RE: Desi Porn Kahani विधवा का पति
युवक अभी तक मुंह बाए कमरे के दरवाजे पर झूल रहे उस परदे को देख रहा था , जो रश्मि के तेजी से निकलने के कारण जोर-जोर से हिल रहा था।
एक बार फिर उसके दिमाग को ढेर सारे प्रश्नवाचक चिन्हों के जाल ने बुरी तरह जकड़ लिया था , हर कदम पर उसे उलझनों का सामना करना पड़ रहा था …किसी मूर्ति की तरह अवाक्-सा वह वहीं खड़ा रह गया।
उसे यह भी होश न रहा था कि नजदीक ही विशेष भी खड़ा है।
वह सोचने लगा कि न्यादर अली मुझे सिकन्दर साबित करना चाहता था और मैं खुद को सिकन्दर मानने के लिए तैयार न हुआ—रूबी मुझे जॉनी कह रही थी , पर्याप्त प्रमाण भी पेश किए थे उसने , मगर मैं फिर भी उस पर शक करता रहा—परन्तु यहां , इस छोटे-से घर में—छोटे-से परिवार के बीच हालात बिल्कुल उल्टे रहे—रश्मि सिद्ध कर रही थी कि मैं सर्वेश नहीं हूं और मैं खुद को सर्वेश ही साबित करने पर तुल गया।
पूर्णतया अभी तक मानने को तैयार नहीं हूं कि मैं सर्वेश नहीं हूं।
इसका कारण ?
वह उस तरीके से सोचने लगा।
युवक इन्हीं विचारों के बीहड़ जंगल में भटक रहा था कि विशेष ने पुकारा—"पापा-पापा!"
तंद्रा भंग हो गई युवक की—उसने चौंककर विशेष की तरफ देखा , किसी शंका से डरा-सा वह युवक की तरफ देख रहा था , बोला—"चुप क्यों हो पापा ?"
घुटनों के बल उसके समीप बैठ गया युवक , बोला— “नहीं तो बेटे , भला हम चुप क्यों होते ?"
"क्या आप हमारे पास से फिर चले जाएंगे, पापा ?"
"न...नहीं बेटे , बिल्कुल नहीं।" विशेष को खींचकर अपने कलेजे से लगाता हुआ युवक उठा , गला जाने कैसे रुंध गया था—आवाज खुद-ब-खुद भर्रा गई—उसे लगा कि आंखें बेवफाई करने वाली हैं , भावावेशवश विशेष को कसकर भींच लिया उसने।
"म...मम्मी तो कह रही थीं।" विशेष अब भी किसी शंका से आतंकित था।
"व...वे इस वक्त गुस्से में हैं, बेटे। ”
"तो आप नहीं जाएंगे ?" अलग होते हुए उत्साहित-से विशेष ने पूछा , इस बच्चे की नीली आंखों में जो चमक इस वक्त थी , उसे देखकर युवक का दिलो-दिमाग हाहाकार कर उठा , अपने दिल के हाथों विवश होकर उसने कहा— "बिल्कुल नहीं बेटे।"
"तो खाइए मेरी कसम।" कहने के साथ ही विशेष ने उसका हाथ उठाकर अपने सिर पर रख लिया—युवक का मात्र वह हाथ ही नहीं , बल्कि दिल तक कांप उठा—अवाक्-सा मासूम विशेष को देखता रहा वह , जुबान तालू से जा चिपकी थी , विशेष ने कहा— "अगर आप फिर गए तो मैं बापू की तरह खाना-पीना छोड़ दूंगा—पढ़ने के लिए स्कूल भी नहीं जाऊंगा।"
युवक के सारे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई।
अन्जाने ही में उसके सेब-से गाल पर एक चुम्बन अंकित करता हुआ वह बोला— “ हम तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे, बेटे। क्या अपने पापा पर तुम्हें यकीन नहीं है।"
"तो इसी बात पर मिलाइए हाथ।" जोश में भरे विशेष ने अपना नन्हां हाथ आगे बढा दिया —युवक ने हाथ मिलाया—विशेष के दमकते चेहरे को देखकर युवक के होंठों पर भी मुस्कान बिखर गई।
जैसे उनका दुख-सुख एक ही डोर से बंधा हो।
अचानक विशेष ने पूछा— “आपको मेरे लेटर मिल गए थे, पापा ?"
"लेटर ?"
“हां , मम्मी के कहने पर मैंने आपको डाले थे।"
"हमें लेटर डाले थे आपने.....किस एड्रेस पर भाई ?"
"आपका नाम , आकाशपुरी—तारा नम्बर फिफ्टीन।"
वेदना से लबालब भर गया युवक का हृदय। खुद को रोने से रोकने के लिए जबरदस्त श्रम करना पड़ा उसे , बोला—“अरे, हम तो तारा नम्बर फिफ्टीन में ही रहते थे।"
"फिर आपने हमारे इतने सारे लेटर्स का जवाब क्यों नहीं दिया ?"
"लेटर तो तभी मिलता है न बेटे , जब उसे लेटर बॉक्स में डाला जाए ?"
"मम्मी ने भी यही कहा था और हमारे सारे लेटर्स उन्होंने लेटर बॉक्स में ही डलवाए थे।"
"ल...लेटर बाक्स में—कौन-सा लेटर बॉक्स ?"
"देखिए , वह रहा।" कहने के साथ ही विशेष ने जल्दी से एक तरफ को इशारा कर दिया। युवक ने जब उस तरफ देखा तो दिल धक्क से रह गया।
कमरे में मौजूद एक सेफ की पुश्त पर लेटर बॉंक्सनुमा एक खिलौना रखा था। लाल रंग का एक छोटा-सा , गोल लेटर बाक्स—दरअसल यह 'गुल्लक ' थी , अत: अन्दर से खोखला था …पैसे डालने वाले स्थान से कोई भी कागज 'तह ' करके अन्दर आराम से डाला जा सकता था।
युवक के सारे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गई।
"क्या तुमने सारे पत्र उसी में डाले थे ?"
"मम्मी ने कहा था कि उसमें डालने से पत्र आपको मिल जाएंगे।"
रोकने की काफी कोशिश के बाद भी आंखों ने विद्रोह कर ही दिया , जाने क्यों—युवक के दिल में उस लेटर बॉक्स को खोलने की तीव्र इच्छा उभरी-बॉक्स के खुलने वाले मुंह पर छोटा-सा ताला लटका हुआ था—एकाएक ही उसके दिल में यह सवाल उठा कि एक मां को , बिना पापा के बच्चे को पालने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है!
वह खुद को रोक नहीं सका।
एक कुर्सी पर चढ़ाकर उसने बॉक्स उतार लिया—बॉक्स के समीप ही छोटी-सी चाबी रखी थी। विशेष के नजदीक आकर उसने ताला खोला , बॉक्स का ताला खोलते ही लुढ़ककर कई कागज फर्श पर गिर गए।
“अरे, ये सारे लेटर तो इसी में रखे हैं पापा—फिर आपको मिलते कैसे ?"
"इस तरफ का पोस्टमैन छुट्टी पर होगा, बेटे।" भर्राए स्वर में कहते हुए युवक ने उनमें से एक कागज उठा लिया , खोलकर पढ़ा , लिखा था—“मेरे प्यार पापा, मेरे लिए टॉफियां लेने गए आपको इतने ढेर सारे दिन हो गए हैं—मगर आप आते ही नहीँ—मैं हर समय आपके लिए रोता रहता हूं—जब मैं रोता हूं तो मम्मी भी रोती हैं, पापा—कहती हैं कि मैं हर समय आपसे टॉफियों के लिए जिद्द करता रहता था—इसीलिए आप चले गए हैं—अच्छा तो , मैं अपने कान पकड़ता हूं पापा—अब कभी टॉफी नहीं मांगूंगा, मगर आप आ तो जाओ—अब आओगे न पापा—टॉफी बहुत गंदी होती हैं—यस, पापा अच्छे होते हैं , सच है न पापा—देखो , अगर आप मेरा यह लेटर पढ़कर भी नहीं आए तो मैं रूठ जाऊंगा आपसे।
…आपका शैतान बेटा—विशेष।
‘टप-टप ' करके कई बूंदें उस कागज पर गिर पड़ीं।
"अरे, आप रो रहे हैं, पापा ?"
"ब...बेटे। " खींचकर उसने विशेष को अपने सीने से लगा लिया और बांध टूट चुका था—युवक की आंखों से आंसुओं का सैलाब-सा उमड़ पड़ा—फूट-फूटकर रो पड़ा वह—लाख चाहकर भी अपनी इस रुलाई को रोक नहीं सका था युवक।
विशेष की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
"नहीं पापा , रोते नहीं हैँ—मम्मी कहती हैं कि रोने वाले बच्चे कायर होते हैं—क्या आप कायर हैं पापा—कायर होना गन्दी बात है। "
विशेष का एक-एक शब्द उसके अन्तर में कहीं ज़बरदस्त खलबली मचा रहा था। तभी कमरे में रश्मि की आवाज गूंजी— “आप अभी तक यहीं हैं ?"
युवक एकदम से विशेष से अलग होकर खड़ा हो गया—बौखलाकर उसने अपने आंसू पौंछे और खुले पड़े लेटर बॉंक्स को देखकर रश्मि जैसे सब कुछ समझ गई—एक क्षण के लिए उसके मुखड़े पर असीम वेदना उभरी , अगले ही पल उसने सख्त स्वर में कहा— “यह लेटर बॉक्स यहां से उतारकर आपने किस अधिकार से खोल लिया है ?"
युवक चुप रहा , उसके पास कोई जवाब नहीं था।
"आप यहां से जाते हैं या मैं पुलिस को बुलाऊं ?"
खुद को नियंत्रित करके युवक ने कहा— "मैँ आपसे कुछ बातें करना चाहता हूं।"
"मुझे आपकी कोई बात नहीं सुननी है। ”
"प...प्लीज।" युवक गिड़गिड़ा उठा— "म.....मेरी सिर्फ एक बात सुन लीजिए। घर आपका है , अन्त में वही होगा , जो आप चाहेंगी।"
रश्मि खामोश रह गई , युवक की बात मान लेने के लिए यह उसकी मौन स्वीकृति थी। युवक ने विशेष को नीचे चले जाने के लिए कहा।
सहमे-से विशेष ने तुरंत ही उसके आदेश का पालन किया।
"कहिए।" विशेष के जाते ही रश्मि ने सपाट स्वर में कहा।
"द....दरअसल मैंने विशेष के द्वारा अपने पिता को लिखा गया पत्र पढ़कर ही वास्तव में अहसास किया है कि , विशेष को अपने पिता से बेइन्तहा मौहब्बत है …अपने पिता के लौटने का उसे बेसब्री से इंतजार था और वह मुझी को अपना पिता समझ बैठा है , अब अगर मैं यहां से इस तरह चला गया तो उसका दिल टूट जाएगा।"
"उसके बारे में चिन्तित होने का आपको कोई हक नहीं है।"
"जानता हूं लेकिन जज्जात नहीं जानते रश्मि जी कि हक क्या होता है—उन्हें तो दिल में खलबली मचाने से मतलब है.....वे जाने कब , किसके लिए , किसके दिल में मचल उठें …वीशू कहता है कि अगर मैं चला गया तो वह खाना नहीं खाएगा—स्कूल भी नहीं जाएगा। '"
"वे सब मेरी समस्याएं हैं , मैं जानूं …आपसे मतलब ?"
"अगर कुछ ज्यादा नहीं तब भी , इंसानियत का मतलब तो है ही—मुझे लगता है कि यदि मैं यहां से चला गया तो वीशू के विकसित होते दिमाग पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। ”
"तो क्या मैं आपको इस घर में बसा लूं?"
"म...मैंने यह कब कहा ?"
"फिर क्या मतलब है आपका ?"
“अगर मैं किसी तरह वीशू के दिमाग में इस सच्चाई को भरने में सफल हो जाऊं कि मैं उसका पिता नहीं हूं तो शायद मेरे यहां से चले जाने का उसके दिमाग पर कोई असर नहीं होगा। "
"इस काम में कितना समय लगेगा आपको ?"
उत्साहित-से होकर युवक ने कहा—“एक या ज्यादा-से-ज्यादा दो दिन।"
"दो दिन।" कहकर रश्मि किसी सोच में डूब गई महसूस हुई। शायद विशेष की मानसिक स्थिति का अंदाजा वह भी ठीक से लगा पा रही थी , बोली— “ठीक है , आप केवल दो दिन यहां रह सकते हैं , दो दिन से ज्यादा एक क्षण भी नहीं। "
"थ...थैंक्यू।" खुशी से लगभग कांपते हुए युवक ने कहा।
"और इन दो दिनों में मांजी को भी समझा दीजिएगा कि आप उनके बेटे नहीं हैँ—मैं जितनी देर नीचे उनके पास रही , वे आपको बेटा ही कहती रहीं। "
"म...मैँ समझा दूंगा। "
"आप सिर्फ नीचे रहेंगे—एक क्षण के लिए भी ऊपर आने की कोशिश नहीं करेंगे।"
“म....मुझे आपकी हर शर्त मंजूर है। " कहने के बाद युवक तेज और लम्बे-लम्बे कदमों के साथ कमरे से बाहर निकल गया। जाने क्यों वह बहुत खुश था।
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