RE: Desi Porn Kahani विधवा का पति
विशेष उसे गांधीनगर की एक ऐसी बस्ती में ले गया , जहां अधिकांश मध्यम आय वर्ग के मकान थे …और जिस मकान को विशेष ने अपना मकान कहा , वह बस्ती से थोड़ा दूर हटकर एकान्त में था—उसके इर्द-गिर्द के प्लाट अभी खाली पड़े थे।
दो सौ गज के प्लाट पर खड़ा यह दो-मंजिता मकान था।
पूरी आत्मीयता के साथ नन्हां विशेष खींचकर उसे मकान के अन्दर ले गया और चिल्लाने लगा—“दादी, मम्मी.....कहां हो तुम , देखो …मैं किसको लाया हूं ?"
किंकर्तव्यविमूढ़-सा युवक उसके साथ आंगन में पहुंच गया।
आंगन काफी बड़ा था।
सामने वाले कमरे से एक बूढ़ी महिला बाहर निकलती हुई बोली—"अरे, तू जा गया , वीशू ?"
"हां दादी , देखो मैं किसे लाया हूं ?"
"कौन है बेटा ?" बढ़िया ने कम हो गई अपनी आंखों की ज्योति का प्रयोग करने की कोशिश करते हुए कहा और आंखों के ऊपर हाथ रखकर युवक को देखने लगी।
"मेरे पापा आए हैं, दादी। ”
"प...पापा ?” युवक को ध्यान से देखती हुई बुढ़िया ने कहा , वह कुछ आगे बढ़ी और फिर अचानक ही बांहें फैलाकर युवक की तरफ दौड़ती हुई चीखी—"अरे मेरा बेटा , मेरा सर्वेश—हां , तू मेरा सर्वेश ही है।"
आगे बढ़कर युवक ने बड़ी जल्दी से उसे संभाल न लिया होता तो खुशी और जोश की अधिकता के कारण शायद यह गिर ही पड़ती। युवक ने उसे बांहों में भर लिया और उससे लिपटी थर-थर कांप रही बुढ़िया चीख रही थी— “मेरा सर्वेश मिल गया है—हां , तू ही मेरा सर्वेश है—सब बकते थे , ये जन्मजले दुनिया वाले झूठ ही कहते थे कि मेरा बेटा मर गया है—हुं SS—मेरा सर्वेश कोई मर सकता है—देखो , ये रहा मेरा बेटा—हा-हा-हा—मेरा बेटा जिन्दा है , मेरा सर्वेश भला कभी मर सकता है—हा-हा-हा—मेरा बेटा जिन्दा है , मेरा सर्वेश भला कभी मर सकता है …हा-हा-हा।"
वह कुछ ऐसे वहशियाना ढंग से हंसने लगी थी कि युवक के जिस्म में झुरझुरी-सी दौड़ने लगी। उसे लगा कि यह बूढ़ी औरत शायद पागल है—वह पागलों की तरह ही हंसती चली जा रही थी—युवक ने उसे अपने से अलग करने को कोशिश की—मगर बुढ़िया ने बहुत ही कसकर पकड़ रखा था उसे।
जैसे डर हो कि वह कहीं भाग जाएगा।
युवक को लग रहा था कि उसके दिमाग की मशीनरी में अब जंग लग चुका है , जाम हो गई है वह—सोचने-समझने या किसी बात का सही अर्थ निकालने की क्षमता नहीं महसूस हो रही थी उसे , जबकि बुढ़िया ने उससे चीखकर पूछा— "तू सर्वेश ही है न , तू मेरा बेटा ही है न—बोल , तू रश्मि का पति है न ?"
"हां...हां मांजी।" अवाक्-से युवक के मुंह से निकल गया।
“खबरदार , जो तुमने खुद को रश्मि का पति कहा।" अचानक ही वहां एक कर्कश आवाज गूंजी। विशेष और बूढ़ी औरत के साथ पलटकर युवक ने भी आवाज की दिशा में देखा। आवाज मकान के मुख्य द्वार से उभरी थी और वहां खड़ी संगमरमर की एक प्रतिमा को देखता ही रह गया युवक , चाहकर भी दृष्टि उस पर से हटा न सका।
उधर , उस युवक पर नजर पड़ते ही संगमरमर की वह प्रतिमा भी बुरी तरह चीख पड़ी थी , जाने क्यों—युवक के चेहरे पर दृष्टि पड़ते ही उसका मुंह खुला-का-खुला रह गया।
सारे जहां की हैरत मानो सिर्फ और सिर्फ उसी मुखड़े पर सिमट आई थी।
युवक के चेहरे पर उसकी दृष्टि जमकर रह गई।
जबकि युवक खुद उस मुखड़े से दृष्टि नहीं हटा पा रहा था …उस मुखड़े से , जिसके लिए सारे जहां से शर्त लगाकर यह दावा पेश कर सकता था कि यह मुखड़ा दुनिया की सभी हसीनाओं से कई गुना ज्यादा खूबसूरत है—निहायत ही सुन्दर थी रश्मि।
छोटी-सी , मासूम—रुई की बनी गुड़िया जैसी।
मुखड़ा गोल था उसका , रंग वैसा ही जैसा एक चुटकी सिन्दूर मिले मक्खन का हो सकता है—सुतवां नाक , गुलाब की पंखड़ियों से कोमल और गुलाबी होंठ—चौड़े मस्तक और कमान के आकार की भौंहों वाली रश्मि की आंखें नीली थीं।
किसी फाइव स्टार होटल के 'स्विमिंग पूल ' में भरे स्वच्छ नीले जल-सी आंखें—तांबे के-से रंग के लम्बे बालों को बड़ी सख्ती के साथ सिमेटकर बांधे हुए थी वह—ऐसी अपूर्व सुन्दरी जिसे देखकर स्वयं सुन्दरता भी ईर्ष्या की लपटों की शिकार होकर राख में बदल जाए।
मगर जाने क्यों? उसे विधवा के लिबास में देखकर युवक की छाती पर एक घूंसा-सा लगा—सस्ती परन्तु धुली हुई बेदाग सफेद साड़ी पहने थी वह—कर्फ्यूग्रस्त सड़क-सी सूनी पड़ी थी उसकी मांग—गोरी , गोल , भरी-भरी बांहों में एक भी चूड़ी नहीं थी।
एक नन्हीं-सी गुड़िया को इस रूप में देखकर युवक को जाने क्यों धक्का-सा लगा। उसकी इच्छा हुई कि रश्मि को यह लिबास पहनाने वाले का मुंह नोंच ले , जबकि कुछ देर तक उसकी तरफ असीमित हैरत के साथ देखने के बाद एकाएक ही रश्मि की नीली आंखें सिकुड़ती चली गईं …चिंगारियां-सी बरसाने लगीं वे आंखें—मुखड़ा संगमरमर के किसी पत्थर की तरह ही साफ हो गया। युवक पर दृष्टि जमाए ही वह आगे बढ़ी।
उसके नजदीक पहुंची , मोतियों-से दांत भींचकर गुर्राई—"कौन हो तुम ?"
"मैं...मैँ।" युवक चीखता गया।
"अरे, क्या तूने इसे पहचाना नहीं रश्मि बेटी—यह मेरा बेटा है—तेरा सर्वेश।"
"प...प्लीज मां , आप खामोश रहिए—कितनी बार कह चुकी हूं कि आप चाहे जिसको अपना बेटा कहती फिरा करें , मगर मेरा पति न कहें किसी को।"
"ये कोई थोड़ी हैं, मम्मी-मेरे पापा...। ”
'चटाक्...। ' रश्मि का एक जोरदार चांटा विशेष के गाल पर पड़ा।
मासूम की चीख सारे आँगन में गूंज गई।
जाने क्यों युवक को यह सब कुछ अच्छा नहीं लगा—सहमे हुए विशेष को खींचकर अपने गले से लगा लेने की प्रबल आकांक्षा दिल में
उबल पड़ी। स्वयं को रोक नहीं सका वह।
विशेष को पकड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया।
रश्मि ने पहले ही खींचकर उसे अपने अंगों से लिपटा लिया। नीले नेत्रों से चिंगारियां-सी बरसाती हुई वह गुर्राई—"तुम्हारे इस जाल में मां फंस सकती हैं …मासूम वीशू धोखा खा सकता है , मगर मैं नहीं—मैं जानती हूं कि तुम कोई बहरूपिये हो।"
"म.....मैँ।"
"निकल जाओ यहां से।"
युवक चकरा गया , बोला— "अगर मैं सर्वेश नहीं हूं तो यह मां मुझे …।"
"उन्होंने अपने बुढ़ापे का एकमात्र सहारा , अपना जवान बेटा खोया है—तब से वे पागल हो गई हैं—हर युवक को सर्वेश कहने लगती हैं , अपना बेटा कहकर हरेक से लिपट जाती , हैं।"
“ म …मगर विशेष ?"
"यह बच्चा है , तुम्हारी उस सूरत से धोखा खा गया है , जो बनाकर तुम यहां आए हो , मगर मैं इस किस्म के किसी धोखे का शिकार होने वाली नहीं हूं …मैं जानती हूं कि तुम सर्वेश नहीं हो सकते—तुम कोई बहुरूपिये हो—ऐसे बहुरूपिये जो चेहरे पर उनका मेकअप करके शायद हमें ठगने आया है।"
"मेकअप?”
“हां , मैं जानती हूं कि तुम्हारे चेहरे पर मेकअप है।"
"आप यकीन कीजिए , मेरे चेहरे पर कोई मेकअप नहीं है।"
नीली आँखों में नफरत के चिन्ह उभर आए। खूबसूरत मुखड़ा कुछ और ज्यादा सख्त हो गया। बोली— “ क्या तुम यह कहना चाहते हो कि तुम सर्वेश हो ?”
“नहीं।”
"फिर ?”
"केवल यह कि आप कैसे कह रही हैं कि मैं सर्वेश नहीं हो सकता ?"
"इसीलिए क्योंकि उनकी लाश मैंने अपनी आंखों से देखी है—उनकी लाश के मस्तक पर इन कलाइयों को पटककर सारी चूड़ियां तोड़ी हैं मैंने—उनके मफलर से अपने मस्तक की बिंदिया , अपनी भांग का सिन्दूर पोंछा है।"
कहते-कहते उसका गला रुंध गया। नीली आंखें भर आईं।
कुछ देर तक अवाक्-सा युवक उसे देखता रहा। फिर बोला— "तो क्या मेरी शक्ल सर्वेश से मिलती है ?"
"म...मैं फिर कहती हूं कि यह नाटक बन्द करो—तुम मुझे ठग नहीं सकते , बाहर निकल जाओ इस घर से , वरना मैं पुलिस को बुला लूंगी।"
पुलिस का नाम बीच में आते ही युवक के तिरपन कांप गए—उसकी इच्छा हुई कि वहां से भाग खड़ा हो , मगर वहां आने के बाद जो नई गुत्थियां उसके जेहन में चकराने लगी थीं—वह उनका जवाब चाहता था। अत: बोला—"इस वक्त आप गुस्से में हैं , यकीन मानिए , मैं कोई बहुरूपिया नहीं हूं …शायद बचपन ही से यह मेरी असली शक्ल है—शायद इस शक्ल को देखकर ही विशेष रिक्शा में से कूद पड़ा था।"
"त...तुम रिक्शा में से कूद पड़े थे वीशू ?"
"हां मम्मी—पापा को देखकर।"
"अरे—तुझे तो चोट लगी है वीशू—घुटनों से खून बह रहा है—चल मेरे साथ।" उसकी चोट देखकर एकदम से बेचैन हो उठी रश्मि—सब कुछ भूल गई वह और विशेष को लेकर आंगन से ही शुरू होकर दूसरी मंजिल तक जा रही सीढ़ियों पर बढ़ती चली गई।
ढेर सारे प्रश्नों से घिरा युवक किंककर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा उसे देख रहा था कि बूढ़ी मां उसके समीप सरक आई। धीमे से रहस्यमय अन्दाज में बोली— "रश्मि की किसी बात का बुरा मत मानना बेटा , पता नहीं किस कलमुंहे की लाश को सर्वेश की लाश समझकर बेचारी ने अपनी सारी चूड़ियां तोड़ डाली हैं—खुद को विधवा समझने लगी है यह—दिमाग में खराबी आ गई है , बेचारी रश्मि। सुहागिन बनने की उम्र में विधवा बन जाने पर भला किसका दिमाग ठिकाने रह सकता है ?"
युवक चौंककर बूढ़ी मां की तरफ देखने लगा।
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