RE: Antarvasna kahani ज़िन्दगी एक सफ़र है बेगा...
यहाँ चाचा राम सिंग के परिवार का परिचय कराना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि उनके चारों बच्चों का अरुण के शुरुआती जीवन में बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान रहा…
इनके सबसे बड़े बेटे प्रेमचंद, स्कूल टीचर, ये अरुण के सबसे बड़े भाई रोशन लालजी से तकरीवान 4-5 साल और ताऊ के बड़े बेटे भूरे लाल से 3 साल छोटे हैं.
लंबे और इकहरे बदन के प्रेमचंद (मस्टेरज़ी) का विवाह अपने गाओं से करीब 20किमी दूर दूसरे गाओं के स्कूल टीचर की बेटी से हुआ…
लंबे कद की कामिनी भाभी, एक दम गोरी चिट्टी लेकिन भाई साब से थोड़ी भारी भरकम, शुरुआती समय में उनको मोटा तो नही कहा जा सकता था पर अपने पतिदेव से तगड़ी दिखती थी, स्वभाव की तेज, अपने घर में सबको कंट्रोल करने की इच्छा रखने वाली औरत थी, और अपनी सास के मृदुल और शांत स्वाभाव के कारण ये संभव भी हो गया,
चूँकि, अपने घर के बड़े बेटे की बहू होने के कारण मालकिन बन बैठी, यहाँ तक कि उनकी सासू माँ, यानी कि अरुण की चाची भी उनसे डरने लगी..
चाचा के दूसरे बेटे: मेघ सिंग, मीडियम हाइट, लेकिन पहाड़ जैसा मजबूत शरीर, मेहनती इतने की कोई भी मजदूर खेती के कामों में इनकी कभी बराबरी नही कर पाया. रामायण, महाभारत, गीता, जैसे सभी ग्रंथों का अध्ययन नियमित रूप से करना इनका शौक था, इसी कारण इनका नाम स्वामी ही पड़ गया.
ये भी बगल के गाओं के स्कूल में टीचर थे, जिसकी वजह से दोनो ही काम अच्छे से संभाल लेते थे. सरल स्वाभाव लेकिन अगर गुस्सा आ जाए तो किसी बड़े-से-बड़े अधिकारी का इनकी दहाड़ से मूत निकल जाए.
इनकी पत्नी कमला रानी, आहा..हहाअ…. क्या हुश्न था, हल्की सी सावली, इकहरे बदन की मालकिन, स्वाभाव…. किससे उपमा दें ? क्योंकि गाय (काउ) भी कभी-कभी मारने को आती है… उनको अपने जीवन में किसी ने कभी गुस्सा होते नही देखा,
अपनी हिटलर जेठानी के सामने तो ये कभी भूल के भी नही पड़ती थी, सिर्फ़ अपनी सासू माँ के पास ही ज़्यादातर समय रहती. इनकी एक बड़ी बेटी, और छोटा बेटा, बेटे को जन्म देके 6 महीने के बाद ही भगवान को प्यारी हो गई, शायद उनकी अच्छाई भगवान को भी अच्छी लगी होगी.
चाचा के तीसरे बेटे और अरुण के संरक्षक कम सखा, यशपाल शर्मा जी, ये एमससी करके हरियाणा के एक छोटे से शहर में अग्रिकल्चर ऑफीसर हैं, हमेशा फील्ड वर्क रहता है इनका, यथासंभव किसानों की मदद करते रहते हैं, अच्छी ख़ासी सॅलरी है.
इनकी शादी, अपने गाओं के नज़दीक के टाउन से हुई, ये भाभी भी अपनी बड़ी जेठानी की तरह लंबी-चौड़ी हैं, लेकिन नेचर एक-दम ऑपोसिट, वो पूरव तो ये पश्चिम.
यशपाल जी के तीन बेटियों के बाद एक बेटा है, तो स्वाभाविक है, सबका लाड़ला ही होगा, लेकिन बिगदेल नही.
चाचा की बेटी नीणू अपने तीनों भाइयों से छोटी है, सभी उसको बहुत प्यार करते हैं, लंबा कद इकहरा शरीर, थोड़ी सी सावली लेकिन सुंदर दिखती है, उम्र में ये अरुण से 4 या 5 साल और श्याम भाई से 1 साल बड़ी है.
तो ये था अरुण के चाचा की फॅमिली का परिचय,…
दोस्तो…. ज़्यादा बोर तो नही हो रहे, सोच रहे होगे क्या ये पूरी बारात का बही ख़ाता लेके बैठ गया…
खैर में अब और ज़्यादा बोर नही करूँगा, यहाँ से कहानी अब अरुण शर्मा की ज़ुबानी चलेगी…
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में भूरी को विदा करके, ट्यूबिवेल के कमरे में चारपाई पर लेटा हुआ काफ़ी देर तक सोचों में डूबा रहा, समय भी बहुत हो गया था, दोपहर के करीब 2 बज रहे थे,
सुबह से कुच्छ खाया भी नही था, पेट में चूहे दौड़ लगा रहे थे, घर जाने का मूड नही था, मैने सोचा ऐसा ही कुच्छ ख़ाके काम चला लेता हूँ,
बाहर जाके गन्ने के खेत से दो तगड़े से गन्ने तोड़े और खाने लगा, दो गन्ने ख़ाके कुच्छ आराम मिला, फिर सामने वाले खेत में सब्जियाँ लगी थी, तो चलो देखते हैं इसमें कुच्छ खाने लायक होगा ही.
सब्जियों के खेत में गोभी, टमाटर, भिंडी, गाजर ये सब थी, शुरू से ही कच्ची सब्जियाँ खाने की आदत थी, सो थोड़ा-थोड़ा सबमें से तोड़े-तोड़के वो खाली, मेरा पेट इतना तो भर ही गया कि मुझे अब घर जाने की ज़रूरत नही लगी.
2-3 घंटे, जो काम पड़ा था वो निपटाया, तब तक शाम के 5 बज गये, सर्दियों के दिन थे, तो शाम जल्दी भी हो जाती है. पॉवर भी चली गई थी तो पंप के चलने का कोई सवाल ही नही था, मेने कमरे को लॉक किया और घर की तरफ चल दिया.
घर पहुँचा तो और किसी को तो मेरी परवाह ही नही थी, लेकिन माँ का दिल, चिल्लाने लगी जोरे-जोरे से…
कहाँ था सारे दिन…. खाना खाने भी नही आया,
मेने कहा में ट्यूबिवेल पर ही था, और किसी को अगर मेरी परवाह होती तो खबर लेता मेरी, कुच्छ नही तो खाना ही भिजवादेते,
माँ बोली… यहाँ तेरी कोई फिकर करने वाला नही है, सब को अपना-अपना दिखता है, तुझे अपनी खुद फिकर करनी चाहिए, अब खाना खले भूखा होगा, सुबह से कुच्छ नही खाया.
मेने कहा… नही मेने खातों से थोड़ा-थोड़ा कुच्छ खा लिया है, में अभी आता हूँ 1-2 घंटे में तब खा लूँगा, इतना बोल के बाहर निकल गया और पहुँच गया अपने अड्डे पे मंदिर के पिछे वाले रूम में.
यहाँ तो महफ़िल जमी हुई थी, उनमें कोई शहर से चरस लेके आया था, चिलम में डालके सुट्टे लग रहे थे, मेने भी 2-3 सुट्टे कस के लगाए, दिमाग़ एक दम झंड हो गया….बोले तो मज़ा आगेया. इस तरह दो-तीन राउंड और चले, सबकी आँखें नशे की वजह से सुर्ख हो रही थी.
एक -डेढ़ घंटे बाद घर आया और चुप-चाप मा से खाना लिया, खाया, डिब्बे में 1 लिटेर दूध और 50ग्राम घी, बूरे के साथ डाला और चल दिया अपने खातों की ओर लटकाए डिब्बे को. आज एक देसी अंडा लेना भूल गया था, ये मेरा रोज़ का रुटीन था इतना…..
घी वाला हल्का गरमा-गरम दूध फेंटा मारा, चढ़ा लिया और तान के चादर लेट गया चारपाई पर, और कोशिश करने लगा सोने की, लेकिन नीद आँखों से कोसों दूर थी…. आज ना जाने रह-रह कर सुवह भाइयों के साथ हुए वार्तालाप को लेकर मेरा मन कुच्छ अशांत सा था…
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