RE: Hindi Porn Story हसीन गुनाह की लज्जत - 2
कार में वसुन्धरा ने मुझसे कोई बात नहीं की अपितु सारे रास्ते वसुन्धरा अधमुंदी आँखों के साथ मंद-मंद मुस्कुराती रही, शायद उन लम्हों को मन ही मन दोहरा रही थी. वसुन्धरा के रुख पर रह-रह कर शर्म की लाली साफ़-साफ़ झलक रही थी. वसुन्धरा की आँखें बार-बार झुकी जा रही थी, होठों पर हल्की सी मुस्कान आ गयी थी और माथे पर लिखा 111 कब का विदा ले चुका था, आवाज़ में से तल्ख़ी गायब हो चुकी थी और उस के हाव-भाव में आक्रमकता की बजाये एक शालीनता सी आ गयी थी.
इस आधे-पौने घंटे ने वसुन्धरा के व्यक्तित्व में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया था, एक स्त्री को स्त्री वाला अंतर्मन दे दिया था.
होटल की पार्किंग में कार लगाते हुए वसुन्धरा मुझ से मुख़ातिब हुई.
“सुनिए! प्लीज़ आप …”
“कुछ मत कहिये वसुन्धरा जी! ये एक सपना था और सपनों को सिर्फ याद किया जाता है, आलम में जिक्र कर-कर के उनको रुसवा नहीं किया जाता.” इस से पहले वसुन्धरा कुछ और कहती, मैंने वसुन्धरा के दिल की बात बूझ कर पहले ही उसको मुतमईन कर दिया.
“और वसुन्धरा जी! आप भी ध्यान रखना प्लीज़! हम घर नहीं गए, कोई कारण ही नहीं था घर जाने का. हम ब्यूटी-पॉर्लर से सीधे शादी वाले होटल में आएं हैं, इसीलिये आपके पुराने पहने हुए कपड़ों वाला अटैची कार में हमारे साथ ही होटल आ गया है.”
वसुन्धरा को अब समझ आया कि क्यों मैं उसके पुराने पहने हुए कपड़ों वाला अटैची कार में रखकर साथ ही होटल ले आया हूँ.
“थैंक यू!”
मैंने वसुन्धरा की ओर देखा. होंठों से वो सिर्फ धन्यवाद कह रही थी लेकिन उसकी आँखों में तो जैसे भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा था.
बाद का किस्सा-ऐ-मुख़्तसर तो यह रहा कि प्रिया की शादी बहुत धूमधाम से हुई और शादी के बाकी के समारोह में वसुन्धरा का सब के साथ व्यवहार आश्चर्यजनक रूप से शालीन और मधुर रहा.
शादी के समारोहों में यदा-कदा मैं वसुन्धरा की ओर देखता तो उसको अपनी ही ओर निहारते पाता. ज्वालामुखी के अंदर ज़बरदस्त हलचल जारी थी. प्रिया की विदाई मेरे ही घर से हुई. तारों की छाँव में विदा होते वक़्त प्रिया मेरे भी गले लग कर रोई, हालांकि विदाई के इतने ज़ज़्बाती लम्हे में भी मुझसे सट कर रोते वक़्त प्रिया भारी चुनरी की ओट में मुसलसल अपने बाएं हाथ से मेरे लिंग को पतलून के ऊपर से सहलाती रही … सहलाती क्या रही, लिंग पर मुट्ठियाँ सी भरती रही. शायद वो मेरा प्रिया से आखिरी अंतिम स्पर्श था.
प्रिया की विदाई के कुछ घंटे बाद प्रिया के मम्मी-पापा, वसुन्धरा और उस का परिवार भी अपने-अपने घर के लिए विदा हो गए पर एक बात क़ाबिल-ऐ-ग़ौर थी. वसुन्धरा ने ना तो हमारे फ़ोन नंबर लिए, न अपने कॉन्टेक्ट नम्बर दिए.
हाँ! इतना ज़रूर था कि हम लोगों से विदा लेकर कार में बैठते वक़्त वसुन्धरा की आँखें भी भरी-भरी सी थी. फ़क़त दो दिन पहले वसुन्धरा और आंसू … जैसी कल्पना करना भी मुहाल था. किससे बिछुड़ने के ग़म में वसुन्धरा की आँख भर आयी थी?
क्या मुझ से? क्यों नहीं … यकीनन! मुझसे बिछुड़ने के कारण ही ऐसा था.
चहल-पहल से भरा-पूरा एक घर महज़ चंद घंटों में ही खाली-खाली सा लगने लगा. लेकिन यही जिंदगी की रीत है. समय का पहिया तो अनवरत गतिमान रहता है. रात आयी, दिन चढ़ा, दिन ढला, फिर रात आयी. प्रिया की शादी के बहुत दिन बाद तक मैं अनमना सा रहा लेकिन धीरे-धीरे हमारी जिंदगी भी अपने ढर्रे पर वापिस लौट आयी. दिन हफ़्तों में और हफ्ते महीनों में बदलते चले गए.
कालांतर में प्रिया भी अपने पति के पास आस्ट्रेलिया चली गयी. कभी-कभार आस्ट्रेलिया से प्रिया का फ़ोन आ जाता तो “हैलो-हाय, क्या हाल है, कैसी हो, खुश तो हो?” जैसी रस्मी सी बातचीत भी हो जाती थी. प्रिया की बातों से लगता था कि वो अपने पति के साथ खुश है.
इक अनजानी सी ईर्ष्या की भावना दिल में सर उठाती तो थी लेकिन मैं दुनियादार आदमी था, सब ऊंच-नीच समझता था. मेरा खुद का एक परिवार था, बीवी थी, बच्चे थे, समाज में मेरा एक मुकाम था और प्यार के नाम पर इन सब को दांव पर नहीं लगाया जा सकता था.
और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मैं खुद ही ऐसा करना नहीं चाहता था. तो … ‘जो मिला, वही ग़नीमत’ पर अमल कर उस ईर्ष्या की भावना को दिल ही में दफ़न कर देता था.
लेकिन एक बात थी, जिस दिन प्रिया का फ़ोन आता, उस रात मेरी कामुकता बिस्तर में वो कहर ढाती कि बेचारी सुधा दो-दो दिन ठीक से चल भी नहीं पाती. मेरे ख्याल से मेरी ऐसी बेलगाम कामुकता मेरे अवचेतन मन की अतृप्त और दबायी गयी ख़्वाहिश … प्रिया की ख़्वाहिश का ही नतीजा था.
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