RE: Vasna Sex Kahani बदनाम रिश्ते
राखी भी हाथ धोने के लिये उठ गई। हाथ-मुंहा धोने के बाद, राखी फिर रसोई में चली गई, और बिखरे पडे सामानो को संभालने लगी। मैने कहा,
"छोडोना राखी, चलो सोने जल्दी से। यहां बहुत गरमी लग रही है।"
"तु जा ना, मैं अभी आती। रसोई-घर गंदा छोडना अच्छी बात नही है।"
मुझे तो जल्दी से राखी के साथ सोने की हडबडी थी कि, कैसे राखी से चिपक के उसके मांसल बदन का रस ले सकु। पर राखी रसोई साफ करने में जुटी हुई थी। मैने भी रसोई का सामान संभालने में उसकी मदद करनी शुरु कर दी। कुछ ही देर में सारा सामान, जब ठीक-ठाक हो गया तो हम दोनो रसोई से बाहर आ गये। राखी ने कहा,
"जा, दरवाजा बंध कर दे।"
मैं दौड कर गया और दरवाजा बंध कर आया। अभी ज्यादा देर तो नही हुई थी, रात के ९:३० ही बजे थे। पर गांव में तो ऐसे भी लोग जल्दी ही सो जाया करते है। हम दोनो बहिन -भाई छत पर आके बिछावन पर लेट गये। बिछावन पर राखी भी, मेरे पास ही आ के लेट गई थी। राखी के इतने पास लेटने भर से मेरे शरीर में, एक गुद-गुदी सी दौड गई। उसके बदन से उठनेवाली खूश्बु, मेरी सांसो में भरने लगी, और मैं बेकाबु होने लगा था। मेरा लंड धीरे-धीरे अपना सिर उठाने लगा था। तभी राखी मेरी ओर करवट ले के घुमी और पुछा,
"बहुत थक गये होना ?"
"हां राखी, जिस दिन नदी पर जाना होता है, उस दिन तो थकावट ज्यादा हो ही जाती है।"
"हां, बडी थकावट लग रही है, जैसे पुरा बदन टूट रह हो।"
"मैं दबा दुं, थोडी थकान दूर हो जायेगी।"
"नही रे, रहने दे तु, तु भी तो थक गया होगा।""नही राखी उतना तो नही थका, कि तेरी सेवा ना कर सकु।"
राखी के चेहरे पर एक मुस्कान फैल गई, और वो हसते हुए बोली,
"दिन में इतना कुछ हुआ था, उससे तो तेरी थकान और बढ गई होगी।"
"हाये, दिन में थकान बढने वाला तो कुछ नही हुआ था।"
इस पर राखी थोडा-सा और मेरे पास सरक कर आई। राखी के सरकने पर मैं भी थोडा-सा उसकी ओर सरका। हम दोनो की सांसे, अब आपस में टकराने लगी थी। राखी ने अपने हाथो को हल्के से मेरी कमर पर रखा और धीरे धीरे अपने हाथो से मेरी कमर और जांघो को सहलाने लगी। राखी की इस हरकत पर मेरे दिल की धडकन बढ गई, और लंड अब फुफकारने लगा था। राखी ने हल्के-से मेरी जांघो को दबाया। मैने हिम्मत कर के हल्के-से अपने कांपते हुए हाथो को बढा के राखी की कमर पर रख दिया। राखी कुछ नही बोली, बस हल्का-सा मुस्कुरा भर दी। मेरी हिम्मत बढ गई और मैं अपने हाथो से राखी की नंगी कमर को सहलाने लगा। राखी ने केवल पेटिकोट और ब्लाउस पहन रखा था। उसके ब्लाउस के उपर के दो बटन खुले हुए थे। इतने पास से उसकी चुचियों की गहरी घाटी नजर आ रही थी और मन कर रह था जल्दी से जल्दी उन चुचियों को पकड लुं। पर किसी तरह से अपने आप को रोक रखा था। राखी ने जब मुझे चुचियों को घुरते हुए देखा तो मुस्कुरातेहाये, राखी तुम भी क्या बात कर रही हो, मैं कहां घुर रह था ?"
"चल झुठे, मुझे क्या पता नही चलता ? रात में भी वही करेगा, क्या ?"
"क्या राखी ?"
"वही, जब मैं सो जाउन्गी तो अपना भी मसलेगा, और मेरी छातियों को भी दबायेगा।"
"हाय राखी।"
"तुझे देख के तो यही लग रहा है कि, तु फिर से वही हरकत करने वाला है।"
"नही, राखी।"
मेरे हाथ अब राखी कि जांघो को सहला रहे थे।
"वैसे दिन में मजा आया था ?",
पुछ कर, राखी ने हल्के-से अपने हाथो को मेरी लुन्गी के उपर लंड पर रख दिया। मैने कहा,
"हाये राखी, बहुत अच्छा लगा था।"
"फिर करने का मन कर रह है, क्या ?"
"हाये, राखी।"
इस पर राखी ने अपने हाथो का दबाव जरा-सा, मेरे लंड पर बढा दिया और हल्के हल्के दबाने लगी। राखी के हाथो का स्पर्श पा के, मेरी तो हालत खराब होने लगी थी। ऐसा लगा रह था कि, अभी के अभी पानी निकल जायेगा। तभी राखी बोली,
"जो काम, तु मेरे सोने के बाद करने वाला है, वो काम अभी कर ले। चोरी-चोरी करने से तो अच्छा है कि, तु मेरे सामने ही कर ले।"
मैं कुछ नही बोला और अपने कांपते हाथो को, हल्के-से राखी की चुचियों पर रख दिया। राखी ने अपने हाथो से मेरे हाथो को पकड कर, अपनी छातियों पर कस के दबाया और मेरी लुन्गी को आगे से उठा दिया और अब मेरे लंड को सीधे अपने हाथो से पकड लिया। मैने भी अपने हाथो का दबाव उसकी चुचियों पर बढा दिया। हुए बोली,
"क्या इरादा है तेरा ? शाम से ही घुरे जा रह है, खा जायेगा क्या ?" मेरे अंदर की आग एकदम भडक उठी थी, और अब तो ऐसा लगा रह था कि, जैसे इन चुचियों को मुंह में ले कर चुस लुं। मैने हल्के-से अपनी गरदन को और आगे की ओर बढाया और अपने होठों को ठीक चुचियों के पास ले गया । राखी शायद मेरे इरादे को समझ गई थी। उसने मेरे सिर के पिछे हाथ डाला और अपनी चुचियों को मेरे चेहरे से सटा दिया। हम दोनो अब एक-दुसरे की तेज चलती हुई सांसो को महसुस कर रहे थे। मैने अपने होठों से ब्लाउस के उपर से ही, राखी की चुचियों को अपने मुंह में भर लिया और चुसने लगा। मेरा दुसरा हाथ कभी उसकी चुचियों को दबा रह था, कभी उसके मोटे-मोटे चुतडों को।राखी ने भी अपना हाथ तेजी के साथ चलना शुरु कर दिया था, और मेरे मोटे लंड को अपने हाथ से मुठीया रही थी। मेरा मजा बढता जा रहा था, तभी मैने सोचा ऐसे करते-करते तो राखी फिर मेरा निकाल देगी, और शायद फिर कुछ देखने भी न दे। जबकि मैं आज तो राखी को पुरा नंगा करके, जी भर के उसके बदन को देखना चाहता था। इसलिये मैने राखी के हाथो को पकड लिया और कहा,
"राखी, रुको।"
"क्यों, मजा नही आ रह है, क्या ? जो रोक रहा है।"
" राखी, मजा तो बहुत आ रह है, मगर ?"
"फिर क्या हुआ ?"
"फिर राखी, मैं कुछ और करना चाहता हुं। ये तो दिन के जैसे ही हो जायेगा।"
इस पर राखी मुस्कुराते हुए पुछा,
"तो तु और क्या करना चाहता है ? तेरा पानी तो ऐसे ही निकलेगा ना, और कैसे निकलेगा ?"
" नही राखी, पानी नही निकालना मुझे।"
"तो फिर क्या करना है ?"
"राखी, देखना है।"
"क्या देखना है, रे ?" " राखी, ये देखना है।",
कह कर, मैने एक हाथ सीधा राखी की बुर पर रख दिया।
" बदमाश, ये कैसी तमन्ना पाल ली, तुने ?"
"राखी, बस एक बार दिखा दो, ना।"
"नही, ऐसा नही करते। मैने तुम्हे थोडी छुट क्या दे दी, तुम तो उसका फायदा उठाने लगे।"
"राखी, ऐसे क्यों कर रही हो तुम ? दिन में तो कितना अच्छे से बातें कर रही थी।"
"नही, मैं तेरी बहिन हुं,भाई ।"
"राखी, दिन में तो तुमने कितना अच्छा दिखाया भी था, थोडा बहुत ?"
"मैने कब दिखाया ? झुठ क्यों बोल रहा है ?"
"राखी, तुम जब पेशाब करने गई थी, तब तो दिखा रही थी।"
"हाये राम, कितना बदमाश है रे, तु ? मुझे पता भी नही लगा, और तु देख रहा था। हाय दैया, आज कल के लौंडो का सच में कोई भरोसा नही। कब अपनी बहिन पर बुरी नजर रखने लगे, पता ही नही चलता ?"
"राखी, ऐसा क्यों कह रही हो ? मुझे ऐसा लगा जैसे, तुम मुझे दिखा रही हो, इसलिये मैने देखा।"
"चल हट, मैं क्यों दिखाउन्गी ? कोई बहिन ऐसा करती है, क्या ?"
"हाय, मैने तो सोचा था कि, रात में पुरा देखुन्गा। "
"ऐसी उल्टी-सीधी बातें मत सोचा कर, दिमाग खराब हो जायेगा।"
" ओह बहिन, दिखा दो ना, बस एक बार। खाली देख कर सो जाउन्गा।"पर बहिन ने मेरे हाथो को झटक दिया, और उठकर खडी हो गई। अपने ब्लाउस को ठीक करने के बाद, छत के कोने की तरफ चल दी। छत का वो कोना घर के पिछवाडे की तरफ पडता था, और वहां पर एक नाली (मोरी) जैसा बना हुआ था, जिस से पानी बह कर सीधे नीचे बहनेवाली नाली में जा गीरता था। बहिन उसी नाली पर जा के बैठ गई। अपने पेटिकोट को उठा के पेशाब करने लगी। मेरी नजरें तो बहिन का पिछा कर ही रही थी। ये नजारा देख के तो मेरा मन और बहक गया । दिल में आ रहा था कि जल्दी से जाके, राखी के पास बैठ के आगे झांख लुं, और उसकी पेशाब करती हुई चुत को कम से कम देख भर लुं। पर ऐसा ना हो सका। राखी ने पेशाब कर लिया, फिर वो वैसे ही पेटिकोट को जांघो तक, एक हाथ से उठाये हुए मेरी तरफ घुम गई और अपनी बुर पर हाथ चलाने लगी, जैसे कि पेशाब पोंछ रही हो और फिर मेरे पास आ के बैठ गई। मैने राखी के बैठने पर उसका हाथ पकड लिया और प्यार से सहलाते हुए बोला,
"राखी, बस एक बार दिखा दो ना, फिर कभी नही बोलुन्गा दिखने के लिये।"
"एक बार ना कह दिया तो तेरे को समझ में नही आता है, क्या ?"
"आता तो है, मगर बस एक बार में क्या हो जायेगा ? "
"देख, दिन में जो हो गया सो हो गया। मैने दिन में तेरा लंड भी मुठीया दिया था, कोई बहिन ऐसा नही करती। बस इससे आगे नही बढने दुन्गी।"
बहिन ने पहली बार गंदे शब्द का उपयोग किया था। उसके मुंह से लंड सुन के ऐसा लगा, जैसे अभी झड के गीर जायेगा। मैने फिर धीरे से हिम्मत कर के कहा,
" बहिन क्या हो जायेगा अगर एक बार मुझे दिखा देगी तो ? तुमने मेरा भी तो देखा है, अब अपना दिखा दो ना ।"
"तेरा देखा है, इसका क्या मतलब है ? तेरा तो मैं बचपन से देखते आ रही हुं। और रही बात चुंची दिखाने और पकडाने की, वो तो मैने तुझे करने ही दिया है ना, क्योंकि बचपन में तो तु इसे पकडता-चुसता ही था। पर चुत की बात और है, वो तो तुने होश में कभी नही देखी ना, फिर उसको क्यों दिखाउं ?"
राखी अब खुल्लम-खुल्ला गन्दे शब्दो का उपयोग कर रही थी। " जब इतना कुछ दिखा दिया है तो, उसे भी दिखा दो ना। ऐसा, कौन-सा काम हो जायेगा ?"
राखी ने अब तक अपना पेटिकोट समेट कर जांघो के बीच रख लिया था और सोने के लिये लेट गई थी। मैने इस बार अपना हाथ उसकी जांघो पर रख दिया। मोटी-मोटी गुदाज जांघो का स्पर्श जानलेवा था। जांघो को हल्के-हल्के सहलाते हुए, मैं जैसे ही हाथ को उपर की तरफ ले जाने लगा, राखी ने मेरा हाथ पकड लिया और बोली,
"ठहर, अगर तुझसे बरदास्त नही होता है तो ला, मैं फिर से तेरा लंड मुठीया देती हुं।",
कह कर मेरे लंड को फिर से पकड कर मुठीयाने लगी, पर मैं नही माना और ‘एक बार, केवल एक बार’, बोल के जिद करता रहा। राखी ने कहा"बडा जिद्दी हो गया रे, तु तो। तुझे जरा भी शरम नही आती, अपनी बहिन को चुत दिखाने को बोल रहा है। अब यहां छत पर कैसे दिखाउं ? अगल-बगल के लोग कहीं देख लेन्गे तो ? कल देख लियो।"
" कल नही अभी दिखा दे। चारो तरफ तो सब-कुछ सुम-सान है, फिर अभी भला कौन हमारी छत पर झांकेगा ?"
"छत पर नही, कल दिन में घर में दिखा दुन्गी, आराम से।"
तभी बारीश की बुंदे तेजी के साथ गीरने लगी। ऐसा लगा रहा था, मेरी तरह आसमान भी बुर नही दिखाये जाने पर रो पडा है। बहिन ने कहा,
"ओह, बारीश शुरु हो गई। चल, जल्दी से बिस्तर समेट ले। नीचे चल के सोयेन्गे।"
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