RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
अपडेट 29
इस वक़्त दिन के तीन बजे हैं. शांता अपने कमरे में बिछि चारपाई पर लेती गहन चिंता में डूबी हुई है. शांता की सोच का आधार वो हादसा है जो बिरजू के साथ नदी के रास्ते में पेश आया था.
वह सोच रही थी कि आज वो कैसे बहक गयी. वो इतनी बेबस कैसे हो गयी कि बिरजू जैसा बदनाम इंसान उसके अंगो को छुता रहा....मसलता रहा और वो उसका विरोध तक ना कर सकी. वो इतनी कमज़ोर तो पहले ना थी.....फिर आज वो इतनी कमज़ोर कैसे हो गयी कि एक पराया इंसान उसके साथ मनमानी करता रहा और वो उसे मनमानी करने देती रही."
शांता बुरी औरत नही थी. वह एक अच्छे चरित्र की महिला थी. उसने अपनी जवानी के दिनो में भी कभी ऐसा घृणित काम नही किया था, यही कारण था कि आज की घटना को याद करके उसकी आत्मा लाहुलुहान हुई जा रही थी. पर इसमे उसका कोई दोष नही था. आख़िर वो भी हाड़ माँस की बनी हुई थी. भावनाए उसकी भी मचलती थी. वह भी किसी को पा लेना चाहती थी. उसका शरीर भी किसी मर्द के शरीर के नीचे दबकर पीसना चाहता था. ये प्राकृतिक ज़रूरत थी....इसमे उसका वश नही था.
शांता पिच्छले 8 सालों से शारीरिक सुख से वंचित थी. एक युवा शरीर आख़िर कब तक भूखा रह सकता था. उसे कभी ना कभी तो टूटना ही था.
वह 28 साल की थी जब उसका पति उसे छोड़ गया था. उसका व्याह पड़ोस के गाओं में रहने वाले दिनेश चौधरी से हुआ था. उस वक़्त दिनेश की माली हालत बहुत अच्छी थी. शांता के साथ साथ सुगना भी इस रिश्ते से प्रसन्न था.
विवाह के कुच्छ ही दिनो बाद दिनेश एक साथ कयि बुरी आदतों का शिकार हो गया. शराब के साथ साथ बाहरी औरतों का स्वाद भी लेने लगा. एक बार इन चीज़ों में जो डूबा तो उसे काम-काज का भी होश नही रहा. नतीज़ा ये निकला कि उसकी माली हालत बिगड़ने लगी. देखते ही देखते साल दो साल के अंदर उसके पास कुच्छ भी नही बचा. ना घर ना कारोबार. लेकिन शराब की आदत अब भी बनी हुई थी. घर की बिगड़ती हालत और पति की आदतों से तंग आकर शांता अपने भाई के घर चली आई. शांता के घर छोड़कर जाने के बाद दिनेश भी उसके पीछे पीछे अपनी ससुराल आ धमका और वहीं रहने लगा. लेकिन ससुराल में भी उसकी आदत नही सुधरी. यहाँ भी शराब और औरतों का रस्पान करता रहा. सुगना उसकी आदतों से परिचीत था पर बेहन का ख्याल करके वह भी ज़्यादा नही बोलता था. पर एक दिन उसकी और दिनेश की जमकर लड़ाई हो गयी. परिणामस्वरूप सुगना ने उसकी जी भर पीटाई कर दी. सरे आम हुई अपनी पीटाई से आहत होकर दिनेश शांता को छोड़कर चला गया. वो जाने से पहले शांता को ये कहकर गया कि अब वो कभी लौटकर नही आएगा. लेकिन उस वक़्त शांता ने उसकी बातों को गंभीरता से नही लिया. उसे लगा सांझ ढले तक जब दिनेश का गुस्सा और नशा उतरेगा तो वो घर लौट आएगा. पर ऐसा हुआ नही. उस दिन का गया दिनेश आज तक लौटकर नही आया था. कोई नही जानता था कि वो कहाँ गया? और कब आएगा?. वो ज़िंदा भी है या नही ये भी एक रहस्य बना हुआ था. शांता पिच्छले 8 सालों से विधवाओं जैसी ज़िंदगी जी रही थी. जब दिनेश शांता को छोड़कर गया तब चिंटू 2 साल का था और शांता 28 साल की थी.
28 साल की भरी जवानी में पति के बगैर जीना क्या होता है ये शांता ही जानती थी. उसने एक एक दिन बिस्तर पर किस तरह गुज़ारे थे....ये कोई उसकी जैसी औरत ही समझ सकती है. वह मजबूत इरादों वाली औरत थी. लेकिन पिच्छले कुच्छ दिनो से वह खुद को बहुत कमज़ोर समझने लगी थी. शायद बढ़ती उमर के साथ उसका अकेलापन अब उसे और तड़पाने लगा था.
शांता अपने इन्ही विचारों में गुम थी कि अचानक किसी के पुकारने की आवाज़ से वह चौंकी. उसकी नज़र दरवाज़े की ओर उठी तो वहाँ कंचन को खड़ा पाया. उसके चेहरे पर उलझन के भाव थे. उसकी आँखों में एक सवाल था और होंठ कुच्छ कहने के लिए फद्फडा रहे थे. - "क्या हुआ कंचन? कोई परेशानी है? कुच्छ चाहिए तुम्हे? यहाँ आओ." शांता ने एक साथ कयि प्रश्न पुच्छ डाले.
कंचन भीतर आई. फिर बुआ को देखकर धीरे से मुस्कुराकर बोली - "बुआ, तुम कहीं जाने वाली हो इस वक़्त?"
"नही तो. क्यों पुच्छ रही है? क्या कोई काम था?" शांता चारपाई पर उठकर बैठते हुए बोली.
"तुम कहती थी ना बुआ....मैं कभी घर पर नही रहती इसलिए तुम कहीं जा नही पाती हो. अभी मैं घर पर हूँ....तुम्हे इस वक़्त कहीं जाना हो तो जा सकती हो." कंचन किसी नन्हे बचे की तरह मासूमियत के साथ बोली.
उसकी बातों से शांता के होंठ मुस्कुरा उठे. वह प्यार से कंचन को देखते हुए बोली - "नही बेटी मैं कहीं नही जा रही. मैं बहुत थक चुकी हूँ इसलिए आराम करना चाहती हूँ. तुम जाकर अपने कमरे में आराम करो. मैं इस वक़्त कहीं नही जाना चाहती."
शांता की बातों से कंचन का चेहरा उतर गया. कंचन के उतरे चेहरे पर शांता की नज़र पड़ी. पर इस वक़्त शांता अलग ही चिंता में डूबी हुई थी. कंचन के चेहरे पर छाई उदासी को वो नही देख पाई. वह वापस चारपाई पर लेट गयी.
कंचन कुच्छ देर यूँही व्याकुलता के साथ खड़ी सोचती रही फिर एक नज़र शांता पर डालकर बाहर निकल गयी. बाहर बरामदे में आकर वो बेचैनी से टहलने लगी. रह रहकर उसकी नज़र मिट्टी की दीवार पे तंगी घड़ी की ओर जा रही थी. घड़ी की सुइयों की खट्ट-खट्ट.....उसके सीने में दस्तक देकर उसके दिले की धड़कानों को बढ़ाती जा रही थी.
उसे 5 बजे रवि से मिलने जाना था. वह रवि को आज अपने हाथों से बनाई खीर खिलाना चाहती थी. पर समस्या यह थी कि शांता के होते वो खीर नही बना सकती थी. यदि शांता ने उसे खीर बनाते देख लिया तो तरह तरह के सवाल पुच्छने लगेगी. किंतु खीर तो उसे बनाना ही था. बिना खीर के वो रवि से मिलने नही जा सकती थी.
कंचन इसी उधेड़बुन में बरामदे के चक्कर काट'ती रही. कुच्छ देर बाद वो फिर से शांता के कमरे के दरवाज़े तक गयी. उसने अंदर झाँका. शांता आँखें बंद किए चारपाई पर एक और करवट लिए सो रही थी. शांता को सोता देख कंचन के दिमाग़ में तेज़ी से विचार कौंधा. उसने धीरे से शांता के रूम का दरवाज़ा भिड़ा दिया फिर खीर बनाने की सारी सामग्री निकाल कर आँगन में आ गयी. कुच्छ ही देर में उसने चूल्हा भी जला लिया. जब तक चूल्हे में आग पकड़ती तब तक वह दूसरे कार्यों में लग गयी. उसने तय कर लिया था कि शांता के जागने से पहले ही वह खीर बना लेगी. वह तेज़ी से अपने हाथ चला रही थी. साथ ही मन ही मन यह प्रार्थना करती जा रही थी कि आज उसकी बुआ को कुम्भकर्न की नींद लग जाए. और 5 बजे से पहले उसकी आँख ना खुले.
लगभग 1 घंटे की मेहनत के बाद कंचन ने खीर बना ली. फिर उसने खीर को एक छोटे से बर्तन में रखकर बाकी सारे बर्तन धोने बैठ गयी. ताकि बुआ को ये पता ना चले कि उसने खीर बनाई है.
सारे काम निपटने के बाद उसने घड़ी में टाइम देखा 4:15 बज चुके थे. शांता अभी भी गहरी नींद सो रही थी. उसने आँगन में आकर आकाश की ओर देखा. आकाश की और नज़र जाते ही उसका दिल धक्क सा कर उठा. आकाश से सुर्य गायब हो चुका था. और उसकी जगह काले बादलों ने अपनी चादर फैलानी शुरू कर दी थी.
कंचन परेशान हो गयी. अभी रवि से मिलने जाने में 45 मिनिट का समय बाकी था. अगर उससे पहले वर्षा शुरू हो गयी तो उसे बड़ी परेशानी होने वाली थी. वह असहनी भाव से आकाश को देखती रही. खीर बनाने के बाद जो खुशी उसके चेहरे पर छाई थी अब वो छ्ट चुकी थी, अब उसकी जगह उदासी के बादल छाने लगे थे. कंचन उदास मन से बरामदे में आई और बेचैनी के साथ टहलने लगी. रह रहकर उसकी नज़र घड़ी की ओर जाती. आज घड़ी की सूइयां भी जैसे थम सी गयी थी.
कंचन एक बार फिर आँगन में मौसम का हाल देखने गयी. आकाश की ओर देखते ही उसका मुख सुखकर पतला हो गया. आकाश में लहराते काले बादल और भी घने हो गये थे. वह सोच में पड़ गयी - "अब मुझे साहेब से मिलने चले जाना चाहिए....कहीं ऐसा ना हो बारिस शुरू हो जाए.....और बारिस की शोर से बुआ जाग जाए. ऐसी हालत में बुआ मुझे घर से बाहर जाने नही देगी. हां यही ठीक रहेगा....इससे पहले की बारिस शुरू होकर मेरी भावनाओ पर पानी फेरे मैं इसी वक़्त निकल जाती हूँ."
कंचन तेज़ी से किचन तक आई. पहले उसने खीर का डब्बा उठाकर अपने दुपट्टे के अंदर छुपाया. फिर शांता के कमरे के अंदर निगाह डाली. शांता अभी भी सो रही थी. कंचन ज्यों का त्यों दरवाज़ा धीरे से बंद करके आँगन में आ गयी. चिंटू खेलने बाहर गया हुआ था. कंचन आँगन के दरवाज़े को धीरे से भिड़ा कर तेज़ी से घाटी की ओर जाने वाले रास्ते पर बढ़ गयी.
कुच्छ ही देर में कंचन उस स्थान पर पहुँच गयी जहाँ वह रोज़ रवि से मिला करती थी. वह झरने के किनारे स्थित उसी पत्थेर पर बैठ गयी जिसपर रोज़ ही बैठकर गिरते झरने को देखा करती थी. उसके बदन में इस वक़्त गुलाबी रंग की कुरती और उसी रंग की पाजामी थी. उसके हाथों में खीर का वही डब्बा था जिसे वा रवि के लिए घर से लेकर आई थी.
कंचन पत्थेर पर बैठी बार बार पिछे मुड़कर देखती जा रही थी. उसे रवि का बेसब्री से इंतेज़ार था. बार बार वह खीर के डब्बे को देखती और मंद मंद मुस्कुराती. साथ ही ये भी सोचती जा रही थी कि पता नही उसका बनाया खीर रवि को पसंद आएगा भी या नही. खीर बनाने के बाद कंचन ने उसे चखा था. उसकी बनाई खीर रात में बुआ के निर्देश पर बनाई खीर जितनी स्वदिस्त नही लगी थी. जल्दबाज़ी में कंचन से खीर उतनी अच्छी नही बन सकी थी.....जितनी अच्छी रात वाली खीर थी.
खीर के साथ साथ एक और चिंता कंचन को परेशान किए जा रही थी. उसकी दूसरी चिंता आकाश में मंडराते काले बादल थे जो तेज़ी के साथ वातावरण को अपनी चपेट में लेटे हुए उसे भयानक रूप प्रदान करते जा रहे थे. तेज़ हवाओं की साय साय और मौसम के बदलते तेवर से कंचन का नन्हा सा दिल बैठा जा रहा था.
अभी वह गर्दन उठाए आकाश में उड़ते बादलों को देख ही रही थी कि वर्षा की दो मोटी बूंदे उसके चेहरे पर आकर गिरी. फिर देखते ही देखते बूँदा- बाँदी भी शुरू हो गयी.
कंचन जहाँ खड़ी थी उससे थोड़ी दूर खोहनुमा बड़ा सा पत्थेर था. पत्थेर इतना बड़ा था कि उसके नीचे दर्ज़नो आदमी बारिस से अपना बचाव कर सकते थे. कंचन का मन उस पत्थर की आड़ में जाने को हुआ पर अगले ही पल इस विचार ने उसके पावं रोक दिए कि अगर इस वक़्त साहेब आ गये और उसे ना देख पाए तो कहीं ऐसा ना हो कि साहेब निराशा में वापस लौट जाएँ. वे तो यही समझेंगे कि बारिस की वजह से कंचन आई नही होगी. ऐसे में उसका मिलन साहेब से नही हो सकेगा.
कंचन वहीं खड़ी रही. उसने पत्थेर की शरण लेने का विचार त्याग दिया.
बारिश की बूंदे अब तेज़ होने लगी थी. कंचन को खीर की चिंता हुई, कहीं ऐसा ना हो बारिस में भीगकार उसका खीर ठंडा हो जाए. उसने अपना दुपट्टा गले से उतारकर खीर के डब्बे को अच्छी तरह से लपेटने लगी. फिर एक नज़र रास्ते की ओर डालकर उसी पत्थेर पर उकड़ू बैठ गयी. वह खीर के डब्बे को अपनी कोख में छुपाये हुए थी. उसे खुद के भीगने की चिंता नही थी....उसे चिंता थी तो खीर की. उसे ये भी चिंता नही थी कि इस तरह भीगने से वो बीमार पड़ सकती है.....उसे चिंता थी तो इस बात की कि कहीं भीगने से खीर ठंडा ना हो जाए......कहीं खीर के ठंडा होने से उसका स्वाद ना बिगड़ जाए. कहीं साहेब ये ना कह दे कि कंचन तुम्हे खीर बनाना नही आता. उसे इस वक़्त खुद से ज़्यादा खीर की चिंता थी. वह उसी प्रकार बैठी बारिस में भीगति रही.
वर्षा अपने पूरे यौवन पर पहुँच चुकी थी. मूसलाधार बारिस और बहती तेज़ हवाओं की साईं साईं से वातावरण संगीतमय हो उठा था. लेकिन बारिस का यह संगीत इस वक़्त कंचन को बिल्कुल भी अच्छा नही लग रहा था. वह तो बारिस की ठंड और तेज़ हवाओं के थपेड़ों से मरी जा रही थी. हवाओं के साथ पानी की छीटें जब उसके शरीर से आकर टकराते तो उसे ऐसा प्रतीत होता मानो किसी ने उसके शरीर में एक साथ सैंकड़ो सुई चुभो दी हों. उसका शरीर ठंड से सिकुड़ता जा रहा था. पूरे बदन में तेज़ कंपकंपी सी हो रही थी. दाँत ऐसे बज रहे थे जैसे वे अभी जबड़े से निकलकर बाहर आ जाएँगे.
पूरे एक घंटे तक कंचन उसी पत्थेर पर बैठी भीगति बारिस की मार सहती रही. एक घंटे तक वर्षा धरती को जलमग्न करने के बाद चली गयी. बारिस के रुकते ही कंचन काँपते पैरों के साथ खड़ी हुई. फिर आँखों में अपने साहेब को देखने की आस लिए उस रास्ते की तरफ निगाह डाली, जिस और से रवि आने वाला था. पर रवि दूर दूर तक कहीं दिखाई नही दिया. उसकी आँखें पीड़ा से गीली हो गयी. उसका साहेब अभी तक नही आया था.
एक तो बारिस की मार, उसपर रवि का ना आना. कंचन को अंदर तक पीड़ा पहुँचती चली गयी. वह काफ़ी देर तक टक-टॅकी लगाए उसी रास्ते की और देखती रही. उसका मन निराशा से भरता जा रहा था. उसे लगने लगा था कि उसके साहेब अब नही आएँगे. वे इतनी बारिस में यहाँ आने की मूर्खता नही दिखाएँगे. साहेब उसकी तरह दीवाने नही हैं जो ऐसे मौसम में उससे मिलने आएँगे. पर दूसरा मन ये कह रहा था कि साहेब ज़रूर आएँगे. वो तुमसे प्यार करते हैं, वो तुम्हे इस तरह नही सता सकते, तू थोड़ा इंतजार कर वो ज़रूर आएँगे.
कंचन अपने गीले वस्त्रो में चिपकी पुनः उसी पत्थेर पर बैठ गयी. सर को घुटनों पर रखा और सिसक पड़ी. उसे इस वक़्त ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उसका सब कुच्छ छीन लिया हो.......जैसे वो पूरी तरह से लूट चुकी हो.......उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वो बीच सागर में अकेली किसी नाव में बैठी डूब रही हो पर कोई उसे बचाने वाला नही. कंचन ठंड से कांपति सिसकती रही.
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