RE: non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया
जिस वक्त का मैं यह वाक़या लिख रहा हूँ , वह उस वक्त मेरी उमर 9 साल, मेरी बड़ी बहन राधा की उमर 15 साल और मेरी छोटी बहन कामिनी की 6 साल की है। इंगलिस्तान पहुँचते ही मेरे चाचा के लड़के से मेरी बहन राधा की सगाई तय है। पर क़िस्मत को यह मंजूर नहीं। क़िस्मत हमारे लिए कुछ और ही राहें मिन्तिजर चुकी है जहाँ जाना हमारे लिए लाजिमी है। हम इससे लाख बचना चाहें पर तकदीर का चक्कर हमें अपनी लपेट में लेने के लिए फिराक में आ चुका था और हम आने वाले वाकिये से बेखबर आने वाले हसीन दिनों के फरेब में खोए हुये थे।
हम बहन भाई उस बाहरी जहाज पर बहुत एंजाय कर रहे थे। हमको बहुत अच्छा लग रहा था यह शांत समुंदर यह सुकून, यह मद्धम सा लहरों का शोर और उनमें डोलता हमारा बे हक़ीकत जहाज। मैं तो बहुत हैरान था जब आसमान की उसातून पर नजर डालता और फिर समुंदर की बेपनाह गहराइयां देखता तो हमारा वजूद एक बहक़ीकत जरीय से भी हकीर नजर आता।
तारीख: 31 मार्च 1938
आज हमें सफर करते 5 दिन हो चुके थे। अब हम बच्चे इस सफर से उकता चुके थे और जल्द से जल्द जमीन पर उतरना चाहते थे। यह शाम की बात है आसमान गहरा सुरमई हो चुका था और दूर बहुत दूर आसमान में बिजलियाँ सी लहरातीं महसूस की जा सकतीं थीं। जहाज का अमला आज गैर-मामूली सी भागदौड़ में मशरूफ था। आज हम रात का खाना खाते ही अपने केबिन में चले आए। फिर कुछ देर बाद ही ऐसा लगा जैसे आसमान फट पड़ा हो। बहुत जोरों की बारिश थी। मैंने हिन्दुस्तान में कभी ऐसी बारिश ना देखी थी। कान पड़ी आवाज भी सुनाई ना दे रही थी। हवाओं का शोर इस कदर था की यूँ लगता था की हमें उड़ा ले जायेगी। लेकिन हमारा खिलौना सा जहाज बड़ी बेजीगरी से उन भयानक हवाओं का मुकाबला कर रहा था। लेकिन यह तो उस तूफान की शुरुआत थी।
और जब तूफान आया तो जहाज यूँ मालूम होता था जैसे हवा में उड़ रहा हो। अभी एक लहर उसको समुंदर से उठाकर पटक ही रही होती थी के दूसरी उचक लेती थी। और फिर एक जबरदस्त धमाका सुनाई दिया, पिताजी ने दरवाजा खोलकर देखा तो जहाज की बड़ी चिमनी जहाज के फर्श पर पड़ी थी और जहाज के बीचो बीच एक गहरी दरार नमूदार हो चुकी थी। पिताजी ने हम बच्चों का हाथ पकड़ा और बाहर चले आए। बस क्या बताऊं क्या मंजर था। क्या बूढ़ा क्या जवान बस ऐसा लगता था की एक गदर बरपा हो चुका हो। जिसका जिधर मुँह उठ रहा था, वह वहाँ भाग रहा था। जहाज पर बँधी हिफ़ाजती कश्तियो पर हाथापाई शुरू हो चुकी थी। इंसानियत अपना शराफ़त का लबादा उतार चुकी थी, हर आदमी उन कश्तियो पर पहुँच जाना चाहता था क्योंकी सभी जानते थे की कुछ ही देर में यह जहाज नहीं रहेगा और यह कश्तिया ही बचाव का वहीद ज़रिया थीं। लेकिन जहाज का कप्तान और उसके चन्द साथी अपनी राइफल्स उठाए सामने खड़े थे। उनको देखकर बिफरे हुये हुजूम को थोड़ी शांति मिली।
|