RE: Desi Porn Kahani काँच की हवेली
रात के 11 बज चुके थे. काँच की हवेली अपनी उसी शान से खड़ी अपनी छटा बिखेर रही थी. हवेली के सभी नौकर सर्वेंट क्वॉर्टर में सोने चले गये थे. सिर्फ़ दो सुरक्षा-कर्मी अपने अपने कंधों पर बंदूक लटकाए हवेली की निगरानी में जाग रहे थे.
ठाकुर साहब इस वक़्त हॉल में सोफे पर बैठे हुए अपने जीवन का लेखा जोखा कर रहे थे. वे ये सोचने में लगे हुए थे कि उन्होने अपने पूरे जीवन में क्या पाया और क्या खोया.
उनके सामने सेंटर टेबल पर महँगी शराब की बोतलें और गिलास रखे हुए थे.
ठाकुर साहब ने बॉटल खोली और गिलास में शराब उडेलने लगे. फिर गिलास को होंठों से लगाकर एक ही साँस में खाली कर गये.
ये उनके लिए कोई नयी बात नही थी. रातों को जागना और शराब पी कर अपनी किस्मत को कोसना उनका मुक़द्दर बन गया था.
किंतु आज वे और दिन से अधिक दुखी थे. आज उनकी आँखों में आँसू थे. वे आँखें जो 20 सालों तक हज़ार गम सहने के बाद भी कभी नही रोई, आज रो रही थी. वजह थी कंचन....!
आज शाम को जब सुगना के घर से लौटने के बाद नौकर ने उन्हे ये बताया कि कंचन अब हवेली नही लौटना चाहती, तभी से उनका मन दुखी हो उठा था.
आज जितना अकेलापन उन्हे पहले कभी महसूस नही हुआ था. आज उनके सारे सगे-संबंधी एक एक करके उनसे अलग हो गये थे.
पहले दीवान जी, फिर निक्की और आज कंचन ने भी उनसे नाता तोड़ लिया था.
ठाकुर साहब को कंचन से ऐसी बेरूख़ी की उम्मीद नही थी. दीवान जी और निक्की उनके सगे नही थे. उनका जाना ठाकुर साहब को उतना बुरा नही लगा था. पर कंचन तो उनकी बेटी थी. उसके रगो में उनका खून दौड़ रहा था. चाहें अपने स्वार्थ के लिए या फिर घृणा से पर कंचन का ऐसे दुखद समय पर मूह मोड़ लेना उन्हे अंदर से तोड़ गया था. उनकी खुद की बेटी उन्हे पसंद नही करती, इस एहसास से वो बुरी तरह तड़प रहे थे.
आज उनके पास अपना कहने के लिए कुच्छ भी नही बचा था. अगर उनके पास कुच्छ बचा था तो ये हवेली जो इस वक़्त उनकी बेबसी का मज़ाक उड़ा रही थी. उसकी दीवारें हंस हंस कर उनके अकेलेपन पर उन्हे मूह चिढ़ा रही थी.
ठाकुर साहब ने फिर से गिलास भरा और पहले की ही तरह एक ही साँस में पूरा गिलास हलक के नीचे उतार गये.
अब उनकी आँखों में आँसू की जगह नशा तैर उठा था.
वे लहराते हुए उठे और हॉल के बीचो बीच आकर खड़े हो गये. फिर घूम घूम कर हॉल के चारों ओर देखने लगे. उनकी नज़र जिस और पड़ती, चमकती हुई काँच की दीवारें उन्हे परिहास करती नज़र आती.
ये सिलसिला कुच्छ देर चलता रहा. फिर अचानक ठाकुर साहब के जबड़े कसते चले गये. वे लपक कर सेंटर टेबल तक गये. सेंटर टेबल पर रखे बॉटल को उठाया और गुस्से से दीवार पर फेंक मारा.
बॉटल दीवार से टकराने के बाद टूट कर बिखर गयी.
पर इतने में उनका गुस्सा शांत ना हुआ. उन्होने पास पड़ी लकड़ी की कुर्सी उठाई और पूरी शक्ति से दीवारों पर मारने लगे.
च्चन....च्चन्न......छ्चाकक....की आवाज़ के साथ दीवारों पर जमा काँच टूटकर फर्श पर गिरने लगा.
काँच टूटने की आवाज़ सुनकर बाहर तैनात पहरेदारों में से एक दौड़कर भीतर आया. ठाकुर साहब को पागलों की तरह काँच की दीवारों का सत्यानाश करते देख उन्हे रोकने हेतु आगे बढ़ा.
किंतु !
जैसे ही ठाकुर साहब की नज़र उस पर पड़ी. शेर की तरह दहाड़े - "दफ़ा हो जाओ यहाँ से. खबरदार जो भीतर कदम रखा."
पहरेदार जिस तेज़ी से आया था. उसी तेज़ी से वापस लौट गया.
पहरेदार के बाहर जाते ही फिर से ठाकुर साहब दीवारों पर कुर्सियाँ फेंकने लगे. ये सिलसिला कुच्छ देर तक चलता रहा फिर तक कर घुटनो के बल बैठते चले गये.
"ये हम से क्या हो गया?" ठाकुर साहब अपना सर पकड़ कर रो पड़े. -"इस हवेली के मोह ने हमारा सब-कुच्छ हम से छीन लिया. इसने हम से हमारी राधा को छीन लिया. इसने हमारी बेटी कंचन को हम से अलग कर दिया. हम इस हवेली को आग लगा देंगे." ठाकुर साहब पागलों की तरह बड़बड़ाये. - "हां यही ठीक रहेगा. तभी हमारी राधा ठीक होगी, तभी हमारी बेटी हमारे पास लौट आएगी"
उनके अंदर प्रतिशोध की भावना जाग उठी. वो फुर्ती से उठे और रसोई-घर की तरफ बढ़ गये.
रसोई में केरोसिन के केयी गेलन पड़े हुए थे. वे सारे गेलन उठाकर हॉल में ले आए.
फिर एक गेलन को खोलकर केरोसिन दीवारों पर फेंकने लगे - "ये हवेली हमारी खुशियों पर ग्रहण है. इसने हमारी ज़िंदगी भर की खुशियाँ हम से छीनी है. आज हम इस ग्रहण को मिटा देंगे."
ठाकुर साहब घूम घूम कर केरोसिन छिड़क रहे थे. साथ ही अपने आप से बातें भी करते जा रहे थे. उन्हे इस वक़्त देखकर कोई भी आसानी से अनुमान लगा सकता था कि वे पागल हो चुके हैं.
पूरी हवेली की दीवारों को केरोसिन से नहलाने के बाद वे फिर से रसोई की तरफ भागे.
"माचिस कहाँ है?" वे बड़बड़ाये और माचिस की तलाश में अपनी नज़रें दौड़ाने लगे. - "हां मिल गयी." उन्होने झपट्टा मार कर माचिस को उठाया. फिर तेज़ी से हॉल में आए.
"अब आएगा मज़ा." उन्होने माचिस सुलगाई. फिर एक पल की भी देरी किए बगैर माचिस की तिल्ली को दीवार के हवाले कर दिया.
तिल्ली का दीवार से टकराना था और एक आग का भभका उठा.
ठाकुर साहब मुस्कुराए.
दो मिनिट में ही हवेली की दीवारें आग से चटकने लगी. आग तेज़ी से फैलती जा रही थी.
जैसे जैसे आग हवेली में फैलती जा रही थी वैसे वैसे ठाकुर साहब आनंद विभोर हो रहे थे. हवेली को धुन धुन करके जलते देख उनके आनंद की कोई सीमा ना रही थी.
बाहर खड़े पहरेदारों ने हवेली में आग उठते देख अंदर आना चाहा. पर साहस ना कर सके.
"अब हमारे दिल को सुकून पहुँचा है." ठाकुर साहब दीवानो की तरह हंसते हुए बोले. - "अब ये हवेली फ़ना हो जाएगी."
उनकी हँसी तेज़ हो गयी. हवेली में आग जितनी तेज़ी से बढ़ रही थी उनके ठहाके उतने ही बुलंद होते जा रहे थे. उनकी मानसिक स्थिति बिगड़ने में कोई कसर नही रह गयी थी. उनकी आँखों में ना तो भय था और ना ही अफ़सोस. मानो वे खुद भी हवेली के साथ खाक होना चाहते हों.
हवेली पूरी तरह से आग के लपटों में घिर चुकी थी. ठाकुर साहब के ठहाके अब भी गूँज रहे थे.
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