RE: non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया
कप्तान बोला-“भाइयों मौत को तो हर जगह पहुँच जाना है तो क्यों ना मौत से लड़कर जिया जाए। अगर हार भी गये तो क्या बहादुरों की मौत ही मरेंगे। आओ अपनी घर वालियों और बच्चों को सवार करवा दो इन पर, हम कहीं नहीं जा रहे…”
यह सुनकर एक बेचैनी सी फैली, लेकिन कुछ नहीं हो सकता था कश्तिया वहाँ मौजूद लोगों की तादात से बहुत कम थीं। आख़िर कर औरतें और बच्चे सवार हुये, उन कश्तियो पर। और वह एक के बाद एक समुंदर में उतार दी गईं। कुछ नाखुशगवार वाकिये भी हुये इस दौरान, लेकिन आख़िर में मैं अपनी माँ से चिमटा बैठा था और मेरी दोनों बहनें एक दूसरे से। हम सब बड़ी हसरत से अपने पिता को देख रहे थे और वह भी आूँसू भरी अलविदाई नजरों से अपने परिवार को जुदा होते देख रहे थे। और फिर शायद मैं सो गया या बेहोश हो गया। क्योंकी जब मेरी आँख खुली तो हम समुंदर में थे और कश्ती पे काफी तादात में औरतें और बच्चे सवार थे जिनके रोने की आवाजें भी गाहे-बा-गाहे आ जातीं थीं।
लेकिन अभी क़िस्मत को कुछ और मंजूर था। अभी तो क़िस्मत को एक खौफनाक कहानी रकम करनी थी अभी तो बहुत कुछ होना था। और उस बहुत कुछ की शुरुआत यूँ हुई की कश्ती हमारी बुरी तरह से डोलने लगी और उसमें पानी आने लगा। साफ जाहिर था की उसमें गुंजाइश से ज्यादा लोग सवार थे।
लोग अभी समझने भी ना पाए थे की यह क्या है वह कश्ती एकदम से उलट गई। और फिर कौन कहाँ गया और कौन कहाँ किसको याद है। मुझको तो बस इतना याद है की जब मेरी आँख बंद हुई तो मैंने अपनी बहनों को बुरी तरह चिल्लाते और अपनी माँ को उनको आवाजें देते सुना। और फिर मुझको कोई होश ना रहा। हाँ कुछ एहसास ज़रूर था की किसी हाथ ने मुझे माँ की मुदाफ बांहों से निकाल कर कश्ती में रख दिया।
जब मेरी आँख खुली तो सूरज सिर पर चमक रहा था हमेशा की तरह लेकिन आज मैं हमेशा जैसा नहीं था। मुझे नहीं पता मेरी माँ का क्या हुआ, सर्द समुंदर में उनकी लाश का क्या हुआ। अपने पिता को मैंने आख़िरी बार बाहरी जहाज पर खड़े हसरत से हाथ हिलाते ही देखा उसके बाद कभी नहीं देखा। शायद अब मरने के बाद देख सकू । शायद वह वहाँ आसमानों के उस पार मेरी राह देख रहे हों। मुझको मेरे किए की सजा देने को बेताब हों। खैर मैं अपनी दास्तान के तार फिर से जोड़ता हूँ , जब मेरी आँख खुली तो मैंने खुद को एक कश्ती में पाया। उस कश्ती में मेरे सिवा चंद लोग और भी थे जो एक दूसरे पर ऊपर नीचे पड़े थे और मैं देखते ही समझ गया था की उनमें से बहुत से लोग किसी भी मदद से बहुत दूर जा चुके हैं। जी हाँ वह फकत लाशों का एक ढेर था।
उस कश्ती पर शायद एक केवल मैं ही जिंदा इंसान था, लेकिन कब तक। मैं भी बहुत जल्द इस जालिम समुंदर का शिकार होने को था। माफी चाहता हूँ, समुंदर को मैंने यहाँ जालिम लिखा हालांकी इस समुंदर को मैंने खुद पर हमेशा मेहरबान ही देखा। बहुत पुरसकून बिल्कुल मेरी माँ की आगोश की तरह नरम। समुंदर की नरम हवायें मेरे कानों में लोरियाँ देने लगीं और मैं फिर सो गया या शायद बेहोश हो गया और ना जाने कब तक यूँ ही पड़ा रहा। की अचानक कुछ हुआ। जी हाँ मैंने उस लाशों के ढेर में कुछ सरसराहटें सुनीं थीं, कोई पुकार रहा था। हालाँकि आवाज बहुत ही धीमी थी लेकिन बहरहाल इस खामोशी में वह एक आवाज थी जो लहरों की मध्यम आवाजों में सॉफ सुनाई दी जा सकतीं थी। मैं घिसटता हुआ आगे बढ़ा और उस लासों के ढेर को इधर उधर करने लगा।
किसी ने फिर पुकारा-“प्प्प्प्पान्णनीईइ…”
और यह आवाज तो मैं लाखों में पहचान सकता था। वह आवाज मेरी बड़ी बहन राधा की थी।
में दीवानों की तरह उसको आवाज देने लगा-“दीदी… दीदी… दीदी…”
फिर उस ढेर में से आवाज आई-“प्रेम यह तुम हो मेरे भाई…”
मैंने कहा-“हाँ दीदी यह मैं हूँ प्रेम… कहाँ हो तुम दीदी…”
“मैं यहाँ हूँ प्रेम मेरे साथ कामिनी भी है वह बेहोश है शायद… तुम इन लोगों को हटाओ मेरा दम घुटा जा रहा है…”
मैं बोला-“दीदी यहां कोई लोग नहीं हैं यह सब लाशें हैं…”
“लाशें…”
दीदी की फटी फटी सी आवाज आई और फिर मुझको उस ढेर में से एक चीख की आवाज आई और कुछ हलचल हुई मैं भी अब उन लाशों को धक्का दे देकर समुंदर में गिराने लगा और कुछ ही देर बाद मेरी बहन राधा नमोदार हुई। वह जिंदा थी शायद इतने नीचे दबे रहने की वजह से वह बच सकी थी। वह बाहर निकल आई। हम दोनों बहन भाई अब आमने सामने थे बेहद घबराए हुये, परेशान। लेकिन अब क्या हो सकता था हम अपनी छोटी बहन कामिनी की तरफ मुतविज़ा ( ध्यान देना ) हुये।
वो बेहोश थी लेकिन उसका सांस नॉर्मल चल रही थी उसकी हालत खुली फ़िज़ा में आते ही सही होनी लगी और चेहरे पर सुर्खी सी दौड़ने लगी और कुछ ही देर बाद वो होश में थी। होश में आते ही वह माँ को पुकारने लगी। हमें कुछ देर लगी उसको नॉर्मल करने और सूरतेहाल बताने में। फिर हम तीनों बहन भाई उस कश्ती पर बैठे थे और वह ना जाने कहाँ बही चली जा रही थी, ना मंज़िल का कोई निशान था, ना रास्तों का कुछ इल्म। लेकिन समुंदर हमारी मंज़िल जानता था।
और सूरज डूबने से कुछ देर पहले उसने हमें एक साहिल पर ला फेंका। हम खुश थे साहिल पर आकर, हम समझ रहे थे की हम बच गये बस अब आबादी में पहुँचने की देर है। हम निढाल होकर वहीं साहिल की गीली रेत पर गिर से गये और फिर रात हो गई। शायद हम सारी रात वहीं पड़े रहे। क्योंकी जब मेरी आँख खुली तो मैं अकेला वहीं पड़ा था। मेरी दोनों बहनें उठकर ज़रूरी हाजत के लिए दरख़्तों के पीछे गईं थीं। में उठा और दीदी को पुकारने लगा। वह दोनों कुछ फासले से मुझको आती हुई नजर आईं।
प्रेम मुझको लगता है यहाँ आबादी नहीं है हम काफी दूर तक होकर आए हैं, लेकिन आगे सिर्फ़ जंगल है जो और घना भी होता जा रहा है। दीदी की आवाज में परेशानी थी। मैं उनको देखता रह गया। फिर हमने चारों तरफ का जायजा लिया। जहाज का बहुत सा सामान साहिल पर बिखरा पड़ा था शायद समुंदर की लहरों ने हमारे साथ उनको भी यहाँ ला फेंका था और उनमें से बहुत सी चीजों ने हमारी आने वाली जिंदगी में बहुत अहम किरदार अदा किया। मैं अपने सुनने वालों से गुज़ारिश करता हूँ की वह इन चीजों की तफ़सील जहन में रखें ताकि आपको आगे की दास्तान को समझने में दुश्वारी ना हो।
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