RE: Hindi Porn Story हसीन गुनाह की लज्जत - 2
सर से पांव तक भीगा हुआ मैं, कार चला कर वसुन्धरा को साथ लिए भरी बरसात में साढ़े सात बजे के लगभग धर्मपुर पहुंचा तो ऐसा लग रहा था कि जैसे हम किसी भूतिया नगर में पहुंच गए हों. सारे शहर की बिजली गुल, सड़क पर कोई बंदा न बन्दे की ज़ात. न कोई बस, न कोई टैक्सी. ऊपर से खराब मौसम और रात सर पर खड़ी.
ऐसे में अकेली वसुन्धरा को धर्मपुर उतारने को मेरा मन नहीं माना. वैसे डगशाई वहाँ से सात-आठ किलोमीटर ही दूर था. जहां सत्यानाश … वहां सवा-सत्यानाश. मैंने तत्काल फैसला ले लिया. जैसे ही मैंने कार डगशाई की ओर मोड़ी तो वसुन्धरा चौंकी.
“इधर किधर?”
“आपको आप की मंज़िल तक पहुँचाना नहीं क्या?” मैंने थोड़ा हंस कर कहा, हालांकि ठण्ड से मेरी कुल्फी जमे जा रही थी.
“मेरी मंज़िल तो मेरे पास है लेकिन मेरी किस्मत में नहीं.”
यहा तक आपने पढ़ा अब आगे-
“क्या मतलब?” मैं चौंका.
“मेरी मंज़िल तो मेरे पास है लेकिन मेरी किस्मत में नहीं.”
“क्या मतलब?” मैं चौंका.
मैं वसुन्धरा की बात का मर्म समझ तो गया था लेकिन थोड़ा कंफ्यूज़ था. कुछ था जो मेरी जानकारी से बाहर था.
डगशाई पहुँच कर वसुन्धरा मुझे रास्ता बताती गयी और हम लोग एक घुमावदार और सुनसान सी सड़क के सिरे पर स्थित वसुन्धरा के कॉटेज पहुँच गए.
घड़ी में तब लगभग आठ बज़ रहे थे. तब तक बारिश भी हो बंद चुकी थी लेकिन तेज़ सर्द हवा चल रही थी. जैसे ही वसुन्धरा अपना बैग लेकर कार से उतरी तो मैंने कहा- अच्छा … वसुन्धरा जी!
“क्या मतलब?”
“मैं चलता हूँ वसुन्धरा जी! मैंने बहुत दूर जाना है.”
“फालतू बात मत कीजिये, अंदर चलिए, गीले कपड़े बदलिए, एक कप काफ़ी पीजिये, फिर चले जाइयेगा.”
बात तो वसुन्धरा ठीक ही कह रही थी. कपड़े बदलने जरूरी थे, गीले कपड़ों में मेरी हालात पहले ही पतली हो रही थी.
मैंने गाड़ी साइड में लगाई और कार में से अपना सूटकेस निकला और वसुन्धरा के पीछे-पीछे अंदर चला गया.
अंदर जा कर सूटकेस में से तौलिया, सूखे अंडर गारमेंट्स और दूसरा सूट निकला और बाथरूम में जा घुसा. अपने पहने हुए कपड़े उतार कर जैसे ही खूंटी पर टांगने लगा तो खूँटी पर पहले से ही टंगा वसुन्धरा का नाईट-गाउन नीचे गिर गया और नाईट-गाउन के नीचे टंगी कल की पहन कर उतारी हुई वसुन्धरा की काली ब्रा और साटन की जाली वाली काली पेंटी नुमाया हो गयी.
फ़ौरन ही मेरे लिंग में भयंकर तनाव आ गया. अचानक ही मुझे किसी प्रकार की जल्दी नहीं रही. वैसे तो वसुन्धरा से मुझे कुछ ख़ास उम्मीद नहीं थी लेकिन इंसानी ख़्वाहिशों और कल्पनाओं का कोई ओर-छोर तो होता नहीं.
मैंने वाशरूम में ही एक ज़ोरदार हस्तमैथुन करके अपने लिंग को खूब ठन्डे पानी से अच्छी तरह से धोया और फिर तौलिये के साथ अच्छे से सुखा कर, कपड़े बदल कर मैं कमरे में आया तो सामने मेज पर एक भाप उड़ाती कॉफ़ी का मग रखा था और टेबल से दूसरी ओर दोनों हाथों में कॉफ़ी का मग लिए, सोफे के ऊपर पाँव मोड़ कर शिफ़ौन की साड़ी में बैठी वसुन्धरा गहरी नज़रों से मेरी ओर देख रही थी.
मैंने अपने उतारे हुए गीले कपड़े पॉलिथीन में लपेट कर सूटकेस में रखे, जूते पहने, आकर टेबल पर से अपना कॉफ़ी का मग क़ाबू किया और वसुन्धरा के सामने वाले सोफा-चेयर पर बैठ गया.
“वसुन्धरा जी! आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?”
“इतनी अच्छी शाम, इतना अच्छा साथ … आप कोई और बात कीजिये न प्लीज़! ” वसुन्धरा का मन नहीं था उस टॉपिक पर बात करने को और ऐसी बातों में ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं चलती.
“ओके! आप यहाँ अकेली रहती है, डर नहीं लगता?”
“खुद से क्या डरना! डर तो दूसरों से होता है.”
तौबा तौबा! हर बात घूम-फिर कर उसी दिशा में जा रही थी.
“वसुन्धरा जी …”
“राज … एक मिनट! आप मुझे बिना ‘जी’ के नहीं बुला सकते? मैं भी तो आप को बिना ‘जी’ के बुला रहीं हूँ.”
“कहने को तो मैं आप को ‘तू’ कह कर भी बुला सकता हूँ वसुन्धरा जी! लेकिन अभी आपने मुझे ऐसा अधिकार दिया नहीं है.”
“आप क्या जानो …” कहते कहते वसुन्धरा सोफे से उठी और टेबल पर अपना कॉफ़ी का मग रख कर टेबल की अर्धपरिक्रमा कर के एकदम मेरे सामने, मेरे पास आ खड़ी हुई. मैं हड़बड़ा कर काफ़ी का मग छोड़ कर सोफा-चेयर से उठ ख़ड़ा हुआ.
वसुन्धरा ने धीरे से मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में लिया और बोली- मैंने अपने सारे अधिकार, सारे इख़्तियार, खुद मैं … मेरी जिंदगी और मेरी जिंदगी से बावस्ता सारे फ़ैसले और उन फैसलों के सारे नतीज़े … मैंने बहुत साल पहले आप के नाम कर दिये थे, बस! आपको बताया ही नहीं था. लीजिये! आज आपको बता भी दिया.” कहते-कहते वसुन्धरा की आँखों से मोती ढलकने लगे.
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