RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
"ओह अभी शरम आ रही है, ठीक है मैं ही बताती हूँ. वो ठीक है.......पहले से थोड़ी दुबली हो गयी है शायद खाना पूरा नही खाती. मैं जब गयी तब वो फॅक्टरी में काम करने गयी हुई थी. उसके हॉस्टिल की वॉर्डन ने उसे फोन करके फॅक्टरी से बुलाया. वो जब आई तो थोड़ी घबराई सी थी. उसे लगा होगा शायद मैं उसे लेने आई हूँ" माँ बोलते बोलते रुक गई, अब वो मुस्करा नही रही थी, चेहरे पर कुछ उदासी छाने लगी थी, आँखो में कुछ नमी भी दिखाई दे रही थी.
"मुझे देखते ही वो भागकर मेरे से आकर लिपट गयी और फुट .......फूटकर रोने लगी" माँ की आवाज़ थोड़ी भारी हो गयी थी. उसने अपना गला सॉफ किया और फिर से बोलने लगी "वो तो बस मुझसे माफी मांगती जा रही थी, बिना रुके बिना साँस लिए ऐसे घर छोड़ने के लिए मुझे बार माफ़ करने को बोल रही थी. उसकी हालत देखकर मुझे भी रोना आ गया, मैने उसे दिलासा दिया कि हम उससे बिल्कुल भी नाराज़ नहीं हैं. फिर वो तुम्हारे बारे में पूछने लगी. कि तुम ठीक तो हो, उसके जाने से तुम गुस्सा तो नही, कि तुम खाना तो समय पर खाते हो, उसे बहुत फिकर हो रही थी तुम्हारी" माँ ने आँखे पोन्छि अब उसके चेहरे पर शांति नज़र आ रही थी, सकुन नज़र आ रहा था.
"दस घंटे काम करती है वो और फिर एक दुकान पर जाकर ब्यूटी पार्लर का काम सीखती है. बोल रही थी फॅक्टरी में काम इतना ज़यादा मुश्किल नही है बहुत अच्छे पैसे बन रहे हैं. और रहना भी फ्री है. वो बोल नही रही थी मगर तुमसे मिलने को बहुत आतुर थी. हर बात घूमकर तुम्हारी ओर मोड़ लेती थी, शायद उसे लगा था कि तुम उससे नाराज़गी की वजह से मिलने नही गये. मैने उसे समझाया था कि तुम उससे बिल्कुल भी नाराज़ नही हो, कि तुम जल्द ही उससे मिलने जाओगे"
माँ एक पल के लिए रुकी, उसकी आवाज़ फिर से भारी होने लगी थी, "जब मैं वहाँ से वापस आने को हुई तो वो फिर से रोने लगी........वो वहाँ बिल्कुल भी खुश नही है मुझे मालूम था मगर वो शायद हमारे लिए तुम्हारे लिए वहाँ रह रही है......मेरी बच्ची.....मेरी बच्ची.......अकेली वहाँ........." मैने माँ का हाथ दबाया. माँ आँखे पोंछती उठ खड़ी हुई और वहाँ से चली गयी मगर वो एक मिनिट बाद वापस आई. उसके हाथ में एक लिफ़ाफ़ा सा था. उसने मुझे दिया, मैने ले लिया और सवालिया नज़रों से माँ की ओर देखा. माँ बिना कुछ बोले वहाँ से चली गयी. मैने दूध का खाली ग्लास बेड की पुष्ट पर रखा. उस लिफाफे को खोला, तो हर्षौल्लास से मेरी चीख ही निकल गयी थी. वो बहन की फोटो थी.
वो एक पंजाबी सूट सलवार पहने खड़ी थी. फोटो से लगता था वो किसी स्टूडियो से खिंचवाई थी. वो सिर्फ़ दुबली ही नही हो गयी थी मगर उसका रंग भी थोड़ा पीला पड़ गया था. मगर उसकी खूबसूरती तो जैसे पहले से भी बढ़ गयी थी. मैने फोटो को धीरे से उठाया और अपने होंठ उससे सटा दिए. मेरा दिल कर रहा था कि अभी इसी वक़्त उसके पास चला जाऊ, उसे अपने सीने से लगा लूँ, उसे कभी अपने से जुदा ना होने दूं, एक पल के लिए भी नही. ना जाने कब तक मैं फोटो को निहारता रहा. उस प्यारे चेहरे से नज़रें हटाने को दिल नही कर रहा था.
फिर ना जाने कैसे मेरा ध्यान देविका की ओर चला गया. उसका दुख, उसकी वेदना, उसकी पीड़ा फिर से मेरा दिल कचॉटने लगी. मैं उठकर बैठ गया और भगवान से प्रार्थना करने लगा कि ऐसा मेरे साथ कभी ना हो. विरह की पीड़ा से बड़ी पीड़ा और कोई नही हो सकती, इतना मैं जान गया था और देविका की तरह ताउम्र वो पीड़ा झेलने का मादा मुझमे नही था. मैने भगवान से प्रार्थना की कि मेरा और बहन का साथ हमेशा हमेशा के लिए ऐसे ही बना रहे.
सुबह को आज मैं और भी जल्दी उठ गया था. पिछली रात मुश्किल से दो तीन घंटे सो पाया था मगर आज बदन में एक नयी उर्जा थी, अब मंज़िल पर पहुँचने का इरादा और भी पक्का हो गया था बल्कि अब तो मंज़िल पर जल्द से जल्द पहुँचना था. बाहर घुप अंधेरा था, मैने साइकल उठाई खेतों को चल पड़ा. सब्जीयाँ तोड़ी और दूध दोह कर वापस घर आ गया. माँ चाय बना रही थी,
"अरे इतनी सुबह सुबह क्यों उठ गया. थोड़ा आराम भी किया करो बेटा नही तो देखना बीमार पड़ जाओगे" मैने माँ की बात का कोई जबाब नही दिया. हाथ मूह धोकर चाय पी और खाना डिब्बों में डाल मैं फिर से खेतों की ओर चल पड़ा. अब बर्बाद करने के लिए मेरे पास एक पल का समय भी नही था. मकई की अभी आधी से ज़्यादा फसल खड़ी थी, और 15-20 दिनो मैं धान की फसल भी तैयार हो जाने वाली थी. और इस बार जो आधी से ज़्यादा ज़मीन खाली पड़ी थी उसको भी तैयार करना था, पूरी ज़मीन के लिए पानी का इंतज़ाम करना था, फसल संभालनी थी, बेचनी थी, दुनिया भर का काम था और मेरे पास समय नही था.
दिन रात लगातार लगे रहने के बावजूद भी मुझे चार दिन लग गये मकयि की फसल काटने को और फिर पोधो से भुट्टे निकाल कर शेड में पहुँचाने को. मैने आधे से ज़्यादा मकयि के सूखे पोधे शेड में रख लिए और बाकी आधे पशुओं के बाडे में. चौथे दिन शाम को जब मैं इतना काम निपटाकर बैठा तो अंधेरा हो चुका था. मुझे थकान का अहसास नही होता था, बदन दर्द कभी का होना बंद हो गया था बस सिर्फ़ एक ही बात की चिंता थी कि मेरे पास वक़्त नही था. अब तो दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ने लगे थे. उस शाम मैं उस टीले पर बैठा जहाँ कभी मैं और माँ बैठा करते थे और अपने लक्ष्य के बारे में सोचने लगा. अगर इस रफ़्तार से चलूँगा तो मंज़िल पर पहुँचने में सात आठ साल लग जाएँगे और इतना वक़्त मेरे पास नही था. मुझे कुछ उपाय करना था.
उस शाम माँ ने मेरी चिंता का कारण पूछा तो मैने उसे वजह बताई. माँ भी सोचों में पड़ गयी. फिर उसने सुझाव दिया कि मैं किसी को अपने साथ काम करने के लिए रख लूँ. सुझाव अछा था क्यॉंके गाँव में बहुत कम पैसों पर भी लोग काम करने को तैयार हो जाते थे मगर कोई जवान मर्द मेरी तरह मेहनत से काम कर सके तो बात थी और ऐसा कोई मिलना ना मुमकिन ही था.
अगले दिन मुझे धान के खेत में घूमते हुए विचार आया. फसल काटने और बिजने में मशीनों की मदद ली जा सकती है. हाँ यह अच्छा रहेगा क्यॉंके इससे मेरा वक़्त भी बच जाएगा और फसल भी जल्द से जल्द काट कर बेची जा सकती थी और तैयार फसल पर कुदरत के कहर से बचा जा सकता था. हालाँकि मुझे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी मगर फ़ायदा भी कम नही था वरना धान की फसल काटने और झाड़ने के लिए तो आधे महीने से भी ज़्यादा समय लग जाता. और अभी तो सिर्फ़ आधी ज़मीन पर ही फसल बोई थी. पूरी ज़मीन पर फसल को बीजन, काटना बेचना, नही नही मशीनों की मदद लेनी ही पड़ेगी.
और फिर मैने ज़्यादा सोच विचार नही किया. मैं उसी शाम साथ के एक गाँव में गया जहाँ एक बहुत बड़े ज़मीदार के पास एक कंबाइन मशीन थी जो गेंहू, धान, मकयि वग़ैरह की मेरी फसलों को घंटो में काट सकती थी. ज़मींदार को मैने अपनी फसल काटने के लिए मशीन के लिए बोला तो वो पहले तो बहुत हैरान हुआ कि हमारे गाँवो में कॉन ऐसा पैदा हो गया जो अकेला फसल उगाने की हिम्मत रखता था. उसने मेरी पीठ थपथपाई और फिर एक अच्छे रेट पर फसल काटने को तैयार हो गया.
मकई और धान की फसल कट गयी और अनाज घर पहुँच गया. गाँव के कयि लोग मेरी मेहनत का फल देखने आए और हैरान रह गये लेकिन उन्हे क्या मालूम था यह तो अभी शुरुआत थी. मगर घर में आनाज़ का अंबार लगने से जो खुशी मैने माँ के चेहरे पर देखी थी वो अतुलनीय थी उसने मुझे ना जाने कितनी बार चूमा और आलिंगन में लिया. कुछ ही दिनो में अनाज बिक गया. गाँव वालों को अब मंडी जाकर आनाज़ खरीद कर लाने की वजाय मुझसे आनाज़ खरीदना कहीं बेहतर लगा. इसमे मेरा भी फ़ायदा था, मुझे मंडी तक आनाज़ ढोने से और मंदी के टॅक्स से राहत मिल गयी थी. आनाज़ बेचने का काम माँ ही करती थी जो अब दुकान सिर्फ़ सुबह और शाम को ही खोलती थी क्योंकि वही वक़्त होता था असली ग्राहकी का.
जब तक अनाज बिकता मैने बाकी बची ज़मीन से बड़ी बड़ी झाड़ियों और कुछ पेड़ों को उखाड़ दिया जो खेती में बाधा बनने वाले थे जबकि बड़े पेड़ों को वैसे ही रहने दिया. फिर मैने छोटे छोटे पेड़ों और मकयि के सूखे पोधो, झाड़ियों से शेड को दोनो और से कवर करना शुरू कर दिया. तीन दिन बाद शेड में कमरा और उसके सामने थोड़ी सी जगह छोड़कर बाकी पूरी शेड को मैने चारों और से अच्छी तरह बंद कर दिया था और अपने लिए एक अच्छे ख़ासे मुर्गीफार्म की तैयारी कर ली थी. मुर्गियों के लिए शेड तैयार होने तक अनाज भी बिक चुका था. उस शाम मैने और माँ ने जब खाने के बाद बचत का हिसाब लगाया तो हमारे चहेरे खुशी से खिले हुए थे. मेरी उम्मीद से कहीं ज़यादा मुनाफ़ा हुआ था और इस मुनाफ़े को और भी बढ़ावा मिला था दुकान से होने वाली अच्छी कमाई से, क्योंेकि अब ताज़ी सब्जियों और दूध से खूब कमाई होती थी. उस रात खुशी के मारे मुझे नींद नही आ रही थी.
अगले दिन मेने एक ट्रॅक्टर किराए पर लिया और डीजल से टेंक भरकर ज़मीन जोतने लगा. दो दिनो में नयी और पूरानी ज़मीन जहाँ से मैने धान और मकयि की फसल काटी थी पूरी तैयार थी. अब मुझे नये बोरेवेल्ल और ज़ेन्रेटर पर पैसे खरच करने थे क्यॉंके पूरी ज़मीन के लिए वो बोर्बेल नाकाफ़ी था. खैर बोरेवेल्ल, ज़ेन्रेटर और नयी फसल के बीजों के बाद भी काफ़ी पैसे बच गये थे और उधर मेरी मुर्गियाँ तैयार थीं. मेने फसल बिजने का काम निपटा मुर्गियों की ओर ध्यान देना शुरू किया और नयी शेड को तिरपाल से ढक दिया. दो दिन में पूरी शेड में मुर्गियों के बच्चे चहुँ चहुँ कर रहे थे. मैने दुकान पर से रोज़ाना की ज़रूरत का समान छोड़ बाकी सब वहाँ से हटा दिया. अब किराने, दूध, सब्जियों के साथ गोश्त बेचना था इसके सिवा और कुछ भी नही. माँ ने वो सब बेकार के सामान को जिन्हे मैने दुकान से हटाया था को लेकर मुझसे बहुत झगड़ा किया मगर मैं मानने वाला नही था. मैने माँ को अच्छे से समझाया कि अगर हम इन छोटी छोटी चीज़ों के लिए मेहनत करते रहेंगे तो कभी आगे नही बढ़ पाएँगे. माँ मेरी बात समझती थी मगर फिर भी मानने को तैयार नही थी मगर मेरी ज़िद के आगे उसे झुकना पड़ा. मैने दुकान को रोज़ाना के खाने के सामान से भर दिया था, इसके इलावा खेतों से सुबह शाम ताज़ी सब्जियाँ और दूध आ जाता था और एक हफ्ते के अंदर हम गोश्त भी रखने वाले थे. अब दुकान चार घंटे सुबह और तीन घंटे शाम को खोलनी होती थी. सुबह को सब्जियाँ और दूध मैं खेतों से दुकान पर पहुँचा देता और दुपेहर को माँ दुकान बंद कर खाना लेकर खेतों को आ जाती और जाते हुए सब्जियाँ और दूध ले जाती अब काम ने बिल्कुल सही रफ़्तार पकड़ ली थी.
मैने पिछली ग़लतियों और तज़ुरबों से बहुत कुछ सीख लिया था. अब मेरे लिए काम आसान होता जा रहा था. मगर फिर भी एक शूल सी दिल में हर वाक़त चुभती रहती थी. मुझे हर पल हर क्षण बहन की याद सताती थी. कभी कभी मुझे वो जुदाई अनंत लगती, कभी कभी मैं इतना उदास हो जाता कि सब छोड़कर बैठ जाता. माँ के दोपेहर को खेतों में आने से कुछ राहत मिलती थी. वो मेरी हिम्मत बढ़ती थी. माँ मुझे हौंसला देती थी. मुझे मालूम था हर बीतते दिन के साथ मैं अपने लक्ष्य के करीब होता जा रहा था मगर फिर भी बहन के बिना एक अजीब सा सूनापन था एक बैचैनि दिल में छाई थी जो तब तक दूर नही होने वाली थी जब तक मैं अपने लक्ष्य को पूरा ना कर लेता. माँ ज़रूर हर महीने के अंत में एक दिन बहन से मिलने जाती और मुझे इससे कुछ राहत मिल जाती. दिल को थोड़ी तस्सली हो जाती कि वो बिल्कुल ठीक ठाक है.
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