RE: Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास )
"और क्या पूछना चाहते हो ?" - वह बोली ।
"कुछ नहीं ।”
"तुम्हें मुझ पर विश्वास है ?"
"हां ।"
"तुम मानते हो मैं बेगुनाह हूं?" )
"तुम कहती हो तो मानता हूं।"
"ओह, राज, तुम कितने अच्छे हो !" वह मेरे से लिपट गई। उसने मेरे गले में बांहें डालकर मुझे अपनी तरफ घसीटा । उसने मेरे होठों पर अपने गुलाबी होंठ रख दिये। विस्की का गिलास अभी भी मेरे हाथ में था।
उसने मेरा निचला होंठ इतनी जोर से काटा कि उसमें से खून छलक आया । मैंने जोर से सिसकारी भरी।।
"यह तुम्हारी सजा है।" - वह इठलाई ।
"किस बात की ?"
"मुझे थामने की जगह अभी भी विस्की का गिलास थामे रहने की ।" मैंने गिलास करीब पड़ी मेज पर रख दिया।
फिर मैं बाज की तरह उस पर झपटा।। उसने एतराज न किया। पुरुष के साथ सहवास में जोर-जबर्दस्ती और धींगामुश्ती शायद वो पसंद करती थी । मेरे हाथ उसके जिस्म की विभिन्न गोलाइयों पर फिरने लगे। हम दोनों की ही सांसे भरी होने लगीं। जब मैंने उसकी नाइटी खोलने की कोशिश की तो वह एतराज करने लगी।
"क्या हुआ ?" - मैं हैरानी से बोला।
"यहां नहीं ।" वह मेरे एक कान की लौ अपने तीखे दांतों से चुभलाती हुई बोली।
"तो कहां ?" - मैं तनिक हांफता हुआ बोला ।
"बैडरूम में ।"
"वो कहां है?"
"ऊपर।"
"चलो।"
"लेकर चलो।"
"उसके साथ लिपटे-लिपटे ही पहले मैंने हाथ बढ़ाकर अपना विस्की का गिलास उठाया और उसे खाली किया, फिर मैंने उसे अपनी गोद में उठा लिया और उसके निर्देश पर चलता हुआ उसे पहली मंजिल पर स्थित एक बैडरूम में ले आया। । वह गुलाबी दीवारों वाला, साटन की गुलाबी चादरों से और सिल्क के गुलाबी पर्यों से सुसज्जित बैडरूम था। " मैंने उसे पलंग पर डाल दिया।
फिर मैं अपने जूते, कोट और टाई अपने जिस्म से जैसे नोचकर अलग किए । उसी क्षण उसने हाथ बढ़ाकर मुझे पलंग पर घसीट लिया।
मैं उसके पहलू में जाकर गिरा।
फिर एकाएक कमरा जैसे लट्ट बन गया जो पहले धीरे-धीरे और फिर तेजी से घूमने लगा। मुझे एक की दो कमला दिखाई देने लगीं।
फिर चार ।
फिर आठ।
फिर मेरी आंखों के सामने दीवाली के अनार फूटने लगे। सितारे ही सितारे । लाल, नीले पीले और हरे ।। फिर एकाएक लटू घूमना बंद हो गया और घुप्प अंधेरा छा गया ।
जब मुझे होश आया तो मैंने उगते सूरज की रोशनी खिड़की के पर्दे में से छन-छानकर भीतर आती पाई। मैं हड़बड़ाकर उठा। मैंने अपनी कलाई-घड़ी पर दृष्टिपात किया । साढ़े छ बज चुके थे। मेरा सिर मुझे मन भर के पत्थर की तरह भारी लगा। मैंने अपने इर्द-गिर्द निगाह डाली। कमला दीन-दुनिया से बेखबर मेरे पहलू में सोई पड़ी थी। मैं हैरान होने लगा।
रात से दिन कैसे हो गया ?
जितनी विस्की मैंने कल पी थी, उससे तिगुनी-चौगुनी विस्की तो मैंने हजारों बार पी थी यानी कि नशे की वजह से तो ऐसा हुआ हो नहीं सकता था । ऊपर से मेरा सिर भी अजीब तरह से था। वह भारीपन हैंगओवर वाला तो नहीं था। तो फिर ?
मेरी अक्ल ने यही गवाही दी कि मैं पिछली रात किसी षड्यंत्र का शिकार हुआ था । जरूर मेरी विस्की में बेहोशी की दवा मिलाई गई थी।
किसने किया होगा ऐसा ? मेरी निगाह अपने-आप ही सोई पड़ी कमला की तरफ उठ गई । इसने ऐसा क्यों किया ? जवाब मेरे पास नहीं था।
उन हालात में उसे उठाकर जवाब हासिल करने का मैं ख्वाहिशमंद नहीं था। मैंने फर्श पर गिरे पड़े अपने कपड़े समेटे और उनके साथ टॉयलेट में दाखिल हो गया। खान मार्केट में एक टी-स्टाल था जो कि खुला था। मैं उसमें जा बैठा । अब मेरी तबीयत पहले से बेहतर थी लेकिन सिर का भारीपन अभी भी बरकरार था। उसी की वजह से मुझे चाय की भारी तलब लग रही थी। टी-स्टाल में आठ-दस आदमी मौजूद थे। छोकरा मुझे चाय दे गया । मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और चाय की चुस्कीयां लेने लगा। सिगरेट मुझे इतना कसैला लगा कि मैंने उसे एक ही कश लगाकर फेंक दिया । अलबत्ता चाय मुझे राहत पहुंचा रही थी।
तभी एक वर्दीधारी हवलदार ने स्टील में कदम रखा।
वह मालिक के काउंटर के पास ही एक कुर्सी घसीटकर बैठ गया । जिस रफ्तार से उसके हाथ में चाय का गिलास पहुंचा, उससे मुझे लगा कि वह मालिक का परिचित था।
"दारोगा साहब ।" - एकाएक मालिक बोला - "यह क्या हो रहा है दिल्ली शहर में तुम्हारे राज में ?"
"अब क्या हुआ ?" - हवलदार हड्बड़ाया।
"अखबार नहीं देखा आपने आज का ?"
"नहीं । क्या है उसमें ?
|