RE: non veg kahani आखिर वो दिन आ ही गया
अब तक दीदी की गान्ड नहीं चोद सका था। मैं दीदी की गान्ड का सुराख, उसकी नरमाहटें, उसकी गरमाहटें, उसकी गहराइयां अब तक अजनबी थीं मेरे लिए। अब तक अंजान था मैं उस हसीन दुनियाँ से, और मेरा लंड खड़ा होने लगा। दीदी मुझे गौर से देख रहीं थीं और मेरा लंड खड़ा होते देखकर मुश्कुरा उठीं। बोलीं-“अरे यह क्या कामिनी को चोदा नहीं था क्या रात में, या चूत बंद कर ली थी उसने…”
मैं दाँत निकालता दीदी की तरफ बढ़ा, और जाकर दरख़्त की सायादार छांव में बैठ गया। काफी ठंडक थी यहाँ। मेरी टांगों के बीच लटका मेरा लंड हर लम्हा अपनी लंबाई बढ़ा रहा था और मेरे इरादों का सबूत था। मैं जाकर दीदी के पास बैठा। अक्षय कुछ दूर लेटा था। मैं दीदी के होंठों पर झुक गया। दीदी ने मेरे होंठ दबा लिए और चूसने लगीं। उनकी सांसें गरम होती मैं बखोबी महसूस कर रहा था। मैं उनके बेहद गोलाई लिए मम्मों पर आहिस्ता आहिस्ता हाथ फेर रहा था। और फिर मैंने उन बड़े मम्मों पर अपने तपते हुये लब रखे और चूसने लगा ही था की मेरे मुँह में दूध आने लगा। दूध का जायका अब अंजान हो गया था मेरे लिए। मैंने उसे थूक दिया।
दीदी बोलीं-“क्यों मजा नहीं आया…”
मैंने दूसरे मम्मे की निप्पल दबाई तो वह भी उबल पड़ी। अब मैं कुछ दूध हलक से उतार गया। लेकिन जायका पसंद नहीं आया।
इसलिए जल्द ही मुँह हटाकर अपना मुँह अपनी पसंद की जगह यानी चूत पर ले गया। दीदी की चूत जो काफी मोटी हो गई थी पिछले दिनों, अब वापिस अपनी जगह जा चुकी थी। मैं उसके लब खोलकर उसे चूसने लगा। और दीदी मजे से लेटी चुसवाती रहीं। और कुछ देर बाद मेरा लंड दीदी की चूत में आ जा रहा था। मुझे काफी तंग लगी। दीदी ने भी एक दो बार जोर से सिसकी सी ली लेकिन फिर चूत में मेरे थूक की नमी और चूत से छूटे पानी की वजह से आसानी हो गई।
दीदी ने ज़ज्बात से लरजती आवाज में कहा-“प्रेम अब मनी अंदर ना छोड़ना। वरना में दोबारा प्रेगनेंट हो जाउन्गि…”
मैंने फुलती सांसों में कहा-“दीदी फिर कहाँ निकालूं…”
दीदी बोलीं-“मेरी गान्ड का सुराख खोल दो प्रेम़…”
और मैं एकदम से सुन्न हो गया। और जल्दी से निकाल लिया अपना लंड। क्योंकी अभी तो इसको अंजान राहों का मुसाफिर बनना था। और दीदी फौरन ही घोड़ी बनकर गान्ड निकाल कर तैयार हो गईं। सुराख सामने था मेरे, बिल्कुल बंद, कंवारा, टाइट, हल्का गुलाबी और मैं बेइखतियार गान्ड के सुराख में अपनी जबान चलाने लगा। जबान की नोक थोड़ी सी अंदर जा पा रही थी। वाकई बेहद बंद था वोह, हालांकी मैंने पूरी कुवि से गान्ड को दोनों जानिब खोल रखा था।
खैर, मैं खड़ा हुआ और दीदी की गान्ड में उंगली घुसा दी बहुत ही बेदर्दी से। दीदी की चीख सुनकर दरख़्त पर बैठे परिंदे उड़ गये। मैं कुछ देर तक उंगली गान्ड के सुरख में चलाता रहा फिर अपने लंड पर हाथ फेरा। दीदी ने उसे मुँह में ले लिया और फिर थोड़ी देर बाद दीदी का थूक मेरे लंड से टपक रहा था। और इसी से मुझे दीदी की गान्ड का तंग सुराख खोलना था। मैं तैयार था और फिर वह जंगल, वहाँ का सुकून, वहाँ की खामोश फ़िज़ा, दीदी की भयानक चीखों से गूंज रही थी। और मेरा लंड गान्ड के सुराख में धंसता जा रहा था। दीदी रो रही थी, मदद को चीख रही थी, मुझे रुकने का बोल रही थी, लेकिन मेरा लंड सारी रुकावटें सारी दीवारें पार करता गहराइयों में उतरता गया। और फिर कुछ ना रह गया। सिवाए दर्द से भरी आवाजों और सिसकियाँ, जो दीदी के मुँह से निकल रहीं थीं।
फिर मैंने झटके मारने शुरू किए। खून की धार रानों से होती घास के सब्ज़ फर्श को रंगीन बनाने लगी। और दीदी दर्द से बेहाल, चीखें जा रहीं थीं। कामिनी भी आ गई वो घबरा गई थी लेकिन जब उसने दीदी को घोड़ी बने देखा और मुझे उनपर सवार गान्ड में लंड डालते देखा तो खामोशी से अक्षय को उठाकर उसको टहलाने लगी। बेचारा मासूम अपनी माँ की चीखों से परेशान था। मैं कितनी ही देर गान्ड के सुराख को चोदता रहा। मेरा लंड बुरी तरह दर्द कर रहा था। और फिर खून भरी मनी गान्ड से उबलने लगी और मैं धप से गिर गया और मेरे साथ दीदी भी।
गान्ड खुल चुकी थी दीदी की। दीदी काफी देर बाद उठीं और नदी में जाकर नहाने लगीं। फिर दीदी ने आज फिर वह दिन याद दिला दिए। दीदी-“याद है जब तुमने पहली बार मेरी चूत खोली थी। कितना दर्द हुआ था मुझे। आज तो बहुत ही तकलीफ है। और फिर दोस्तों… यह एक मामूल बन गया। अब कामिनी और दीदी दोनों ही चुदवाति थीं। फरक सिर्फ़ इतना था की दीदी अब चूत में मनी छोड़ने को मना करतीं, जबकी कामिनी की चूत मेरी मनी से भरी रहती।
और एक साल और बीत गया इसी तरह। 1953 अगस्त… वोही हसीन दिन गुजर रहे थे। अक्षय अब सवा साल का हो चुका था। 15 साल से ज्यादा का अरसा हम यहाँ गुजार चुके थे। मैं अब अपनी दोनों बहनों को चोदता। अब उनकी चूतें और गांडे खुल चुकी थीं। अब दीदी फिर अपनी चूत भर लिया करतीं थीं मेरी मनी से और इसका नतीजा बहुत जल्द आया, अबकी दफा।
यह साल के अंत की बात है जब कामिनी और दीदी दोनों के पीरियड एक के बाद एक रुक गये और अगले ही महीने हमारे शक यकीन में बदल गये। मेरी दोनों बहनें उमीद से थीं। दोनों को हमल ठहर गया था। दोनों के पेट बाहर चले आ रहे थे। मुझे याद है जरा जरा, दीदी दिसंबर 1953 में और कामिनी जनवरी 1954 में प्रेगनेंट हुई। और अब हमें इंतजार था आने वाले मेहमानों का, जो बहुत जल्द हमारी इस छोटी सी दुनियाँ में आँख खोलने वाला था।
अक्षय अब दो साल का हुआ ही चाहता था। और उसके दूसरे बहन भाई अब आना ही चाहते थे।
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बस दोस्तों अब मेरी दास्तान के कुछ आख़िरी लम्हात के चंद ही वाकियात हैं जो मैं आपको अगली किस्त में सुना दूंगा। और वहीं हमारा साथ ख़तम होगा। बस मैं कह चुका।
मेरे दोस्तों, मेरे यारों, बस अब यह बूढ़ा बहुत थक गया है। जिंदगी मजीद मोहलत देने को तैयार नजर नहीं आती। ना जाने कब यह लड़खड़ाती जबान बंद हो जाए। ना जाने कब यह काँपते लब थम जाएूँ। अब आप मेरी जिंदगी के आख़िरी वाकियात जरा मुख़्तसिर मुलाहिजा फेरमा लें। फिर मोका मिले ना मिले।
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