RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
शाम के 5 बजे थे. कंचन अपने कमरे में चिंता-मग्न बैठी थी. चिंटू टीवी का साउंड उँचा किए टीवी देखने में मशगूल था.
कंचन के मस्तिष्क पर आज दिन की घटना का चलचित्र चल रहा था. कमला जी के मूह से ये सुन लेने के पश्चात कि उसके पिता ने 20 साल पहले रवि के पिता की हत्या की थी. उसका कोमल दिल आहत हो चुका था. उसके पिता हत्यारे हैं, सिर्फ़ इसलिए कि ऐसी हवेली दोबारा ना बने, उन्होने रवि के निर्दोष पिता का खून कर दिया. ये एहसास उसे अंदर से कचोटे जा रहे थे. उसे तेज़ घुटन सी महसूस होने लगी थी.
"अब मैं यहाँ नही रहूंगी." वो मन ही मन बोली - "पता नही साहेब के दिल पर क्या गुज़र रही होगी. क्या सोचते होंगे वो मेरे बारे में.....यही ना कि मैं कितनी संगदिल हूँ जिस घर में उनके पिता का खून बहा है मैं उसी घर में मज़े से रह रही हूँ. नही.....अब मैं यहाँ नही रह सकती. मैं अभी चली जाती हूँ."
कंचन ने अपने विचारों को विराम दिया और चिंटू को देखा. चिंटू टीवी पर नज़रे जमाए बैठा था.
"चिंटू..." कंचन ने उसे पुकारा. किंतु चिंटू के कानो में ज़ू तक नही रेंगी. कंचन ने दोबारा पुकारा. पर इस बार भी चिंटू का ध्यान नही टूटा. कंचन गुस्से से उठी और उसके हाथ से रिमोट छीन्कर टीवी बंद कर दी.
चिंटू मूह फूला कर बोला - "दीदी टीवी देखने दो ना. कितनी अच्छी पिक्चर आ रही थी."
"नही, अब चलो यहाँ से. हम बस्ती जा रहे हैं. अब हम यहाँ नही रहेंगे." कंचन चिंटू के रूठने की परवाह किए बिना उसका हाथ पकड़ कर उसे खींचती हुई कमरे से बाहर निकल गयी.
हॉल में मंटू दिखाई दिया. कंचन मंटू से ये कहकर कि वो बस्ती जा रही है, हवेली से बाहर निकल गयी.
हवेली से निकलकर बस्ती की ओर जाते हुए चिंटू की नज़रें बार बार हवेली की तरफ मूड रही थी. उसे हवेली छूटने का बेहद दुख हो रहा था. यहाँ उसे हर चीज़ के मज़े थे. रोज़ अच्छे और स्वदिस्त पकवान भर पेट खाने को मिल रहा था, ताज़े फल, फ्रूट के साथ गिलास भर कर मेवे वाला दूध भी सुबह शाम पीने को मिल रहा था. वहाँ गाओं में टीवी नही थी, यहाँ दिन भर टीवी देखने का मज़ा ले रहा था.
किंतु कंचन को चिंटू के मन की दशा का भान नही था. वह तो अपने दुख से दुखी उसका हाथ थामे उसे जबरन खींचती हुई बस्ती की ओर बढ़ी चली जा रही थी.
चलते हुए अचानक ही कंचन को ये ख्याल आया. -"साहेब और मा जी, हवेली से निकल कर कहाँ गये होंगे? कहीं साहेब गाओं छोड़कर अपने घर तो नही चले गये?"
कंचन के बढ़ते हुए कदम थम गये.
चिंटू ने उसे हसरत से देखा. उसे लगा शायद दीदी अब हवेली लौटेगी.
"अब क्या करूँ?" कंचन ने खुद से पुछा.
वो कुच्छ देर खड़ी सोचती रही. पहले उसका मन चाहा वो घर जाकर बाबा को सब बात बता दे और बाबा को रवि और माजी को मनाने स्टेशन भेज दे. शायद वे लोग अभी भी वहीं हों. पर अगले ही पल उसे ये विचार आया कि जब तक वो घर जाकर अपने बाबा को बताएगी और उसके बाबा जब तक स्टेशन आएँगे. तब तक कहीं साहेब और मा जी ट्रेन में बैठकर घर ना चले जाएँ.
उसने खुद ही स्टेशन जाने का विचार किया.
वो चिंटू को लिए तेज़ी से मूडी. और स्टेशन के रास्ते आगे बढ़ गयी.
कंचन स्टेशन पहुँची. उसकी प्यासी नज़रें रवि की तलाश में चारों तरफ दौड़ने लगी.
स्टेशन लगभग खाली था. प्लॅटफॉर्म पर कोई ट्रेन नही थी.
काफ़ी देर इधर उधर ढूँढने के बाद भी उसे रवि कहीं दिखाई नही दिया.
रवि को ना पाकर उसके चेहरे पर उदासी फैल गयी. मन रोने को हो आया. दबदबाई आँखों से एक बार फिर उसने पूरे स्टेशन पर अपनी नज़रें घुमाई. लेकिन रवि तो ना मिलना था ना मिला.
वो वहीं लोहे की बनी बर्थ पर बैठकर सिसकने लगी.
चिंटू के समझ में कुच्छ भी नही आ रहा था. लेकिन कंचन को रोता देख उसे भी रोना आ रहा था.
तभी किसी ट्रेन के आने की आवाज़ उसके कानो से टकराई.
उसने गर्दन उठाकर आती हुई ट्रेन के तरफ देखा.
धड़-धड़ाती हुई ट्रेन प्लॅटफॉर्म पर आकर रुकी. उसके रुकते ही यात्रियों के उतरने और चढ़ने का सिलसिला शुरू हो गया. कुच्छ देर पहले जो स्टेशन खाली सा दिख रहा था अब लोगों की भीड़ से भरने लगा था.
कंचन कुछ सोचते हुए उठी. चिंटू को बर्थ पर बैठे रहने को बोलकर खुद ट्रेन के समीप जाकर खिड़कियों से ट्रेन के अंदर बैठे मुसाफिरों को देखने लगी.
उसकी नज़रें रवि को ढूँढ रही थी.
अभी कुच्छ ही पल बीते थे की उसके पिछे से किसी ने उसे पुकारा.
अपना नाम सुनकर कंचन तेज़ी से मूडी. किंतु अपने सामने बिरजू को खड़ा देख उसकी सारी तेज़ी धरी की धरी रह गयी.
"कंचन जी किसको ढूँढ रही हैं आप?" बिरजू अपने काले दाँत दिखाकर धूर्त मुस्कान के साथ पुछा.
"मैं साहेब को ढूँढ रही हूँ." कंचन अटकते हुए बोली.
"साहेब....?" बिरजू ने अज़ीब सा मूह बनाया - "ओह्ह्ह....तो तुम डॉक्टर बाबू की बात कर रही हो. उन्हे तो मैने ट्रेन के अंदर बैठे देखा है."
"क्या सच में भैया....?" कंचन खुशी से चहकते हुए बोली - "क्या उनकी माजी भी साथ थी?"
"हां माजी भी साथ थी. क्या तुम उनसे मिलना चाहती हो?"
"हां....!" कंचन हन में सर हिलाई.
"तो फिर आओ मेरे साथ.....तुम्हे डॉक्टर बाबू और उनकी माजी से मिलाता हूँ."
कंचन बिरजू के साथ ट्रेन में चढ़ गयी. रवि के मिलने की खुशी से वो फूले नही समा रही थी. मारे खुशी के उसकी आँखें डब-डबा गयी थी. रवि से मिलने की दीवानगी में वो ये भी नही समझ पाई कि बिरजू उसे झाँसे में ले रहा है और वो किसी मुशिबत में गिरफ्तार होने वाली है.
बिरजू के लिए ये बिन माँगी मुराद थी. इससे अच्छा अवसर शायद उसे फिर कभी नही मिलने वाला था.
लगभग पूरे गाओं को पता था कि बिरजू 2 दिनो से शहर गया हुआ है. अब ऐसे में वो कंचन को लेकर कहीं भी जा सकता था. किसी को उसपर शक़ नही होने वाला था.
उसने सोचा भी यही था. कंचन पर नज़र पड़ते ही उसके मन में ये सोच लिया था कि वो कंचन को लेकर शहर जाएगा. कुच्छ दिन उसके साथ ऐश करेगा फिर उसे कहीं बेचकर गाओं लौट आएगा.
उसका सोचा लगभग सही हुआ था. बस ट्रेन चलने की देरी थी.
इस स्टेशन में ट्रेन 5 मिनिट के लिए रुकती थी. और अब 5 मिनिट पूरे होने को आए थे. ट्रेन किसी भी वक़्त छूट सकती थी.
किंतु कंचन को इसका होश नही था. वो किसी भी कीमत में रवि को शहर जाने से रोकना चाहती थी. वो बड़े ध्यान से ट्रेन में बैठे मुसाफिरों के चेहरों को देखती हुई
आगे बढ़ती जा रही थी.
बिरजू उसे आगे और आगे लिए जा रहा था.
सहसा ट्रेन ने सीटी बजाई. कंचन कुच्छ समझ पाती उससे पहले ट्रेन ने एक झटका खाया और चल पड़ी.
ट्रेन को चलता देख कंचन के होश उड़ गये. उसने बिरजू को आवाज़ लगाई. बिरजू थोड़ा आगे बढ़ गया था.
"ये देखो रवि बाबू यहाँ बैठे हैं." बिरजू ने कंचन को समीप बुलाते हुए कहा.
कंचन बिजली की गति से उसके करीब पहुँची.
वहाँ देखा तो रवि और मा जी नही थी.
उसे देखकर बिरजू धूर्त'ता से मुस्कुराया.
कंचन के पसीने छूट गये. किंतु अगले ही पल कंचन उसी गति से दरवाज़े की तरफ भागी.
बिरजू उसके पिछे लपका.
कंचन जब तक दरवाज़े तक पहुँचती. ट्रेन हल्की रफ़्तार पकड़ चुकी थी.
बिरजू भी उसके पिछे दरवाज़े तक पहुँचा. वो आज किसी भी कीमत पर कंचन को जाने देना नही चाहता था. ऐसा मौक़ा उसे फिर कभी नही मिलने वाला था.
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