RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
. रात बीत चुकी थी. घर के सभी लोग चादर ताने सो चुके थे. किंतु कंचन की आँखों से नींद कोसो दूर थी. उसे नींद आती भी तो कैसे? उसके जीवन में जो तूफान आया था उसने ना सिर्फ़ कंचन की खुशियाँ, उसके सपने, बल्कि उसकी आँखों से नींद भी उड़ा ले गया था.
कंचन की दशा इस वक़्त ऐसी थी जैसे जल बिन मछली. रवि से अलग होकर जीने की कल्पना ही उसे मार देने के लिए काफ़ी थी.
कंचन बिस्तर पर लेटी हुई उन पलों में खोई हुई थी, जो उसने रवि के साथ बीताए थे. उसकी बातें, उसकी खामोशी, उसका रूठना, उसका मनाना, उसकी बाहों में सिमट कर सब कुच्छ भुला देना. सब कुच्छ कितना अच्छा लगता था उसे. वे सारे लम्हे एक एक करके उसकी आँखों के आगे किसी चलचित्र की तरह आ जा रहे थे.
"क्या वो पल फिर से लौटकर आएँगे? क्या मैं फिर से उनके साथ प्यार के वो लम्हे बिता सकूँगी? क्या मुझे फिर से साहेब के उन मजबूत बाहों का घेरा मिलेगा?" कंचन खुद से बातें करने लगी.
"नही...अब साहेब तुम्हे कभी नही मिलेंगे." उसके दिल के किसी कोने से आवाज़ आई - "तुम्हारे पिता ने उनके पिता का खून किया है. साहेब एक बार तुम्हे माफ़ कर भी दें, पर माजी तुम्हे कभी माफ़ नही करेंगी. वो तो तुम्हे पहले भी पसंद नही करती थी और अब तो बिल्कुल भी नही...."
कंचन छटपटा उठी. -"कैसे जियूंगी मैं? जो साहेब नही मिले तो मैं तो मर जाउन्गि." उसके मूह से एक कराह सी निकली और आँखों से आँसू धूलक कर उसके गालो में फैल गये. कंचन उन्हे आष्टिं से पोछती हुई सिसक पड़ी.
उसका दिल इस वक़्त अंधेरी कोठरी बना हुआ था. उम्मीद की एक भी किरण उसे दूर दूर तक दिखाई नही दे रही थी. उसकी समझ में नही आ रहा था, वो क्या करे? कहाँ जाए कि उसके मन का गुबार निकल सके. उसे इस वक़्त सिर्फ़ आह भर रोने को मन कर रहा था. उसकी दशा ठीक उस नन्ही बालिका की तरह थी, जिसने दुकान से कोई मन-पसंद खिलोना खरीदा हो, पर घर लाते समय रास्ते में गिर कर टूट गया हो. जैसे उस बालिका के दुख का अनुमान कर पाना संभव नही, वैसे ही इस वक़्त कंचन के दुखों का अनुमान लगा पाना संभव नही था.
कंचन कुच्छ देर यूँही रोती रही फिर कुच्छ सोचते हुए अपने बिस्तर से उठी और कोने में जाकर खड़ी होकर छप्पर को देखने लगी.
उसकी दृष्टि छप्पर पर फँसी एक थेलि पर टिकी थी. उसने हाथ बढ़ाकर उस थेलि को उतार लिया. उस थेलि में रवि का वो जूता था जिसे कंचन घाटी से उठा लाई थी.
उसने जूता बाहर निकाला और उसे अपनी छाती से लगाकर सिसक पड़ी. जूते को छाती से लगाते ही उसके बेचैन दिल को एक सुकून मिला. वो बिस्तर पर जाकर लेट गयी और जूते को अपनी छाती से लगाए मन ही मन बोली - "साहेब आप जहाँ भी रहें खुश रहें, मैं अब आपके यादों के सहारे जी लूँगी.. मेरा जी बहलाने के लिए आपका जूता ही बहुत है. मैं रोज़ इसे अपने माथे से लगाकर आपको ऐसे ही ख्यालो में पूजती रहूंगी. और आपके खुशियों की प्रार्थना करती रहूंगी."
कंचन बार बार रवि के जूते को कभी छाती से लगाती कभी गालो में फिराती तो कभी माथे से लगा लेती. काफ़ी देर तक इसी तरह रवि के जूते को लिए वो रोती सुबक्ती रही. फिर कब उसकी आँख लग गयी उसे पता ही ना चला.
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