RE: Adult Stories बेगुनाह ( एक थ्रिलर उपन्यास )
"कोई बात नहीं । शादी गिरफ्तारी में भी हो सकती है। मैं कल सुबह ही तुमसे शादी कर लेना चाहता हूं।"
“यहां ? हवालात में ?"
"हां । कल सुबह मैं कुछ गवाहों और पंडित के साथ यहां आऊंगा । वह यहीं हमारी शादी करा देगा।"
"ये थाने वाले ऐसा होने देंगे ?"
"मैं पुलिस कमिश्नर की इजाजत लेकर आऊंगा।" ।
"और अगर मैं कत्ल के इल्जाम में फांसी चढ़ गई तो ?"
"नहीं चढोगी । कोई पति अपनी पत्नी को यूं फांसी पर नहीं चढने दे सकता । तुम्हें बेगुनाह साबित करने के लिए मैं
जमीन-आसमान एक कर दूंगा । तभी तो तुम्हें मेरी निष्ठा और ईमानदारी का सबूत मिले।।” |
"यह जमीन-आसमान एक" - बलराज सोनी बोला - "तुम्हे फांसी से बचाने के निरन, राके लिये करेगा । यह तुम्हारी दौलत हथियाने के लिए तुमसे शादी करना चाहता है।"
"तुम गन्दे दिमाग के आदमी हो" - मैं नफरतभरे स्वर में बोला- “इसलिए कोई गन्द ३ ३ । । बीते युग के आदमी हो । तुम आज की तेजरफ्तार दुनिया को नहीं समझते । तुल रु ।” कमला की तरफ घूमा - "कमला, तुम हां बोलो । देखना, सारी दुनिया के अखबारों में राम |
अनोखी शादी कभी किसी ने नहीं की होगी । बोलो हो ।”
"हां ।"
"मैं भी पंजाबी पुत्तर हूं।" - मैं खुद अपनी छाती ठोकता हुआ बोला - "और एक डर मैं किसी बात के पीछे पड़ जाऊं सही । फिर या तो वो बात नहीं या मैं नहीं । अगर है न दिखाया तो समझ लेना मैं अपने बाप की औलाद नहीं। अगर मेरी बीवी धर उसकी चिता में कूद गया तो कहना।"
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निजामुद्दीन से जनपथ मैं सीधा न गया । पहले मैं कनाट प्लेस पहुंचा । सारे रास्ते मेरी निगाह कार के रियरव्यू मिरर पर । टिकी रही । सारे रास्ते एक कार मुझे अपने पीछे लगी दिखाई दी। मैं अपने ऑफिस पहुंचा । डॉली ऑफिस बन्द करके जा चुकी थी। मैंने अपनी चाबी से ताला खोला और भीतर दाखिल हुआ । जब से वह केस शुरू हुआ था, तब से पहली बार मेरे अपने ऑफिस में कदम पड़े थे । मैंने अपने ऑफिस में जाकर खिड़की का पर्दा तनिक सरकाकर बाहर झांका । जो कार मेरे पीछे लगी हुई थी, वो मुझे नीचे पार्किंग में खड़ी दिखाई दी।
मैंने यादव को फोन किया । गनीमत थी कि तुरन्त सम्पर्क स्थापित हो गया। मैंने उसे वस्तुस्थिति समझाई और बताया कि मैं क्या चाहता था। बड़ी मुश्किल से उसने अपने दल-बल के साथ शैली भटनागर की एडवरटाइजिंग एजेन्सी में पहुंचने की हामी भरी ।। मैं फिर ऑफिस से निकला और कार में सवार हुआ। तब भी मैं सीधा जनपथ न गया । मैं पटियाला हाउस में स्थित रजिस्ट्रार के दफ्तर में पहुंचा। वहां बतौर रिश्वत एक मोटी रकम खर्च करके मैंने अमर चावला की रजिस्टर्ड वसीयत की कॉपी निकलवाई । मैंने बहुत गौर से वह वसीयत पढ़ी और फिर उसे तह करके अपनी जेब में रख लिया। हत्यारे की दुक्की पीटने के लिये जो उद्देश्य की कमी थी, वह वसीयत की उस कॉपी ने पूरी कर दी थी। मैं जनपथ पहुंचा। मेरे पीछे लगी कार ने तब भी मेरा पीछा छोड़ नहीं दिया था। शैली भटनागर के ऑफिस में मेरी उससे मुलाकात हुई।
"कैसे आये ?" - वह बोला।
"आपने कहा था" - मैं मधुर स्वर में बोला - "कि अगर मैं फिर कभी हाजिर होऊं तो आपको असुविधा नहीं होगी।"
"यू आर मोस्ट वैलकम ।" - वह भी मुस्कुराया - "लेकिन सिर्फ इस वजह से तो तुम यहां नहीं आये होवोगे ।”
"हां" - मैंने कबूल किया - "सिर्फ इस वजह से तो नहीं आया।"
"कोई खास ही वजह होगी ?"
"खास भी है।"
"क्या ?"
"मैं दिन में भी यहां आया था। तब आप यहां नहीं थे। तब आप शायद मिसेज कमला चावला से मिलने गये हुए थे।
"कैसे जाना ?" - वह तनिक हड़बड़ाकर बोला ।
"खुद मैडम ने बताया ।"
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