RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
किंतु बिरजू को शायद अपनी भूल का एहसास ना था. उसकी उंगलिया तेज़ी से शांता के ब्लाउस के बटन्स खोलते जा रहे थे. तभी शांता ने अपने हाथो से एक ज़ोर का धक्का बिरजू को दिया. बिरजू संभाल ना सका और बिस्तर से नीचे जा गिरा. शांता फुर्ती के साथ खड़ी हुई और चिंगारी बरसाती आँखों से फर्स पर फैले बिरजू को घूर्ने लगी.
बिरजू हक्का-बक्का उसे ही देख रहा था. शांता की आग उगलती आँखें देखकर उसके पसीने छूट पड़े थे. किंतु अचानक से हुए इस तब्दीली का कारण अभी तक उसके समझ में नही आया था. वह लड़खड़ाते शब्दों में बोला - "क....क्या हुआ शांता?"
"क्या चल रहा है तेरे दिमाग़ में?" शांता ने गुस्से से बिरजू को घूरा. - "कंचन का नाम तेरे होंठों पर आया कैसे? कहीं तू कंचन के बारे में कुछ ग़लत तो नही सोच रहा है?"
"कैसी बातें कर रही हो शांता?" बिरजू ने घबराहट में अपनी थूक निगली. - "मैं भला कंचन के बारे ग़लत क्यों सोचूँगा. भूल से कंचन का नाम मेरी जीभ पर आ गया होगा. पर सच कहता हूँ, मेरे मन में उसके लिए कोई बुरे विचार नही."
"यही तेरे लिए उचित रहेगा बिरजू. कंचन के बारे में सोचने की भूल भी मत करना." शांता ने धमकी भरे स्वर में से कहा - "अब मैं जा रही हूँ.. पर जाने से पहले आख़िरी बार तुम्हे सचेत किए देती हूँ. जो तूने कंचन को छुने की भी कोशिश की. तो फिर तू बहुत बुरी मौत मरेगा."
शांता ये कहते हुए दरवाज़े से बाहर निकल गयी. हॉल में सुंदरी ने उसे टोका. पर शांता ने कोई जवाब नही दिया और सीधा अपने घर को बढ़ गयी.
वह रास्ते भर इसी बात को सोचती जा रही थी. उसका मन ये मानने को तैयार ही नही था कि बिरजू के मूह से कंचन का नाम भूलवश निकला होगा. - 'ज़रूर उसके मन में कंचन के प्रति बुरे विचार होंगे, तभी उसके मन की बात उसके होंठों पर आ गयी.' शांता मन ही मन बोली - 'अब मुझे सतर्क रहना होगा. कहीं ऐसा ना हो वो पापी कंचन के साथ कुच्छ बुरा कर जाए. कंचन मेरी बेटी नही है तो क्या हुआ? उसे मैने चिंटू से ज़्यादा प्यार किया है. मेरे होते कोई उसपर बुरी नज़र रखे, उससे पहले मैं उसकी आँखें निकाल लूँगी.'
शांता इन्ही विचारों में चलते हुए अपनी चौखट तक पहुँची. फिर बाहर का दरवाज़ा थेल्कर आँगन में दाखिल हुई. पर जैसे ही वो आँगन में आई उसकी नज़र फटी की फटी रह गयी. उसकी आँखें उसे जो दिखा रही थी उसपर उसे बिसवास नही हो रहा था. शांता फटी - फटी आँखों से अपने पति दिनेश को देख रही थी. जो इस वक़्त बरामदे में बिछि चारपाई पर लेटा हुआ था. उसकी नज़रें उपर छप्पर की ओर उठी हुई थी. शांता के आने की आहट से उसका ध्यान टूटा. उसने पलटकर शांता की और देखा. शांता पर नज़र पड़ते ही वह चारपाई पर उठ बैठा.
शांता काँपते पैरों से उसके पास जाकर खड़ी हो गयी. वह अब भी विस्मित नज़रों से अपनी पति को देख रही थी. उसे अब भी जैसे अपनी आँखों देखी पर यकीन नही हुआ था.
दिनेश उसे देखकर मुस्कुराया. तत्पश्चात बोला - "कैसी हो शांता? कहाँ चली गयी थी? मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा हूँ. पूरा घर खाली पड़ा है, सुगना दद्दा कहाँ हैं. कंचन और चिंटू भी दिखाई नही दे रहे हैं. कुच्छ बोलो भी इस तरह चुप क्यों खड़ी हो?" दिनेश ने एक साथ कयि सवाल पुच्छ डाले.
शांता से कुच्छ कहते ना बना, उसे तो ये भी समझ में नही आ रहा था कि ऐसी घड़ी में वो क्रोध करे या खुशी जताए.
"क्या मुझे देखकर तुम्हे खुशी नही हुई जो इस तरह चुप हो गयी हो?" दिनेश चारपाई से खड़ा होते हुए बोला - "मैं जानता हूँ मैने तुम्हे बहुत कष्ट दिया है. मेरा पाप क्षमा के लायक नही, फिर भी कर सको तो मुझे क्षमा कर दो." दिनेश ने शांता के आगे अपने हाथ जोड़ दिए.
"ऐसे ना कहिए." शांता अपने पति के उठे हुए हाथों को पकड़ते हुए बोली - "ईश्वर की कृपा से आप लौट आएँ हैं, यही मेरे लिए बहुत है. अब मेरे आगे हाथ जोड़कर मुझे अपराधिनी मत बनाइए." शांता ये कहते हुए सिसक पड़ी.
ऐसा नही था कि शांता अपने पति से नाराज़ नही थी. उसने 8 साल तन्हाई में गुज़ारे थे, एक-एक दिन सौ-सौ बार मरी और जीई थी. लेकिन कुच्छ देर पहले बिरजू के बहकावे में आकर उसने जो ग़लती की थी उसके अपराध बोध से वह दबी हुई थी. वो अपने पति की नींदा कर भी कैसे सकती थी जबकि वह खुद दोषी थी.
उसका दिल वर्षों से पति से विछोह की आग में जल रहा था. वह आयेज बढ़ी और दिनेश के चरनो में झुक गयी. दिनेश ने उसे उठाया और अपने सीने से लगा लिया.
तभी खुले दरवाज़े से कंचन अंदर आई, उसकी आहट से दोनो अलग हुए.
"इसे पहचाना आपने?" शांता मुस्कुराकर कंचन की ओर इशारा करते हुए दिनेश से बोली - "ये कंचन है."
"क्या...? कितनी बड़ी हो गयी है ये तो." दिनेश ने कंचन को देखकर शांता से कहा.
कंचन पास आकर आश्चर्य से दिनेश को देखने लगी.
"कंचन तुमने पहचाना इन्हे? ये तुम्हारे फूफा हैं." शांता कंचन को देखकर बोली.
कंचन ने दिनेश को ध्यान से देखा. वह जब 12 साल की थी तब उसने अंतिम बार दिनेश को देखा था. तब दिनेश 30 साल का था. इतने वर्षों बाद भी उसके अंदर कुच्छ खास परिवर्तन नही आया था. वही रंग रूप, वही कद-काठी. सिर्फ़ सर के बाल कहीं - कहीं से सफेद हो गये थे.
कंचन आगे बढ़ी और दिनेश के पावं च्छू लिए. दिनेश ने उसे आशीर्वाद दिया. फिर चिंटू के बारे में पुछा. वो अभी तक स्कूल से नही लौटा था.
"शांता तुमने तो मुझे माफ़ कर दिया, अब सुगना दद्दा आए मिलकर माफी माँग लूँ तो मेरा कार्य पूरा हो जाएगा." दिनेश ने शांता से कहा.
"वो इस वक़्त भैया खेतों में होंगे. शाम तक लौट आएँगे." शांता ने उसे बताया.
"मैं शाम तक का इंतेज़ार नही कर सकता. मैं अभी उनके पास जाकर उनके चरण च्छुकर आता हूँ." दिनेश बोला और घर से बाहर निकल गया.
*****
नेक्स्ट डे. शाम के 7 बजे.
रवि कंचन से मिलने के बाद जब हवेली पहुँचा तो उसकी खुशी की सीमा ना रही. हाल में कदम रखते ही उसकी नज़र अपनी मा पर पड़ी. जो इस वक़्त सोफे पर बैठी ठाकुर साहब से बातें कर रही थी. पास ही दूसरे सोफे पर दीवान जी और निक्की भी बैठी थी.
रवि पर नज़र पड़ते ही वो भी खुशी से उठ खड़ी हुईं.
"मा..." रवि ये कहते हुए आगे बढ़ा और अपनी मा से लिपट गया. - "कैसी हो मा? आपको आने में कोई तकलीफ़ तो नही हुई?"
"मैं ठीक हूँ मेरे बच्चे." कमला जी ने रवि के माथे को चूमते हुए कहा - "तू सुना तू कैसा है?"
"मैं ठीक हूँ मा." रवि ने मुस्कुराकर उत्तर दिया और वहीं सोफे पर उनके बगल में बैठ गया.
कुच्छ देर हॉल में औपचारिक बातें करने के बाद रवि अपनी मा को अपने कमरे में ले गया.
"अब बताओ मा तुम कैसी हो?" रवि मा को सोफे पर बिठाते हुए पुछा.
"मेरी चिंता कब तक करता रहेगा?" रवि की मा ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा. - "तू मेरे लिए कोई बहू क्यों नही ले आता. जो मेरा ख्याल रखे."
"तुम आ गयी हो तो तुम्हे तुम्हारी बहू से मिलवा ही दूँगा मा." रवि ने शरमाते हुए कहा. - "मैने तुम्हारे लिए बहू पसंद कर ली है, वो बहुत अच्छी है, तुम इनकार नही कर सकोगी."
"तुम्हारी पसंद को तो मैं देख चुकी हूँ और वो मुझे भी पसंद आ गयी है." रवि की मा ने स्नेह से भारी दृष्टि रवि पर डालते हुए कहा.
"तुम किस की बात कर रही हो मा?" रवि ने आश्चर्य से मा को देखा.
"मैं ठाकुर साहब की बेटी निक्की की बात कर रही हूँ, क्या तू किसी और की बात कर रहा है?"
"हां मा." रवि ने उत्तर दिया - "निक्की मेरी पसंद नही है, मेरी पसंद कोई और है."
"कौन है वो?" मा ने पुछा.
"उसका नाम कंचन है, बस्ती में रहती है, उनके पिता खेती करते हैं, मा नही है, उनकी बुआ है जो उसी घर में रहती हैं और उन्होने ही कंचन को मा की तरह पाला है." रवि ने एक ही साँस में सब कुच्छ मा को बता दिया.
"रवि, तू ठाकुर साहब जैसे खानदानी आदमी को छोड़ कर.....एक हल चलाने वाले मामूली इंसान से रिश्ता जोड़ना चाहता है, तुझे हो क्या गया है? तू आकाश को देखना छोड़ कर धरती की ओर क्यों देख रहा है?" कमला जी सोफे से उठते हुए बोली.
"मा, जिन्हे तुम एक मामूली सा हल चलाने वाला कह रही हो.....अगर ये लोग हल चलना छोड़ दे तो वही आकाश में उड़ने वाले लोग मूह के बाल धरती पर आकर गीरेंगे." रवि भी सोफे से उठकर मा के नज़दीक जाते हुए बोला. - "मा इंसान काम से छोटा बड़ा नही होता. विचारों से होता है. मेरी नज़र में वो छोटा है. जिसके विचार छोटे हों. और तुम्हारे विचार तो बड़े उँचे होते हैं मा. फिर आज इस तरह की छोटी बातें क्यों कर रही हो? क्या तुम चाहती हो मैने जो वादा कंचन से किया है उसे तोड़कर उसकी नज़रों में गिर जाउ? फिर तुम बताओ मा कि मेरे ऐसा करने के बाद छोटा कौन होगा वे लोग या हम ?" रवि अपनी मा के कंधो को पकड़कर गंभीर स्वर में बोला.
"लेकिन....बेटे !" कमला जी ने कुच्छ कहना चाहा. लेकिन कहते-कहते रुक गयी.
"मा, तुम अमीरी-ग़रीबी को परे रखकर एक बार कंचन से मिल लो, अगर वो तुम्हे अच्छी ना लगे तो फिर जो तुम कहोगी मैं वो करूँगा." रवि ने मुस्कुराते हुए कहा.
"ठीक है....मैं कल उसके घर जाउन्गि. पर तुम मेरे साथ नही रहोगे, और ना ही उसे बताओगे कि मैं उससे मिलने आने वाली हूँ. मैं देखना चाहती हूँ वो मुझसे कैसे बर्ताव करती है." कमला जी ने रूखे स्वर में कहा. वह अब भी रवि के फ़ैसले से खुश नही थी.
"थॅंक यू मा." रवि खुश होते हुए बोला - "तुम जो कहोगी मैं वो करूँगा. मैं जानता हूँ कंचन तुम्हे बहुत पसंद आएगी." रवि मा से लिपट'ते हुए कहा.
"बस.....बस, ज़्यादा खुश होने की ज़रूरत नही है. अगर वो मुझे अच्छी नही लगी तो मैं कतयि उसे अपनी बहू नही स्वीकार करूँगी." कमला जी मूह फुलाकर बोली.
रवि मा की इस बात पर मुस्कुरा दिया.
*****
कंचन आज स्कूल नही गयी थी. उसका मन आज कल पढ़ाई पर लगता ही नही था. अक्सर स्कूल ना जाने के लिए कोई ना कोई बहाने बनाया करती थी. आज तो उसके पास अच्छा बहाना था. आज वो सबेरे ही बुआ से बोली कि आज वो स्कूल नही जाएगी. क्योंकि फूफा जी आएँ हैं. उनके साथ कुच्छ देर बातें करूँगी. शांता ने भी उसपर ज़ोर नही डाला. कंचन की देखा देखी चिंटू भी स्कूल नही गया. उसे भी खेलने का बहाना चाहिए था. सुगना भी आज के दिन घर पर ही था. सिर्फ़ दिनेश जी कहीं को गये हुए थे.
इस वक़्त घड़ी पे 11 बजे थे, शांता खाना बना चुकी थी और नदी जाने की तैयारी कर रही थी. सुगना अंदर चारपाई पर लेटा सो रहा था. और कंचन सुबह से ही घर के कामो में लगी हुई थी. शांता उसे मगन से घर के काम करते देख बहुत खुश हो रही थी, पर चिंटू खुश नही था. वह पिच्छले कुच्छ दिनो से परेशान था. वह परेशान इस लिए था कि आज कल दीदी उसके साथ नही खेलती. पहले जब भी वो कंचन से खेलने को कहता वो तुरंत उसके साथ खेलने लग जाती थी. पर पिच्छले कुच्छ दिनो से कंचन ने उसके साथ खेलना बंद कर दिया था. अब वह अकेला सा हो गया था. उसके समझ में नही आ रहा था की दीदी आज कल मेरे साथ क्यों नही खेलती, वा या तो घर के काम करती रहती है या अकेली पड़ी खोई - खोई रहती है.
कंचन इस वक़्त बरामदे के छप्पर पर बने मकड़ी के जालों को झाड़ू से सॉफ कर रही थी वो एक लकड़ी के स्टूल पर खड़ी थी.. चिंटू उसके पास आकर खड़ा हो गया. कंचन ने उसकी ओर देखा तक नही.
चिंटू कुच्छ देर कंचन को देखता रहा फिर साहस करके बोला - "दीदी चलो आज कंचा खेलते हैं. तुम कितने दिनो से मेरे साथ कंचा नही खेली हो"
कंचन ने एक नज़र चिंटू को देखा फिर बोली - "देख तो रहा है मैं घर के काम कर रही हूँ, फिर क्यों तू मुझसे खेलने को कह रहा है?"
"दीदी, तू अब मेरे साथ क्यों नही खेलती? पहले तो रोज़ खेला करती थी. मा कहती थक जाती थी पर तू कभी घर का काम नही करती थी. अब क्यों करती हो घर का काम?" चिंटू ने शिकायत की.
उत्तर में कंचन मुस्कुराइ फिर बोली - "क्या सारी उमर खेलती रहूंगी, घर का काम कब सीखूँगी? अब मैं तेरे साथ नही खेल सकती? तू किसी और के साथ क्यों नही खेलता?"
"अब क्यों नही खेल सकती मेरे साथ? मुझे तुम्हारे साथ खेलना अच्छा लगता है दीदी, चलो ना दीदी." चिंटू ने कंचन के टाँगों को पकड़ कर ज़ोर से हिलाते हुए कहा.
चिंटू के हिलने से वह लड़खड़ाई और गिरते - गिरते बची.
"चिंटू क्या कर रहा है, ऐसे मत हिला मुझे, मैं गिर जाउन्गि." कंचन घबराकर बोली.
"मेरे साथ खेलो नही तो मैं गिराउन्गा." चिंटू फिर से कंचन के पावं को हिलाते हुए बोला
चिंटू के हिलाने से कंचन लड़खड़ाई, उसके लड़खड़ाते ही स्टूल का पावं एक ओर से उठा, अगले ही पल कंचन ज़मीन पर चारो खाने चित पड़ी थी.
उसे गिरता देख चिंटू के होश उड़ गये. उसे समझते देर नही लगी कि अब उसकी पिटाई होनी सुनिश्चित है. वह बाहर की ओर भागा.
कंचन भी अपनी पीठ सहलाते हुए तेज़ी से उठी और झाड़ू लेकर चिंटू के पिछे दौड़ी. चिंटू बाहर के दरवाज़े तक पहुँच चुका था. कंचन भी उसके थोड़ी पिछे थी. चिंटू ने दरवाज़ा पार किया और कंचन ने झाड़ू घुमाया. तभी अचानक से दरवाज़े पर रवि की मा प्रकट हुई. कंचन की नज़र उनपर पड़ी, कमला जी ठीक कंचन के झाड़ू के निशाने पर थी. कंचन ने अपने हाथ रोकने चाहे.....पर उसके हाथों की गति इतनी तेज़ थी कि वा अपने हाथों में लहराती हुई झाड़ू को रोक नही पाई. कमला जी की आँखें हैरत से फैलती चली गयी.
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