RE: Desi Porn Kahani विधवा का पति
इस कम्बख्त इंस्पेक्टर की नाक कितनी लम्बी है! इतनी दूर से भी उसे मिट्टी के तेल की बदबू आ रही है—युवक जड़वत्-सा बैठा उस इंस्पेक्टर को देखता रहा , जो अभी तक लम्बी-लम्बी सांसें लेने के साथ पता लगाने की कोशिश कर रहा था कि बदबू कहां से आ रही है।
अन्जाने ही में युवक ने अपनी दोनों हथेलियां भींच लीं।
ऊपर वाली बर्थ पर रखे इक्कीस लीटर के एक केन पर रूल मारते हुए इंसपेक्टर ने पूछा— “यह केन किसका है?"
कम्पार्टमेंट में सन्नाटा छाया रहा , किसी ने कोई जवाब नहीं दिया था।
इंस्पेक्टर ने बड़ी पैनी निगाहों से वहीं बैठे एक-एक यात्री को देखा। इस बार उसका लहजा कुछ कर्कश हो गया था—"बोलते क्यों नहीं , किसका है ये कैन ?"
सन्नाटा।
यात्री एक-दूसरे का मुंह देखने लगे।
अब युवक को पता लगा कि इंस्पेक्टर को मिट्टी के तेल की दुर्गन्ध उसके हाथों में से नहीं , इस केन से आ रही थी—कठोर दृष्टि से हर यात्री को घूरते हुए उसने कांस्टेबलों को केन उतारने का आदेश दिया —केन खोलकर देखने पर पाया कि वह मिट्टी के तेल से भरा था।
केन को घूरते हुए इंस्पेक्टर ने कहा— “हूं—सारे देश में मिट्टी के तेल की किल्लत है , जहां से एक बूंद भी मिलने की उम्मीद होती है तो वहां लाइन लग जाती है , मगर यहां इस केन में इक्कीस लीटर तेल यूपी से देहली जा रहा है।"
युवक को खुशी हुई कि मामला उससे सम्बन्धित नहीं था।
इंस्पेक्टर ने पुनः हरेक यात्री को घूरते हुए कहा— "मेरा नाम इंस्पेक्टर चटर्जी है , चुप रहकर इस केन का मालिक मुझसे बच नहीं सकेगा , या तो वह खुद ही बोल पड़े , अन्यथा पता लगाने के मुझे बहुत रास्ते मालूम हैं।"
सनसनी-सी फैल गई वहां , मगर सन्नाटा पूर्ववत् छाया रहा।
अब इंस्पेक्टर चटर्जी के चेहरे पर कठोरता के साथ-साथ गुस्से के भाव भी दृष्टिगोचर होने लगे। इस बार उसके मुंह से गुर्राहट निकली थी— “ आखरी बार वार्निंग देता हूं—या तो वह खुद बोल पड़े और अगर मैंने पता लगाया तो खाल खींचकर रख दूंगा।"
कम्पार्टमेंट में मौजूद सभी के चेहरे फक्क पड़ गए।
यह सोचकर युवक संतुष्ट था कि मामला मेरा नहीं है। इस मिट्टी के तेल का मालिक कोई और है—हुंह—मैं व्यर्थ में ही दुबला हुआ जा रहा था , भला इतनी जल्दी उस मामले में पुलिस यहां कैसे पहुंच सकती है ?
जब चटर्जी की इस चेतावनी के बाद भी कोई नहीं बोला तो वह चीख पड़ा— “ सभी यात्री अपने दोनों हाथ मिलाकर हवा में यूं फैला लें।"
सभी ने देखा कि कहने के बाद इंस्पेक्टर चटर्जी ने अपने दोनों हाथ खोलकर उसी अन्दाज में फैला दिए थे , जैसे मास्टर की कमची से पिटता बालक फैलाए रखता है।
सभी ने उस अन्दाज में हाथ फैला दिए।
और , सबको देखकर जब युवक ने भी हाथ फैलाए तो उसी क्षण उसके दिमाग को बहुत तेज झटका लगा—इसमें शक नहीं कि हार्टअटैक होते-होते बचा उसे।
एक क्रम में चटर्जी ने यात्रियों की फैली हुई हथेलियां सूंघनी शुरू कर दी थीं—युवक को अपनी आंखों के सामने अंधेरा-सा छाता महसूस हुआ—उफ्फ—क्या मैं इस केन को देहली ले जाने के जुर्म में पकड़ा जाऊंगा ?
ये क्या हो रहा है भगवान ?
दिमाग जाम हो गया युवक का—जी चाह रहा था कि वह चीख पड़े—केन के मालिक का पता लगाने के लिए यह कोई उपयुक्त तरीका नहीं है—मिट्टी के तेल की बदबू मेरे हाथ में भी है , मगर यह केन मेरा नहीं है।
परन्तु इस बात पर इंस्पेक्टर चटर्जी यकीन नहीं करेगा।
उससे हाथों में मौजूद बदबू का कारण पूछा जाएगा—क्या ज़वाब देगा वह ?
मगर कम्बख्त चटर्जी तो हर यात्री के हाथ सूंघता चला जा रहा है—मेरे हाथों पर वह ठिठक जाएगा—फिर वह मुझे पकड़ लेगा—ऐसे भी जान जाएगा कि मेरे हाथों में बदबू है। इससे अच्छा तो ये है कि मैं स्वयं ही चीखकर उसे बता दूं—मैं दूसरे यात्रियों की गवाही दिला सकता हूं—कई यात्री कह देंगे कि जब मैं यहां आया था तो मेरे हाथ में यह केन नहीं था।
हाथों में मौजूद बदबू का क्या जवाब दूंगा ?
इसका जवाब तो मुझे तब भी देना होगा , जब इंस्पेक्टर मेरे हाथों तक पहुंच जाएगा , अत: क्यों न पहले ही खुल जाऊं—शायद वैसा करने से मेरे पक्ष में माहौल बन सके ?
युवक का बुरा हाल था।
एक ऐसे अपराध में पकड़ा जाने वाला था वह , जिससे दूर-दूर तक भी उसका कोई सम्बन्ध नहीं था , यदि किसी जुर्म में पकड़कर उसे थाने ले जाया गया तो फिर सम्भव है कि गजेन्द्र और रिक्शा वाले द्वारा बताया गया हुलिया सत्यानाश ही कर दे।
व्यर्थ ही फंसने जा रहा था वह।
दिल चाहा कि अभी-अभी , दहाड़ें मार-मारकर रो पड़े।
जिस्म का रोयां-रोयां खड़ा हो गया। बड़े ही संवेदनशील क्षण थे—दिलो-दिमाग पर छाया आतंक सहना जब युवक के वश में न रहा तो सब कुछ कह देने के लिए उसने मुंह खोला ही था कि बुर्केवाली एक औरत के हाथ सूंघने के तुरन्त बाद ही इंस्पेक्टर ने अपनी पूरी ताकत से रूल उसके हाथों पर मारा।
औरत चीख पड़ी।
गुस्से में तमतमाते हुए चटर्जी ने एक झटके से उसका नकाब उलट दिया—दूसरे यात्रियों के साथ युवक ने भी तवे के पृष्ठ भाग के समान उस काली औरत को देखा , जिसके चेहरे पर उस वक्त वेदना और आतंक के भाव थे।
अच्छा-खासा काला चेहरा इस वक्त सफेद-सा लग रहा था।
"इसे गिरफ्तार कर लो।" औरत की बांह पकड़कर उसे कांस्टेबलों की तरफ धकेलते हुए चटर्जी ने कहर भरे स्वर में कहा—कांस्टेबलों ने औरत को पकड़ लिया।
बचे हुए यात्रियों की तरह युवक ने भी अपने हाथ नीचे गिरा लिए। मस्तक पर से स्वयं ही पसीना सूखता चला गया —धड़कनें अब नियन्त्रण में आ रही थीं।
चटर्जी ने जेब से सामान बरामदी का एक कागज निकालते हुए कहा—"शेष यात्रियों से मैं माफी चाहता हूं—दरअसल मुजरिम को पकड़ने के लिए कभी-कभी हमें शरीफ लोगों के साथ भी सख्ती बरतनी पड़ती है।"
खामोशी छाई रही।
चटर्जी ने फार्म भरा। बुर्के वाली औरत से पूछकर उसका नाम और पूरा पता लिखा—फार्म पर उसके अंगूठे का निशान लगवाया , तब बोला—“औरत पर केस दर्ज करने के लिए दो गवाहों की जरूरत पड़ेगी और वे आदमी पब्लिक के ही होने चाहिए—एक साइन आप कीजिए मिस्टर। ” चटर्जी ने युवक के सामने बैठे एक अधेड़ आयु के व्यक्ति से कहा था।
"म...मैं।" वह सकपका-सा गया।
"घबराइए नहीं , इसमें चिंता करने जैसी कोई बात नहीं है।" चटर्जी उसे समझाने के अन्दाज में बोला— "आप सिर्फ यह कह रहे हैं कि आपके सामने मिट्टी के तेल से भरा यह केन पुलिस ने इस औरत से बरामद किया है , जिसके अंगूठे का निशान फार्म पर है और यही बात अपने अदालत में कहनी होगी।"
"म...मगर अदालत के चक्कर कौन काटेगा, इंस्पेक्टर?”
"हम आपकी परेशानी समझते हैं।" चटर्जी ने हल्की-सी मुस्कान के साथ कहा— "मगर आपको भी हमारी दिक्कत समझनी चाहिए। हमारे लिए यह जरूरी होता है—एक बार से ज्यादा आपको अदालत में नहीं जाना पड़ेगा , और फिर सहयोग करना आपका फर्ज है।"
अनिच्छापूर्वक अधेड़ आयु के व्यक्ति को साइन करने ही पड़े।
"पूरा एड्रेस लिख दीजिए , ताकि आपसे सम्पर्क स्थापित करने में किसी तरह की प्रॉब्लम न आए।" चटर्जी ने कहा।
एड्रेस लिखते वक्त अधेड़ के चेहरे पर ऐसे भाव थे, जैसे वह अपनी मौत के परवाने पर साइन कर रहा हो—उसे देखकर युवक सोच रहा था कि पता नहीं वह बेवकूफ क्यों मरा जा रहा है ?
तभी , फार्म उसी की तरफ बढ़ाते हुए इंस्पेक्टर ने कहा— "दूसरे साइन आप कर दीजिए, मिस्टर सिकन्दर।"
सकपका गया युवक।
हिल तक नहीं सका वह , किंकर्तव्यविमूढ़-सा चटर्जी के चेहरे को देखता रहा , जबकि उसे इस अवस्था में देखकर इंस्पेक्टर धीमे-धीमे मुस्करा रहा था— “आप तो पढ़े-लिखे हैं, मिस्टर सिकन्दर—क्या आपको भी वे सब बातें समझानी पड़ेंगी , जो अभी-अभी …।"
“मु.....मुझे माफ ही कर दो इंस्पेक्टर तो ज्यादा अच्छा है।"
"क्यों ?”
"मैं देहली का रहने वाला हूं, यह केस शायद गाजियाबाद की अदालत में जाएगा—अगर गाजियाबाद के ही किसी आदमी को गवाह बना लें तो शायद ज्यादा मुनासिब रहे।"
"व्यापार के सिलसिले में आप आते ही रहते हैं और फिर भी भले ही प्रदेश अलग हैं , किन्तु देहली और गाजियाबाद में दूरी ही कितनी है ?"
"य...यह तो ठीक है , मगर फिर भी... ?"
"इस तरह तो हर आदमी पीछा छुड़ा सकता है मिस्टर सिकन्दर और यदि हम इस तरह करने लगे तो बस हो ली कानून की हिफाजत—प्लीज , साइन कीजिए।"
कैसी विवशता थी युवक के सामने!
'सिकन्दर ' के नाम से उसे साइन करने ही पड़े—पता भी लिखा—लारेंस रोड पर स्थित न्यादर अली के बंगले का नम्बर उसे मालूम नहीं था , मगर ऐसा कह नहीं सकता था , क्योंकि इस बात पर भला कोई कैसे यकीन कर लेगा कि किसी को अपने ही मकान का नम्बर मालूम न हो—उसने यूं ही एक काल्पनिक नम्बर लिख दिया।
सब कुछ सही लिखना इसीलिए जरूरी था , क्योंकि कुछ ही देर पहले चटर्जी के सवालों के जवाब में वह बता चुका था। फार्म उससे लेकर 'तह ' बनाते हुए इंस्पेक्टर ने कहा—
“थैंक्यू मिस्टर सिकन्दर , पहली बार मेरा अनुमान गलत निकला है।"
"क्या मतलब ?"
“जब यहां आते ही मैंने आपको घूरा तो आपके चेहरे पर जाने क्यों मैंने हवाइयां-सी उड़ती महसूस की …मेरा अनुमान था कि केन शायद आपकी है , मगर वह गलत निकला—मेरी जिन्दगी में ऐसा पहली बार ही हुआ है।"
"तो क्या इसीलिए आपने मुझसे इतने ढेर सारे सवाल किए थे ?"
“जी हां....खैर , आपको हुई असुविधा के लिए माफी चाहता हूं।" कहने के तुरन्त बाद ही वह कांस्टेबलों की तरफ घूम गया और उसने उन्हें उतर जाने का संकेत किया।
साहिबाबाद के प्लेटफार्म पर पहुंचने की कोशिश में ट्रेन की गति धीमी पड़ती जा रही थी—यहां उतरने वाले यात्री खड़े हो गए।
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