RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
वह दुखी थी बेहद दुखी ! कमला जी के मूह से निकले एक एक शब्द उसके कानों में ज़हर घोलते जा रहे थे.
वह भारी कदमो से चलती हुई घर के रास्ते बढ़ी चली जा रही थी. मन पूरी तरह अशांत था. लड़खड़ाते कदमो से चलती हुई बस एक ही बात सोचे जा रही थी. - "ये क्या हो रहा है मेरे साथ? मा जी क्यों नाराज़ हो गयीं मुझसे? सिर्फ़ एक छोटी सी ग़लती के लिए माजी मुझे इतनी बड़ी सज़ा क्यों दे रही हैं? क्या मैं इतनी बुरी हूँ? या मेरा ग़रीब होना बुरा हो गया? हां यही बात होगी.....माजी मुझे अपने समाज के लायक नही समझती. अगर मैं निक्की की तरह अमीर होती तो माजी मुझे अपनी बहू ज़रूर स्वीकार कर लेती. मेरे बाबा के पास पैसे नही है ना इसलिए उनको मैं पसंद नही. उन्हे निक्की पसंद है क्योंकि ठाकुर साहब के पास बहुत पैसे हैं.
निक्की की याद आते ही कंचन का दिल और दुखी हो गया. जिस सहेली को उसने अपनी जान से ज़्यादा प्यार किया आज वही उसकी जान की दुश्मन बन गयी थी.
हां ! वो निक्की ही तो थी जिसकी वजह से उसे रवि से अलग किया जा रहा था. निक्की ने जाने-अंजाने में ही सही पर आज उसने कंचन का दिल दुखा दिया था. आज कंचन निक्की और खुद के फ़र्क को समझ चुकी थी. आज वो जान गयी थी कि अमीरों का ग़रीबों से नाता केवल खेलने के लिए होता है, ना कि किसी बंधन में बाँधने के लिए.
वह निक्की से नाराज़ तो नही थी पर उसके दिल में गुस्सा सवार था. कोई आपको कितना ही प्रिय क्यों ना हो-किंतु वो जब आपके टूटे दिल का कारण बनता है तब आपको उसपर क्रोध आ ही जाता है. कंचन का गुस्सा भी उसी प्रकार का था.
कंचन की हालत इस वक़्त ठीक उस व्यापारी की तरह थी. जो दिन भर गली गली बाज़ार बाज़ार घूम कर अपना सौदा बेचा हो और घर लौट'ते समय किसी ने उसके सारे पैसे छीन लिए हों. जो मानसिक स्थिति उस समय उस सौदागर की होती है वही कंचन की थी. और फिर यहाँ बात एक दिन की कमाई की नही थी-कंचन की पूरी ज़िंदगी की थी. उसके उन सपनो की थी जो अब तक वो देखती आई थी. वे सारे सपने उससे एक झटके में छीन लिए जा रहे थे. उसका गुस्सा होना तो स्वाभाविक था.
कंचन सिसक रही थी. इस एहसास से कि अब वो कभी रवि से नही मिल सकेगी उसकी आत्मा लहू-लुहान होती जा रही थी. उसके समझ में नही आ रहा था वह ऐसा क्या करे जिससे कि वह फिर से रवि को हासिल कर सके. उसका साहेब फिर से उसका हो सके? पर ये ख्याली पुलाव थे. रवि को वापस पाने का कोई भी रास्ता उसे दूर दूर तक दिखाई नही दे रहा था
कंचन इन्ही सवालों के चक्रवात में घिरी अपने घर की चौखट तक पहुँची. आगन में पावं धरते ही बुआ ने कुच्छ पुछा....किंतु शांता की बात उसके कानो तक नही पहुँची. वह किसी और ही दुनिया में पहुँची हुई थी.
कंचन अपने उसी दशा में चलती हुई रसोई तक पहुँची. पूजा की थाली को एक और रखा. फिर अपने कमरे में घुस गयी. कमरे में पहुँचकर चारपाई पर ऐसे फैल गयी जैसे महीनो की बीमार हो.
शांता से उसकी हालत छुपि ना रही. वह कंचन को देखते ही ताड़ गयी कि इसे कुच्छ तो हुआ है. शांता कंचन को आज से पहले इतनी चुप और उदास कभी नही देखी थी. वह कमरे के भीतर आई. कंचन पर निगाह डाली. कंचन के माथे से पसीना बह रहा था किंतु शरीर ऐसे काँप रहा था मानो वो किसी ठंडे प्रदेश में आ गयी हो. आँखें बिना पलके झपकाए छप्पर को घुरे जा रही थी.
कंचन की ऐसी हालत देखकर शांता के होश उड़ गये. वह झुकी और कंचन के माथे पर हाथ रखा. शांता का हाथ पड़ते ही कंचन चिहुनक उठी. वह फटी फटी आँखों से बुआ को देखने लगी.
"कंचन क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?" बुआ चिंतित होकर बोली.
बुआ का स्नेह मिलते ही कंचन की आँखों से आँसू के दो गोले लुढ़क कर उसके गालो में फैल गये. कंचन कुच्छ कहने के लिए अपने होंठ हिलाई पर आवाज़ बाहर ना निकल सकी. उसके होंठ सिर्फ़ फड़फड़ाकर रह गये. वह सहायता के लिए लालसा से बुआ को देखने लगी. वह किसी नन्हे बच्चे की तरह फफक पड़ने को तैयार थी.
कंचन को रोता देख शांता की छाती फट गयी. वह किसी अंजानी आशंका से घबरा उठी. उसकी आवाज़ सुनकर कंचन के फूफा और चिंटू भी दूसरे कमरे से आ गये. अपनी दीदी को रोता देख चिंटू उदास हो उठा था.
"कंचन तू कुच्छ बोलेगी भी? किसी ने कुच्छ कहा है तुम्हे?" शांता ने फिर से पुछा.
कंचन सिसकती हुई शांता को कमला जी की कही सारी बातें बताने लगी. कंचन की बात सुनकर शांता भी परेशान हो उठी. उसने कंचन को छाती से लगा लिया और उसके आँसू पोच्छने लगी. कंचन के टूटे दिल की पीड़ा अब उसके दिल तक पहुँच गयी थी. उसकी समझ में नही आ रहा था कि वो कंचन से कहे भी तो क्या कहे? वह उसे दिलासा देने लगी. उसके अतिरिक्त शांता कर भी क्या सकती थी. चिंटू और फूफा भी उसके आस-पास बैठ गये. चिंटू कंचन से लिपट सा गया था. उसके समझ में कुच्छ भी नही आ रहा कि दीदी क्यों रो रही है? पर कंचन को रोता देख उसे भी रोना आ रहा था. उसकी आँखें भी भर आई थी.
तभी कमरे में सुगना ने कदम रखा. दीवान जी से मिलने के पश्चात उसका काम पर मन नही लग रहा था. कुच्छ ही देर बाद उसने घर का रुख़ कर लिया था.
"क्या हुआ?" भीतर आते ही सुगना ने कंचन को रोते हुए देखा तो पुछा.
शांता उसे सारी बातें बताने लगी.
सुनकर सुगना के जबड़े भींच गये. क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गयी. उसने अपने गुस्से पर नियंत्रण किया और कंचन के बराबर बैठकर उसके सर पर हाथ फेरने लगा. तत्पश्चात उसने कंचन से कहा - "नही कंचन....नही ! अब तुम्हे रोने की आवश्यकता नही. अब तुम्हारे दुख के दिन गये कंचन. अब तुम्हारे साथ कोई अन्याय नही कर सकता. कम से कम मेरे जीतेज़ी तो नही. तुम्हे, तुम्हारे सारे अधिकार मिलेंगे. मैं अभी हवेली जाता हूँ और ठाकुर साहब से बात करता हूँ. तू चुप हो जा रवि तुम्हारा है और तुम्हारा ही रहेगा. उसे तुमसे कोई अलग नही कर सकता"
"बाबा...! माजी को मैं पसंद नही. वो मेरा विवाह साहेब से कभी नही होने देंगी." कंचन की सिसकियाँ अभी भी जारी थी.
"तू चिंता मत कर बेटी. मैं हूँ ना. मैं अभी हवेली जाता हूँ. सब ठीक हो जाएगा."
"भैया, क्या आप सच में ठाकुर साहब से बात करेंगे?" शांता आश्चर्य से बोली.
"हां शांता, अब वो दिन आ गया है जिसका मुझे इंतेज़ार था. तुम कंचन का ध्यान रखना....मैं अभी आया." सुगना बोला और तेज़ी से दरवाज़े से बाहर निकल गया.
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