RE: Incest Kahani एक अनोखा बंधन
“बिगाड़ा तो उन लोगो ने भी नही था जो ट्रेन में थे…..बस यू समझ लो कि
करता कोई है और भरता कोई… सब राजनीतिक षड्यंत्र है”
“तुम मुझे यहा क्यों लाए, क्या मुझ से बदला ले रहे हो ?”
“जब पता चला कि ट्रेन फूँक दी गयी तो मैं भी अपना आपा खो बैठा था”
“हां-हां माइनोरिटी के खिलाफ आपा खोना बड़ा आसान है”
“मेरे मा-बाप उस ट्रेन की आग में झुलस कर मारे गये, ज़रीना...कोई भी अपना आपा खो देगा.”
“तो मेरी अम्मी और अब्बा कौन सा जिंदा बचे हैं.. और फ़ातिमा का तो रेप हुवा
लगता है. हो गया ना तुम्हारा हिसाब बराबर… अब मुझे जाने दो” ज़रीना रोते हुवे कहती है.
“ये सब मैने नही किया समझी… तुम्हे यहा उठा लाया क्योंकि फ़ातिमा का रेप
देखा नही गया मुझसे….अभी रात के 2 बजे हैं और बाहर करफ्यू लगा है.
माहॉल ठीक होने पर जहाँ चाहे चली जाना”
“मुझे तुम्हारा अहसान मंजूर नही…मैं अपनी जान दे दूँगी”
ज़रीना किचन की तरफ भागती है और एक चाकू उठा कर अपनी कलाई की नस
काटने लगती है
आदित्य भाग कर उसके हाथ से चाकू छीन-ता है और उसके मूह पर ज़ोर से एक थप्पड़ मारता है.
ज़रीना थप्पड़ की चोट से लड़खड़ा कर गिर जाती है और फूट-फूट कर रोने
लगती है.
“चुप हो जाओ.. बाहर हर तरफ वहसी दरिंदे घूम रहे हैं.. किसी को शक हो गया कि तुम यहा हो तो सब गड़बड़ हो जाएगा”
“क्या अब मैं रो भी नही सकती… क्या बचा है मेरे पास अब.. ये आँसू ही हैं.. इन्हे तो बह जाने दो”
आदित्य कुछ नही कहता और बिना कुछ कहे किचन से बाहर आ जाता है.
ज़रीना रोते हुवे वापिस उसी कमरे में घुस जाती है जिसमे उसकी कुछ देर पहले आँख खुली थी.
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अगली सुबह ज़रीना उठ कर बाहर आती है तो देखती है कि अदित्य खाना बना
रहा है.
आदित्य ज़रीना को देख कर पूछता है, “क्या खाओगि ?”
“ज़हर हो तो दे दो”
“वो तो नही है.. टूटे-फूटे पराठे बना रहा हूँ….यही खाने
पड़ेंगे..….आऊउच…” आदित्या की उंगली जल गयी.
“क्या हुवा…. ?”
“कुछ नही उंगली ज़ल गयी”
“क्या पहले कभी तुमने खाना बनाया है ?”
“नही, पर आज…बनाना पड़ेगा.. अब वैसे भी मम्मी के बिना मुझे खुद ही बनाना पड़ेगा ”
ज़रीना कुछ सोच कर कहती है, “हटो, मैं बनाती हूँ”
“नही मैं बना लूँगा”
“हट भी जाओ…जब बनाना नही आता तो कैसे बना लोगे”
“एक शर्त पर हटूँगा”
“हां बोलो”
“तुम भी खाओगि ना?”
“मुझे भूक नही है”
“मैं समझ सकता हूँ ज़रीना, तुम्हारी तरह मैने भी अपनो को खोया है. पर ज़ींदा रहने के लिए हमें कुछ तो खाना ही पड़ेगा”
“किसके लिए ज़ींदा रहूं, कौन बचा है मेरा?”
“कल मैं भी यही सोच रहा था. पर जब तुम्हे यहा लाया तो जैसे मुझे जीने
का कोई मकसद मिल गया”
“पर मेरा तो कोई मकसद नही………”
“है क्यों नही? तुम इस दौरान मुझे अछा-अछा खाना खिलाने का मकसद बना लो… वक्त कट जाएगा. करफ्यू खुलते ही मैं तुम्हे सुरक्षित जहा तुम कहो वाहा पहुँचा दूँगा” – अदित्य हल्का सा मुस्कुरा कर बोला
ज़रीना भी उसकी बात पर हल्का सा मुस्कुरा दी और बोली, “चलो हटो अब…. मुझे बनाने दो”
क्रमशः............
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