mastram kahani राधा का राज
04-07-2019, 12:29 PM,
#18
RE: mastram kahani राधा का राज
राधा की कहानी--5

गतान्क से आगे....................

मैने काँपते हाथों से बॉटल लिया. और मुँह से लगाकर एक घूँट लिया. ऐसा लगा मानो तेज़ाब मेरे मुँह और गले को जलाता हुआ पेट मे जा रहा है. मुझे फॉरन ज़ोर की उबकाई आ गई. मैने बड़ी मुश्किल से मुँह पर हाथ रख कर अपने आप को रोका. पुर मुँह का स्वाद कसैला हो गया था. काफ़ी देर तक मेरा चेहरा विकृत सा रहा कुछ देर बाद जब कुछ नॉर्मल हुई तो अरुण ने वापस बॉटल मेरी ओर किया.

"लो एक और घूँट लो." अरुण ने कहा.

"नहीं, कितनी गंदी चीज़ है तुम लोग पीते कैसे हो." मैने कहा.मगर कुछ देर बाद मैने हाथ बढ़ा कर बॉटल ले ली और एक और घूँट लिया. इस बार उतनी बुरी नहीं लगी.

"बस और नहीं." मैने बॉटल वापस कर दिया. बॉटल को वापस अरुण को लोटा ते वक़्त चादर मेरी एक चूची से हट गया था. मुझे इसका पता ही नही चल पाया. मेरा सर घूम रहा था. सीने मे अजीब सी हुलचल हो रही थी. बदन गरम होने लगा था. ऐसा लग रहा था कि बदन पर ओढ़े उस चादर को उतार फेंकू. अपने आप को बहुत हल्का फूलका महसूस कर रही थी. अपने ऊपर से कंट्रोल ख़तम होने लगा. शरीर काफ़ी गरम हो चला था. नीचे दोनो टाँगों के बीच हल्की सी सुरसुरी महसूस हो रही थी. दिमाग़ चेतावनी दे रहा था मगर शरीर पर से उसका कंट्रोल ख़त्म होता जा रहा था. बाहर हवा की साय साय महॉल को और ज़्यादा मादक बना रही थी.

अरुण ने अंदर की छोटी सी लाइट ओन कर दी थी. वो अपने हाथ मे बॉटल लेकर सामने का दरवाजा खोल कर बाहर निकला और पीछे की सीट पर आ गया.

"तुम्हे तो पसीना आ रहा है. गर्मी कुछ ज़्यादा है." कहते हुए उसने मेरे गले को अपने हाथों से च्छुआ. मैं सिमट ते हुए दूसरी ओर सरक गयी मगर वो मेरी ओर सरक कर वापस मेरे बदन से सॅट गये.

"देखो अरुण ये सब ठीक नहीं है. तुम सामने की सीट पर जाओ." मैने कहा.

" मैं तुम्हारे साथ कोई ज़ोर ज़बरदस्ती तो कर नही रहा हूँ. मैं तो सिर्फ़ तुम्हारे काँपते हुए बदन को गर्मी देने की कोशिश कर रहा हूँ." उसने वापस अपनी उंगलियों से मेरे होंठ के उपर च्छुआ और आगे कहा," देखो रूम पीने से तुमहरा बदन राहत महसूस कर रहा है. नही तो सुबह तक तो तुम ठंड से अकड़ जाती. लो एक घूँट और ले लो इस बॉटल से. रात अच्छी गुजर जाएगी."

"नहीं मुझे नहीं चाहिए." मैने इसके हाथ को सामने से हटा दिया.

उसने बॉटल से एक घूँट भरा और बॉटल सामने बैठे मुकुल को थमा दी. फिर मेरी ओर घूम कर उन्हों ने अपने बाँह फैला कर मुझे आग्पाश मे लेना चाहा. मैं उनको धक्का देती रह गयी मगर उन्हों ने मुझे अपनी बाहों मे समा लिया. मेरे स्तन गर्मी से तन गये थे वो उसकी छाती मे दब गये. मैं उसको अपने हाथों से धक्का दे कर दूर करने की कोशिश करती रह गयी. लेकिन कुछ तो मेरे कोशिश मे इच्च्छा का अभाव और कुछ उसके बदन मे तीवरा जोश का संचार कि मैं उनको अपने बदन से एक इंच भी नही हिला पाई. उल्टे उनका सीना और सख्ती से मेरे स्तनो को पीसने लगा.

उसके गरम होंठ मेरे होंठों से चिपक गये. मैने अपने सिर को हिलाकर उसके होंठो से दूर होने की कोशिश की.

"म्‍म्म्मम…नहियीई… ..नहियीई… .आआरूओं नही……ये सब न..नाही…" मैने उसके चेहरे को दूर करने की कोशिश की मगर नाकाम होने पर मैने उसके बालो को अपनी मुट्ठी मे भर कर अपने से दूर धकेला. उसके सिर के कुछ बाल टूट कर मेरी मुट्ठी मे रह गये मगर उसका सिर नही हिला. उसने मेरे गले पर अपने तपते होंठ रख दिए. सामने मुकुल रम की बॉटल बार बार अपने होंठों से छुआता हुआ. पीछे की सीट पर

चल रही ज़ोर आज़मैंश को देखते हुए मुस्कुरा रहा था.

मैने उसे धकेलने की कोशिश की मगर वो मेरे बदन से और ज़ोर से चिपक गया. उसने मेरे बदन से लिपटे चादर के अंदर अपने हाथों को डालने की कोशिश की मगर उसके हाथ चादर का छोर ढूँढ नही पा

रहे थे. उसने झुंझला कर चादर के बाहर से ही मेरे स्तनो को पकड़ कर मसलना शुरू कर दिया. किसी पदाए मर्द की नज़द्दीकियाँ, शराब का सुरूर, रात का अंधेरा और वातावरण की मदहोशी सब मिल कर मेरे

दिमाग़ को शिथिल करते जा रहे थे. धीरे धीरे मैं कमजोर पड़ती जा रही थी. उसने एक झटके मे मेरे बदन से चादर को अलग कर दिया.

"मुकुल ले इसे सम्हाल." अरुण ने चादर आगे की सीट पर उच्छाल दिया जिसे मुकुल ने समहाल लिया. मेरे बदन पर अब सिर्फ़ एक पॅंटी की अलावा कुछ भी नहीं था. मैं अपने हाथो से अपने नग्न बदन को च्चिपाने की कोशिश कर रही थी. मगर बूब्स के साइज़ बड़े होने की वजह से उन्हे सम्हालने मे असमर्थ थी. अरुण ने मेरे नग्न बदन को अपने सीने पर खींच लिया. दोनो के नग्न बदन आपस मे कस कर लिपट गये. मुझे लगा मानो मेरे सीने की सारी हवा निकल गयी हो. मैं कस मसा रही थी. लेकिन अपने खड़े निपल्स को और अपने कड़े बूब्स को उसके चौड़े सीने पर रगड़ने के अलावा कुछ भी नही कर पा रही थी. उसे तो मेरे इस तरह च्चटपटाने मे और भी मज़ा आ रहा था.

मैने अरुण को धकेलते हुए कहा"प्लीज़… . छोड़ो मुझे वरना मैं शोर मचाउन्गि"

मगर मैं उसकी पकड़ से छ्छूट नही पा रही थी," अरुउउऊँ क्या कर रहे हूओ. प्लीईस….प्लीईएसस… ..रचना को पता चल गया तो गजब हो जाएगा…..छोड़… .छोड़ो मुझे…" मैने उँची आवाज़ मे कहना शुरू किया.

"मचाओ शोर. जितना चाहे चीखो यहाँ मीलों तक सिर्फ़ पेड, पत्थर और जानवरों के सिवा तुम्हारी चीख सुनने वाला कोई नहीं है."मुकुल पीछे घूम कर हमारी रासलीला देखने लगा. अरुण के हाथ मेरे बदन पर फिर रहे थे. उसके नग्न बदन से मेरा बदन चिपका हुआ था. मैने काफ़ी बचने की कोशिश की अपनी सहेली की दुहाई भी दी मगर अरुण तो मानो पूरा राक्षश बन चुका था.उस पर मेरा गिड़गिडना, रोना और च्चटपटाना कोई असर नही डाल रहा था.
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