RE: Hindi Porn Story हसीन गुनाह की लज्जत - 2
कभी-कभार अनचेतन वसुन्धरा का ख्याल भी आ कर दिल पर दस्तक दे जाता ‘जाने कैसी होगी वो? शायद उस की शादी की कहीं कोई बातचीत चली हो. मुझे याद करती होगी या नहीं … करती तो होगी!’ ऐसे कितने ही विचार मन में आ विचरते.
अखबार में कभी कहीं कोई शिमला की या डगशाई की कोई ख़बर होती तो मैं सारी ख़बर बहुत ध्यान से पढ़ता … जाने क्यों!
और फिर करीब एक साल बाद एक दिन:
नवंबर महीने का दूसरा हफ्ता चल रहा था … दोपहर करीब बारह-सवा बारह का टाइम रहा होगा कि वसुन्धरा के पापा मेरे ऑफिस आये. उन्हें इस तरह अचानक आया देख कर मुझे फ़ौरन वसुन्धरा का ख़्याल आया. क्या जाने वसुन्धरा की कहीं शादी तय हो गयी हो और ये साहब उसी का न्यौता देने आयें हों.
लेकिन नहीं … बात व्यापारिक थी. हिमाचल में मिनिस्ट्री ऑफ़ एजुकेशन ने अपने बहुत सारे हाई-स्कूलों के लिए बहुत सारे कम्यूटर्स … बहुत सारे बोले तो कोई पांच सौ से कुछ ज्यादा ही कम्यूटर्स खरीदने का टेंडर निकाला था और टेंडर 28 नवंबर को खुलना था. अब कम्यूटर मेरी लाइन थी और वसुन्धरा के पापा अंदर के आदमी थे तो उन्हें मेरा ख़्याल आया, इसीलिए वो मेरे पास बिज़नेस ऑफर ले कर आये थे.
मिनिस्ट्री से सारी माथा-पच्ची वसुन्धरा के पापा ने करनी थी. इंस्टालेशन की और मिनिस्ट्री से पेमेंट लेने की सारी सिरदर्दी बड़े मियाँ की थी, मुझे कम्यूटर्स असैम्बल करवा के शिमला, सिर्फ वसुन्धरा के पापा तक पहुंचाने थे और मुझे मेरी सारी पेमेंट वसुन्धरा के पापा से मिलनी थी. ये सब कुछ 31 जनवरी से पहले-पहले ख़त्म करना था.
हाँ! इस दौरान मुझे शिमला के दो एक चक्कर लगाने होंगें. पहले तो टेंडर अटेण्ड करने और नेगोटिएशन्स के लिए, फिर इक बार प्री-डिलीवरी इंस्पेक्शन के लिए आदि-आदि.
पांच सौ कम्यूटर्स! अगर मैं सब ख़र्चे निकाल कर पांच सौ रुपये प्रति कम्यूटर के हिसाब से भी अपना प्रॉफिट रखता तो फ़िगर ढाई लाख के पार जाती थी. न करने का तो सवाल ही नहीं था लेकिन पाठकगण! मैं झूठ नहीं बोलूंगा कि हाँ करने के कई कारणों में से एक उम्मीद … चाहे बेजा ही थी, लेकिन वो यह थी कि शायद मेरी शिमला-फेरी के दौरान किसी रोज़ मेरी वसुन्धरा से मुलाकात हो जाए.
ख़ैर! वसुन्धरा के पापा मुझे 28 नवंबर को शिमला आने का न्यौता भिजवाने का कह कर ख़ुशी-ख़ुशी विदा हो गए.
टेंडर खुलना था 28 नवंबर, वीरवार शाम 4 बजे और उसके बाद एल-1 और एल-2 के साथ नेगोसिएशन. अगर टेंडर समय की पाबंदगी के साथ ठीक 4 बजे भी खुलता जो सरकारी दफ्तरों में कभी होती नहीं तो भी शाम 7-8 तो मुझे मिनिस्ट्री में ही बज जाने थे.
अब सर्दियों का मौसम में अँधेरी, ठंडी रात में पहाड़ी सड़क पर कार चला कर वापिस अपने शहर आना बहुत दुरूह कार्य था, लिहाज़ा! मुझे रात शिमला में ही ठहरने का इंतज़ाम करके जाना था.
अगले ही दिन वसुन्धरा के पापा का फोन आ गया. चूंकि वही तो सारी योजना के कर्णधार थे और उन्हें सब पता था इसलिए उन्होंने इसरार किया कि रात मैं होटल में न रुक कर उनके घर में ही रुकूँ.
यूं वीरवार को वसुन्धरा के शिमला वाले घर में होने की संभावनाएं अत्यंत क्षीण थी लेकिन फिर भी मैंने हामी भर दी.
खैर जी! मैं नियत दिन, नियत समय पर शिमला जा पहुंचा, टेंडर हमारे हक़ में ही खुला. वसुन्धरा के पापा और मेरी अंडर-सैकेट्री मिस्टर रावत के साथ मुलाक़ात बहुत ही बढ़िया रही. जो कि कालांतर में मेरे लिए बहुत प्रॉफिटेबल और परमानेंट बिज़नेस की आधारशिला बनी.
लेकिन दो-तीन मुद्दे रह गए थे जिन पर फैसला अगले दिन होना था लिहाज़ा हमें अगले दिन मिनिस्ट्री दोबारा जाना था. शाम करीब साढ़े-सात बजे मैं, वसुन्धरा के पापा के साथ उनके घर चला गया.
घर जाकर पता चला कि वसुन्धरा नहीं आयी थी. कोफ़्त तो हुई लेकिन क्या किया जा सकता था!
अभी नवम्बर के आखिरी दिन चल रहे थे और मैदानों में तो इतनी सर्दी नहीं थी लेकिन शिमला में तो रातें ख़ासी ठंडी हो चली थी. फ़्रेश होकर साढ़े आठ बजे के आस-पास मैं और वसुन्धरा के पापा ड्रिंक्स लेने बैठ गए.
बातों-बातों में वसुन्धरा की और वसुन्धरा की शादी की बात चल निकली.
“राज जी! सब मेरी गलती है जो मेरी बेटी मेरी आँखों के सामने तिल-तिल कर मर रही है. बहुत साल पहले एक बहुत अच्छा रिश्ता आया था वसुन्धरा के लिए और वसुन्धरा को लड़का पसंद भी था लेकिन मैं ही चूक गया. मुझ पर ही भूत सवार था किसी मिल्ट्री-ऑफिसर को दामाद बनाने का और मेरी इस बेकार की जिद ने सब गुड़-गोबर कर दिया. उस सब के बाद तो मुझ में और वसुन्धरा में इतना फ़ासला बढ़ गया है कि वसुन्धरा को मुझ से बात किये भी मुद्दत हो गयी.
यह उनका घरेलू मसला था, मैं इस में क्या कह सकता था सो! सिर्फ सुन रहा था.
“अभी पिछले महीने ही एक बहुत अच्छा रिश्ता आया है वसुन्धरा के लिए. लड़का फौज में मेजर है, बहुत ही शरीफ लोग हैं और ऊपर से अपनी ही जाति के हैं. वसुन्धरा और वो लड़का, दोनों साथ-साथ पढ़े भी हुए हैं लेकिन वसुन्धरा तो शादी वाली बात सुनने को भी तैयार नहीं!”
“राज जी! अगर आप चाहो तो हमारी मदद कर सकते हो.”
“मैं! कैसे? ”
थोड़ा जोर देने पर वसुन्धरा के पापा ने इसरारपूर्वक कहा कि अगर मैं, (मैं … बोले तो राजवीर!) वसुन्धरा से इस बारे में थोड़ा बात करे तो शायद वसुन्धरा मान जाए क्योंकि छोटे ने (प्रिया के पापा ने) बताया था कि प्रिया को शादी के लिए भी मैंने ही राजी किया था और ऊपर से वसुन्धरा मेरा मान करती है, ये उन सबने प्रिया की शादी में देख ही लिया था.
“बाप रे बाप! किस चक्रव्यूह में धकेल रहे थे बड़े मियाँ!” लेकिन अब तो न कहने की या पीछे हटने की स्टेज गुज़र चुकी थी तो मैंने एक कोशिश करने की हामी भर दी.
रात साढ़े दस बजे के आस-पास डिनर-टेबल पर वसुन्धरा के पापा ने बताया कि वसुन्धरा की मां ने अभी-अभी वसुन्धरा को फोन लगा कर आपके यहां होने की खबर दी तो वसुन्धरा ने कहा है कि वो कल सवेरे 12 बजे तक यहां पहुँच जायेगी. आपके लिए वसुन्धरा का संदेसा है कि आप हरगिज़ भी उससे मिले बिना ना जाएँ.
इतना सुनकर मेरे पेट में तितलियाँ सी उड़ने लगी. एक साल और आठ दिन हो चुके थे, वसुन्धरा को देखे. कैसी दिखती होगी वो? क्या मेरा सामना पुरानी सड़ियल, तल्ख़, कठोर वसुन्धरा से होने जा रहा था या फिर साक्षात रति-रूप, कामांगी वसुन्धरा मेरे रु-ब-रु होगी?
साल पहले की वसुन्धरा की पिंक चोली और पिंक पेंटी में मेरी ओर चली आने वाली क़ामायनी छवि मेरी आँखों के सामने मूर्त हो उठी.
वो रात मुझ पर बहुत भारी गुज़री. बहुत देर तक पुरानी यादें बड़ी शिद्दत से मेरे ज़ेहन में मंडराती रही. बहुत रात गए मुझे नींद आयी.
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