RE: antervasna चीख उठा हिमालय
कुछ ही देर बाद वतन के मकान से बाहर खड़ा अपार जन-समुदाय वतन की जय जयकार कर रहा था ।
इस वक्त वतन अन्दर था---विजय, विकास, अलफांसे, पिचासनाथ और बागारोफ के घेरे में । भावुकता के भंवर में डूबे वतन को सामान्य स्थिति तक लाने में काफी मेहनत का पड़ी ।
झाडियों में से वतन ने बहुत सारी हहिडयां ढूंढ ली थी ।। निदृसन्देह वे हडिडयां उसकी मां और बहन की थी ।
उन हडिडयों को विकास ने अपने कब्जे में कर लिया था ।
विजय, अलफांसे इत्यादि ने भावुकता के भंवर मे फंसे वतन को चमन के नागरिकों के सामने ले जाना उचित नहीं समझा था ।
वतन को नियंत्रित करने में उन्हें इतनी देर लगी कि चमन के निवासियों ने आज वतन के स्वागत करने के लिए जितने प्रबंध राष्ट्रपति भवन पर किए थे---सब उसके मकान पर पहुंच गए ।।
वतन के घर के बाहर बैण्ड बजने लगे ।।
।लोग खुशी से नाच रहे थे ।
वतन बाहर अाया तो उसकी जय-जयकार से सारा आकाश गूंज़ उठा ।
चारों तरफ हर्षोल्लास, खुशियों में झूमता चमन ।। खुशियों का शोर एकाएक उस वक्त बन्द हो गया, जव हाथ उठाकर वतन ने सबको शांत किया ।
वतन के इस संकेत पर ऐसा सन्नाटा छा गया कि सुई भी गिरे तो आवाज हो ।
"मेरे प्यारे देशवासियों !" वतन की आवाज गूंज उठी…"मेरी माताओं बहनो, भाइयो और मेरे प्यारे वतन के नन्हें मुन्ने बच्चों ।। बज करीब बीस साल बाद हम आजादी की सांस रहे हैं । संकल्प करो कि आजाद ही रहेंगे, कभी दूनिया की किसी भी ताकत के अागे सिर नहीं झुकाएँगे । आज खुशी का मौका हैे-जी भरकर खुशियां मनाएं । ये दूटा-फूटा मकान, जिसमें मेरा जन्म हुआ , अाप सब इस स्थान को जानते हैं । इस मकान में मां और बहन की लाशें सड़-सढ़कर समाप्त हो गयी । इसी मकान में मैंने संकल्प लिया था कि अपने देशवासियों पर होने वाले जुल्म का सीना चीर दूंगा । इस छोटे-से देश की बागडोर खुद संभालकर इसे स्वर्ग बनाऊंगा । मेरा सौभाग्य है किं अाज अाप सब मिलकर इस देश की बागडोर मेरे हाथ में दे रहे हैं । जिस तरह आज़ तक चमन के हर नागरिक का दर्द मेरा दर्द रहा---मैं वादा करता हूं हमेशा रहेगा । मेरी इच्छा है कि अाप सब स्वयं मुझे इस मकान से ऱाष्ट्रपति भवन तक पहुचाएं ।"
इस तरह बहुत थोड़े शब्दों में वतन ने अपनी अभिलाषा प्रकट की ।।
फिर खुशियों से भरा एक जलूस वतन के मकान से चला ।।।
खुशियों में झूमते लोग अपना अस्तित्व भूलकर नाच रहे थे ।
चमन के हर बाजार, हर सड़क से यह जुलूस गुजरता चला गया ।
विकास इत्यादि जुलूस में सबसे पीछे वतन के साथ थे । चमन के नागरिकों ने सजा-संवारकर उसके बैठने के लिए एक विक्टोरिया तैयार की थी, किन्तु वतन उसमें नहीं बैठा, वह पैदल ही चल रहा था ।
वतन पर असंख्य'पुष्पों की वर्षा हो रही थी ।
"विकास अपनी आखों से सब कुछ देख रहा था…चमन् के बच्चे, स्त्री, पुरुष, बूढे़ , जवान वतन ,इस तरह पूज रहे थे मानो वह उनका राजा नहीं भगवान हो ।
बिकास ने देखा था, कोई बूढी महिला वेहद श्रद्धा के साथ उसके पास अाती वतन झुक्क कर उसके चरण छू लेता ।
---"अरे .... अरे...... " बौखलाकर महिला हटना चाहती तो वतन कहता है-"मेरी मां मरी कंहा है ? तुम तो हो ?"
गदगद होकर महिला उसे अपने सीने से लिपटा लेती । विकास ने देखी थी--महिलाओं की छल-छलाती आंखें ।
कोई युवती श्रद्घा के साथ उसे माला पहनाना चाहतीं तो बीच में ही हाथ रोककर कहता वतन…"भाई को माला नहीं पहनाई जाती बहन ! तुम तो मेरी छवि की छवि हो ।।।। जब तू इसे अपने पति के गले में डालेगी तो तुझे सहारा 'दूगा मैं ।"
आखें भरकर चरणों में झुकती तो बीच में ही रोकर बोलती पगली, भाई के पैर छुकर क्या मुझे पाप लगाएगी ?"
कोई बच्चा अाता तो वतन गोद में उठाकर उसे चूम लेता।।
"बिकास देख रहा था और साथ ही साथ सोच भी रहा था…क्या वतन के अतिरिक्त दुनिया के किसी अन्य आदमी को कभी इतने जन-समुदाय का इतना अधिक प्यार मिला है ? सम्भव है, मिला हो, किन्तु ऐसी श्रद्घा तो लोग भगवान के अलावा किसी को नहीं देते ।
और...और उन लोगों ने तो वतन को मुजरिम समझा था ।।
न जाने क्यों विकास स्वय को वतन के सामने बहुत बौना सा महसूस कर रहा था । बिकास वतन को मिलने वाली उस असीमित श्रद्धा को देखता रहा, उसके साथ चलता रहा । सारे चम्न की सड़कों से होता हुआ जुलूस शाम के चार बजे राष्ट्रपति भवन पर पहुचां ।।।
राष्ट्रपति भवन से अमेरिका का झण्डा उतारकर चमन का झण्डा -फहराया गया ।
अनेक प्रोग्रामों के बाद यह वक्त अाया जब वतन का राजतिलक होने वाला था । वतन ने कहा…"मेरी इच्छा है कि मेरे माथे पर सबसे पहला तिलक फलवाली दादी मां करें ।"
नागरिकों की तरफ से वतन की इच्छा का हर्षध्वनि से स्वागत किया गया ।
वतन ने पुन: कहा…"मैं दादी माँ को लेकर अा रहा हूं।" कहने के साथ ही, भीड़ के बीच से निकलता हुआ वतन राष्ट्रपति भवन से बाहर निकल गया ।
अपोलो घण्टियां बजाता उसके साथ था । अन्य की तो बात ही दूर, विकास इत्यादि में से भी किसीने उसके साथ चलने का उपक्रम नहीं किया ।
खुद ही कार ड्राइव करता हुआ वतन बूढि़या की झोंपडी पर पहूंचा ।
अन्दर से आव्ज अाई----" कौन है ?"
"यह मैं हूँ दादी मां-तुम्हारा वेटा, वतन ।"
"आ गया तू कलमुंहे ।" अंदर से आवाज आई…"राजा बनते ही भूल गया मुझे।"
दरवाजा खुला, सामने थी अात्यधिक बूढी महिला ।
बेहद श्रद्धा के साथ वतन ने उसके पांव छू लिए, बोला ---" माफ करना दादी मां ।"
"माफ ! " कहकर इस तरह पीछे हटी हटी जैसै वह वतन से बेहद नाराज़ हो'-"राजा बनते ही उन फलें को भूल गया, जो मुझसे उधार खाए थे ? मैं यहां बैठी हूं कि मेरा उधार चुकाने आएगा और तू...तू..कहां चला गया था रे ?"
" कहीं भी तो नहीं मां ।" वतन ने गम्भीर स्वर में कहा---"अपने घर में ही तो ग़या था । सोच रहा था कि आखिरी बार मैंने अपनी मां और बहन की लाशों को वहीं छोडा था-शयद मिल जाएं ।"
“पागल ।" कहकर उसने वतन र्को अपने गले से लिपटा लिया ।
" मैं भूला नहीं हूं दादी मां !" वतन ने कहा‘--"तुमसे उधार लेकर नौ सौ आठ सेर फल खाए हैं मैंने । आज...आज तुम्हारा सारा उधार चुकाऊंगा । दादी मां, हिसाब में तो गड़बड़ नहीं है ? तुम्हें भी याद होगा ।"
" बेटे चाहे याद रखें कि उनकी मां ने उन्हें कब क्या दिया है लेकिन मां याद नहीं रखती । इसलिए नहीं कि उसे याद नहीं रहता बल्कि इसलिए कि वह याद रखना नहीं चाहती । बेटे तो कपूत होते हैं न, लेकिन मां कुमाता नहीं ।"
" फिर भी दादी मां…हिसाब तो है ।"
" तो ला फिर, देता ,क्यों नहीं मेरे पैसे?" बूढिया ने उसे डाटा-" यूं ही बातों से पेट भर देगा क्या ?"
" दूंगा क्यों नहीं दादी मां !" वतन ने कहा…"तुम्हें साथ ले चलने के लिए ही तो अाया हूं।"
"कहा ?"
"राष्ट्रपति भवन में ।" वतन बोता-----" सब तुम्हारा ही तो इन्तजार कर रहे वहां"
"‘वहां मेरा क्या काम ?" बुढिया ने सुनकर कहा…"मेरे पैसे देने हैं, पैसे दे और जा यहां से ।"
|