RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
"निक्की ये क्या कह रही है तू?" दीवान जी आश्चर्य से बोले - "तू चिंता मत कर, मैने कहा ना सब ठीक हो जाएगा. तू आराम कर मैं अभी किसी काम से बाहर जा रहा हूँ, लौटकर आने के बाद इस संबंध में बात करूँगा." दीवान जी बोले और दरवाज़े से बाहर निकल गये.
दीवान जी के जाने के बाद रुक्मणी निक्की को बिठाकर उसे दुलार्ने लगी. मा की ममता से उसका दुख थोड़ा कम तो हुआ पर उसे सुकून नही मिला.
"मैं सोना चाहती हूँ मा." निक्की रुक्मणी से बोली.
रुक्मणी ने उसके लिए कमरा तैयार कर दिया और बिस्तर लगा दिया. निक्की ने बिस्तर पर गिरकर अपनी आँखें मूंद ली. सोना तो बस एक बहाना था....वो असल में एकांत चाहती थी. ताकि वो अपने अतीत और वर्तमान का लेखा जोखा कर सके.
निक्की इस वक़्त बेहद अपमानित महसूस कर रही थी. वो होती भी तो क्यों ना. बचपन से इस अभिमान से जीती आई थी कि वो ठाकुर की बेटी है, पर आज इस सत्य के खुल जाने से उसे गहरा आघात लगा था. हालाँकि वो जानती थी उसके पिता ने जो भी किया उसके भले की सोच कर किया. किंतु ये बात ज़माना तो नही समझेगा. अब वो ज़माने को क्या मूह दिखाएगी. अब लोग क्या कहेंगे, अब सब जान चुके हैं कि वो ठाकुर की नही उसके नौकर दीवान की बेटी है. अब वह कैसे अपना सर उँचा रख सकेगी? दीवान जी की करनी ने ना केवल उसके सपनो को बल्कि उसके पूरे वज़ूद को तोड़कर रख दिया था. उसे इस घर में एक घुटन सी महसूस हो रही थी. उसे समझ में नही आ रहा था कि वो क्या करे कि उसे इस घुटन से मुक्ति मिल सके. ऐसी कौनसी जगह जाए जहाँ उसके मन को थोड़ा सुकून मिल सके.
सहसा ! उसके मानस-पटल पर कल्लू का चित्र उभरा. वह झटके से बिस्तर पर उठ बैठी. फिर कुच्छ सोचते हुए खड़ी हुई और कमरे से बाहर निकली.
हॉल में आकर उसने रुक्मणी की तलाश में अपनी नज़रें दौड़ाई. उसे किचन से कुच्छ आवाज़ें आती सुनाई दी. रुक्मणी शायद किचन में थी. निक्की खड़ी कुच्छ पल सोचती रही फिर धीमे कदमों से बाहर निकल गयी.
उसने अपने पावं का रुख़ कल्लू के घर की तरफ कर दिया.
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शांता अभी भी कंचन के सिरहाने बैठी उसके सर को सहलाए जा रही थी. कंचन का रोना तो कब का बंद हो चुका था. पर उसके दिल में उदासी अब भी छाई हुई थी. चिंटू उसकी गोद पर लेटा हुआ था. दिनेश जी बरामदे में बैठे बीड़ी पी रहे थे.
तभी घर के बाहर जीप के रुकने की आवाज़ से सबका ध्यान टूटा. शांता के साथ कंचन और चिंटू भी उठकर कमरे से बाहर निकले. जैसे ही ये लोग बरामदे तक पहुँचे.....उन्हे सुगना के साथ ठाकुर साहब आँगन में प्रविष्ट होते दिखाई दिए.
ये फेली मर्तबा था जब ठाकुर साहब हवेली से निकल कर बस्ती में किसी के घर तक आए हों. कंचन के आश्चर्य की सीमा ना रही.
कंचन पर नज़र पड़ते ही ठाकुर साहब का हृदय वात्सल्य से भर उठा. उनके कदम कंचन के करीब आते गये.
शांता को कुच्छ कुच्छ समझ में आ चुका था, किंतु दिनेश जी और कंचन के लिए ठाकुर साहब का आना अब भी पहेली बना हुआ था.
शांता और दिनेश जी के हाथ एक साथ ठाकुर साहब को नमस्ते करने के लिए उठ खड़े हुए.
ठाकुर साहब उनके नमस्ते का उत्तर देते हुए कंचन के पास जाकर खड़े हो गये. फिर सजल नेत्रों से उसके उदास चेहरे को देखने लगे.
कंचन के हाथ भी नमस्ते की मुद्रा में जुड़ गये.
"बेटी, इनके पावं छु लो, ये तुम्हारे पिता हैं." सुगना ने हैरान परेशान सी खड़ी कंचन से कहा.
"क....क्या......प......पिता?" कंचन के मूह से अनायास निकला.
दिनेश जी भी सुगना की बात से बुरी तरह चौंक पड़े थे.
"हां बेटी. मैने तो तुम्हे सिर्फ़ पाला है, वास्तव में तुम इनकी संतान हो. ठाकुर साहब ही तुम्हारे असली पिता हैं." सुगना कंचन के सर पर हाथ फेरते हुए बोला.
कंचन आँखों में आश्चर्य लिए ठाकुर साहब को देखने लगी.
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