RE: Incest Kahani ना भूलने वाली सेक्सी यादें
मेरे लिए अकेले इतने बड़े मुर्गिफार्म को संभालना नामुमकिन था. पहले मैने दो मज़दूर रखे. फिर एक दिन एक आदमी आया, उसने बताया कि वो उस मुर्गिफार्म पर काम करता था और उसने मुझसे काम माँगा. मैने बिना जीझक उसे काम पर रख लिया. एक दूसरे मज़दूर के बारे में बताया कि वो बिहार का था और सेठ के मुर्गिफार्म बंद करने के बाद वो वापस अपने गाँव लौट गया था. मेरे लिए उस मज़दूर का मिलना बहुत फ़ायदेमंद रहा. उसने कयि सालों से मुर्गिफार्म को संभाला था इसलिए उसे उन सब आधुनिक तौर तरीकों की मालूमात थी जिनसे मैं अंजान था. मुझे मालूम था मुझे अब पूरी होशियारी से समझ बुझ कर काम करना होगा अगर मुझे उस सहर में सफल होना था. खैर मैने उस नौकर से और आस पास से हर बारीकी सीखनी चालू करदी जो मुझे मेरे धंधे में मदद करती.
मेरा और बहन दोनो का काम अच्छा चल निकला. लेकिन जब मैने खर्च और आमदनी के अनुपात से हिसाब लगाया तो देखा कि बहन मुझसे काफ़ी आगे थी. मैने उससे कई गुना पैसे कमाए थे मगर जितना वो उस छोटी सी दुकान से घर बैठे कमा लेती थी उस हिसाब से मेरी आमदनी कुछ भी नही थी. खैर हमे किसी प्रकार का लालच नही था. हम अपनी रफ़्तार से बिल्कुल खुश थे. माँ घर का कामकाज देखती जिसमे बहन भी उसकी थोड़ी बहुत मदद करती. मैं दिन भर काम के बाद घर लौटता तो बहन मेरा इंतजार कर रही होती. हम सभी मिलकर एकसाथ खाना खाते, बातें करते, टीवी देखते. मगर एक बार जब मैं और बहन अपने कमरे में घुस जाते तो दुनिया, दुकान धंधा हमे सब भूल जाता. हमे रात बहुत छोटी जान पड़ती. दिन भर काम पर थकने के बाद भी हम आधी रात तक एक दूसरे को प्यार करते. एक दूसरे के बदन को चूमते, चाटते, चूस्ते, सहलाते, दुलारते पूरी रात गुज़ार देते. सुबह में हम दोनो अक्सर बहुत देर से उठते.
हालाँकि हमारी ज़िंदगी का हर दिन हर पल सुख से आनंद से भरा होता था मगर एक डर मुझे हर पल सताता रहता था. जाने क्यों एक अंजाना भय दिल में बैठ गया था कि कहीं कुछ हो ना जाए. हमने ज़िंदगी में इतने दुख देखे थे कि अब सुख से भी डर लगता था. लगता था जैसे यह एक सपना है कि अभी हमारी आँखे खुलेंगी और हम आने गाँव में वोही ज़िंदगी जी रहे होंगे. वो डर मेरा पीछा नही छोड़ता था. ऊपर से हमारा भाई बहन होने का राज़ उस मोहल्ले में खुलने का डर अलग से सताता था. मैं हमेशा अपना भय अपने अंदर छपाए रखता माँ और बहन को इसकी खबर ना होने देता. जब हम गाँव में थे, हम ग़रीब थे मगर हम निश्चिंत थे. कम से कम मैने तो कभी भविष्य को लेकर किसी प्रकार की कोई चिंता नही की थी. मगर अब सहर में मुझे यही ख़ौफ़ रहता कि अगर कल को कुछ होगया तो मैं किससे मदद माँगूंगा, किसके पास जाउन्गा, गाँव में अब हमारा कुछ नही था. वो डर दिल से निकलते निकलते काफ़ी समय लग गया, एक साल से भी उपर. जब मैने और बहन ने मेहनत से अच्छी ख़ासी रकम जोड़ ली तब जाकर मेरे दिल को थोड़ा सकुन रहने लगा कि अब हमारा भविष्य सुरक्षित है.
जब हमने गाँव छोड़ा था तो मैने यही सोचा था कि अब दोबारा हम गाँव नही आ पाएँगे. लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था. हमे दो साल बाद एक बार गाँव जाना पड़ा. हम तीनो हर रोज मंदिर जाते थे. वहीं मंदिर के पंडित ने बताया था कि मुझे अपने पिता का श्राद्ध करना चाहिए. मैने वहीं पंडित को पैसा देकर सब करने के लिए बोला तो उसने कहा क्योंकि हमने पहले कभी भी श्राद्ध नही किया है इसलिए पहले श्राद्ध के लिए हमे गाँव ही जाना पड़ेगा, बाद में अगर हम चाहे तो हम सहर में पूजा कर सकते थे. मैं अब दूबिधा में पड़ गया. एक तो बहन की गोद में उस समय हमारा चार महीनो का बेटा था दूसरा हम बहुत समय बाद गाँव की यादों को भुला पाए थे, अब वहाँ जाकर मैं फिर से उन यादों को ताज़ा नही करना चाहता था. मगर बहन और माँ ने दोनो ने भी वहाँ जाने की बात का समर्थन किया. अंत मैं मैने श्राद्ध के लिए हमारे गाँव वापस जाने का फ़ैसला किया.
असल में खुद मेरे मन में गाँव को एक बार फिर से देखने की ललक थी. अपने घर, अपनी भूमि को एक वार फिर से देखने की इच्छा उस पंडित की सलाह के बाद और भी ज़ोर पकड़ गयी थी. हालाँकि मेरी दूसरी बड़ी बहन डेविका जो हम से मिलने आती रहती थी हमे गाँव के बारे में बताती रहती थी मगर अपनी आँखो से वो सब कुछ देखना जो कभी हमारा था, यह एक ऐसी जिग्यासा थी जिसे मैं मिटा नही पाया था.
दो साल बाद जब हम गाँव के सामने पहुँचे तो हमारे दिलों की धड़कने बहुत तेज़ थी. मैं, माँ और बहन तीनो बहुत खुश थे. गाँव के बीचो बीच हमारी गाड़ी होती हुई जब हमारे पुराने घर के सामने रुकी तो एक बार तो हमारी आँखे ही भर आई.
माँ ने हमारी योजना अनुसार बहन की पिछले साल शादी का बहाना बनाया और लोगों को बताया कि उसका पति विदेश में काम करता है. घर वैसे का वैसा ही था. शोभा के बेटे ने उसे खरीदा था मगर उसमे अभी तक रहने नही गया था. मैने और बहन ने हर कमरे में घूम घूम कर देखा. बचपन से लेकर जवानी तक उस घर मे बिताए कुछ खास लम्हे कुछ खास घटनाएँ आँखो के सामने घूमने लगी. सुख दुख के वो दिन याद आने लगे. आज भी हमे वो घर अपना जान पड़ता था, जैसे वो हमारा इंतजार कर रहा था कि कब हम वहाँ आए और उसे फिर से आबाद का दें. जब हम उस कमरे में गये जहाँ मैने और बहन ने पहली बार सेक्स क्या था जब वो अपने बाल बना रही थी तो हम दोनो एक दूसरे को देख कर मुस्कराने लगे, ऐसा लगता था जैसे कल की ही बात है माँ और सोभा मिलकर बहुत रोई. उन दोनो की दोस्ती शायद गाँव में सबसे ज़्यादा मजबूत थी. वो भी बेचारी अकेली रहती थी.
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