी के सिलसिले में यहाँ आया करती थी, और रात को यहाँ ठहर जाती थी। पहले मैंने इस चिड़िया पर ध्यान ही नहीं दिया था।

आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि इतनी मस्त-हसीन लौण्डिया की ओर मेरा ध्यान पहले क्यों नहीं गया। इसके दो कारण थे। एक तो वो सर्दियों में एक-दो बार जब आई थी तो वह कपड़ों से लदी-फदी थी, दूसरे उसकी आँखें पर मोटा सा चश्मा। आज तो वह कमाल की लग रही थी। उसने कॉन्टैक्ट लेंस लगवा लिए थे। कंधों के ऊपर तक बाल कटे हुए थे। कानों में सोने की पतली बालियाँ। जीन्स पैन्ट में कसे नितम्ब और खुले टॉप से झलकते काँधारी अनार तो क़हर ही ढा रहे थे। साली अपने-आप को झाँसी की शेरनी कहती है पर लगती है नैनीताल या अल्मोड़ा की पहाड़ी बिल्ली।

ओह… सॉरी जीजू… मधु दीदी कहाँ हैं?… दीदी… दीदी…” निशा मुझ से परे हटते हुए इधर-उधर देखते हुए बोली।

“ओह दीदी को छोड़ो, पहले यह बताओ तुम इतनी रात गए बारिश में डरी हुई… क्या बात है??”

“वो… वो एक कुत्ता…”

“हाँ-हाँ, क्या हुआ? तुम ठीक हो?”

निशा अभी भी डरी हुई खड़ी थी। उसके मुँह से कुछ नहीं निकल रहा था। मैंने दरवाज़ा बन्द किया और उसका हाथ पकड़ कर सोफ़े पर बिठाया, फिर पूछा, “क्या बात है, तुम रो क्यों रही थीं?”

जब उसकी साँसें कुछ सामान्य हुई तो वह बोली, “दरअसल सारी मुसीबत आज ही आनी थी। पहले तो प्रेज़ेन्टेशन में ही देर हो गई थी, और फिर खाना खाने के चक्कर में ९ बज गए। कार भी आज ही ख़राब होनी थी। बस-स्टैण्ड गई तो आगरा की बस भी छूट गई।” शायद इन दिनों उसकी पोस्टिंग आगरा में थी।

मैं इतना तो जानता था कि वह किसी दवा बनाने वाली कम्पनी में काम करती है और मार्केटिंग के सिलसिले में कई जगह आती-जाती रहती है। पर इस तरह डरे हुए, रोते हुए हड़बड़ा कर आने का कारण मेरी समझ में नहीं आया। मैंने सवालिया निगाहों से उसे देखा तो उसने बताया।

“वास्तव में महाराजा होटल में हमारी कम्पनी का एक प्रेज़ेन्टेशन था। सारे मेडिकल रिप्रेज़ेन्टेटिव आए हुए थे। हमारे दो नये उत्पाद भी लाँच किए गए थे। कॉन्फ्रेन्स ९ बजे खत्म हुई और खाना खाने के चक्कर में देर हो गई। वापस घर जाने का साधन नहीं था। यहाँ आते समय रास्ते में ऑटो ख़राब हो गई। इस बारिश को भी आज ही आना था। रास्ते में आपके घर के सामने कुत्ता सोया था। बेख्याली में मेरा पैर उसके ऊपर पड़ गया और वह इतनी ज़ोर से भौंका कि मैं डर ही गई।” एक साँस में निशा ने सब बता दिया।

“अरे कहीं काट तो नहीं लिया?”

“नहीं काटा तो नहीं…! दीदी दिखाई नहीं दे रही?”

“ओह… मधु तो जयपुर गई हुई है, पिछले १० दिनों से !”

“तभी उनका मोबाईल नहीं मिल रहा था।”

“तो मुझे ही कर लिया होता।”

“मेरे पास आपका नम्बर नहीं था।”

“हाँ भई, आप हमारा नम्बर क्यों रखेंगी… हम आपके हैं ही कौन?”

“आप ऐसा क्यों कहते हैं?”

“भई तुम तो दीदी के लिए ही आती हो हमें कौन पूछता है?”

“नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।”

“इसका मतलब तुम मेरे लिए भी आती हो।” मैं भला मज़ाक का ऐसा सुनहरा अवसर कैसे छोड़ता। वो शरमा गई। उसने अपनी निगाहें नीची कर लीं। थोड़ी देर कुछ सोचती रही, फिर बोली, “ओह, दीदी तो है नहीं तो मैं किसी होटल में ही ठहर जाती हूँ!”

“क्यों, यहाँ कोई दिक्क़त है?”

“वो… वो… आप अकेले हैं और मैं… मेरा मतलब… दीदी को पता चलेगा तो क्या सोचेगी?”

“क्यों क्या सोचेगी, क्या तुम इससे पहले यहाँ नहीं ठहरी?”

“हाँ पर उस समय दीदी घर थी।”

“क्या हम इतने बुरे हैं?”

“ओह.. वो बात नहीं है।”

“तो फिर क्या बात है?”

“वो.. .वो… मेरा मतलब क्या है कि एक जवान लड़की का इस तरह ग़ैर मर्द के साथ रात में… अकेले?? मेरा मतलब?? वो कुछ समझ नहीं आ रहा।” उसने रोनी सी सूरत बनाते हुए कहा।

“ओह.. अब मैं समझा, तुम मुझे ग़ैर समझती हो या फिर तुम्हें अपने आप पर ही विश्वास नहीं है।”

“नहीं ऐसी बात तो नहीं है।”

“तो फिर बात यह है कि मैं एक हिंसक पशु हूँ, एक गुंडा-बदमाश, मवाली हूँ। तुम जैसी अकेली लड़की को पकड़कर तुम्हें खा ही जाऊँगा या कुछ उल्टा-सीधा कर बैठूँगा? क्यों है ना यही बात?”

“ओह जीजू, आप भी बात का बतंगड़ बना रहे हैं। मैं तो यह कह रही थी आपको बेकार परेशानी होगी।”

“अरे इसमे परेशानी वाली क्या बात है?”

“फिर भी एकता कपूर… मेरा मतलब वो… दीदी…?” वो कुछ सोचते हुए सी बोली।

“अरे जब तुम्हें कोई समस्या नहीं है, मुझे नहीं, तो फिर जयपुर बैठी मधु को क्या समस्या हो सकती है। और फिर आस-पड़ोस वाले किसी से कोई फिक्र नहीं करते हैं। अगर अपना मन साफ़ है तो फ़िर किसी का क्या डर? क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ?” मैंने कहा। मैं इतना बढ़िया मौक़ा और हाथ में आई मुर्गी को ऐसे ही हवा में कैसे उड़ जाने देता।

मुझे तो लगा जैसे मिक्की ही मेरे पास सोफ़े पर बैठी है। वही नाक-नक्श, वही रूप-रंग और कद-काठी, वही आवाज़, वही नाज़ुक सा बदन, बिल्कुल छुईमुई सी कच्ची-कली जैसी। बस दोनों में फ़र्क इतना था कि निशा की आँखें काली हैं और मिक्की की बिल्लौरी थीं। दूसरा निशा कोई २४-२५ की होगी जबकि मिक्की १३ की थी। मिक्की थोड़ी सी गदराई हुई लगती थी जबकि निशा दुबली-पतली छरहरी लगती है। कमर तो ऐसी कि दोनों मुट्ठियों में ही समा जाए. छोटे-छोटे रसकूप (उरोज)। होंठ इतने सुर्ख लाल, मोटे-मोटे हैं तो उसके निचले होंठ मेरा मतलब है कि उसकी बुर के होंठ कैसे होंगे। मैं तो सोच कर ही रोमांचित हो उठा। मेरा पप्पू तो छलांगे ही लगाने लगा। उसके होठों के दाहाने (चौड़ाई) तो २.५-३ इंच का ही होगा। हे लिंग महादेव, अगर आज यह चिड़िया फँस गई तो मेरी तो लॉटरी ही लग जाएगी। और अगर ऐसा हो गया तो कल सोमवार को मैं ज़रूर जल और दूध तुम्हें चढ़ाऊँगा। भले ही मुझे कल छुट्टी ही क्यों ना लेनी पड़े। पक्का वादा।

प्रेम आश्रम वाले गुरुजी ने अपने पिछले विशेष प्रवचन में सच ही फ़रमाया था, “ये सब चूतें, गाँड और लंड कामदेव के हाथों की कठपुतलियाँ हैं। कौन सी चूत और गाँड किस लण्ड से, कब, कहाँ, कैसे, कितनी देर चुदेंगी, कोई नहीं जानता।”

“इतने में ज़ोरों की बिजली कड़की और मूसलाधार बारिश शुरु हो गई। निशा डर के मारे मेरी ओर सरक गई। मुझे एक शेर याद आ गया:

लिपट जाते हैं वो बिजली के डर से !
या इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे !!

उसके भींगे बदन की खुशबू से मैं तो मदहोश ही हुआ जा रहा था। गीले कपड़ों में उसका अंग-अंग साफ दिख़ रहा था। शायद उसने मुझे घूरते हुए देख लिया था। वो कुछ सोचते हुए बोली, “मैं तो पूरी ही भीग गई।”

“मैं समझ गया, वो कपड़े बदलना या नहाना चाहती है, पर उसके पास कपड़े नहीं हैं, मेरे से कपड़े माँगते हुए शायद कुछ संकोच कर रही है। मैंने उससे कहा, “कोई बात नहीं, तुम नहा लो, मैं मधु की साड़ी निकाल देता हूँ।”

वो फिर सोचने लगी, “पर वो… वो… साड़ी तो मुझे बाँधनी नहीं आती। मैंने मन में कहा, “मेरी जान तुम तो बिना साड़ी-कपड़ों के ही अच्छी लगोगी। तुम्हें कपड़े कौन कमबख़्त पहनाना चाहता है” पर मैंने कहा -

“कोई बात नहीं, कोई पैन्ट और टॉप शर्ट या नाईटी वगैरह भी है, आओ मेरे साथ।” मैंने उसकी बाँह पकड़ी और अपने बेडरूम की ओर ले जाने लगा। आहहह… उसकी नरम नाज़ुक बाँहें मखमल जैसी मुलायम चिकनी थीं। अगर बाँहें ऐसी चिकनी हैं तो पिर जाँघें कैसी होंगी?
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RE: प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ - by sexstories - 07-04-2017, 12:36 PM

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